Quantcast
Channel: देर रात के राग
Viewing all 1786 articles
Browse latest View live

उत्पादन-प्रणाली पर विचारधारा की निर्भरता

$
0
0

मैं इस अवसर से लाभ उठाकर अमरीका में प्रकाशित एक ज़र्मन पत्र के उस एतराज़ का संक्षेप में जवाब दे देना चाहता हूँ जो उसने मेरी रचना Zur Kritik der Politischen Oekonomie,1859पर किया है। मेरा मत है कि प्रत्‍येक विशिष्‍ट उत्‍पादन-प्रणाली और उसके अनुरूप सामाजिक सम्‍बन्‍ध,या संक्षेप में कहिए,तो समाज का आर्थिक ढाँचा ही वह वास्‍तविक आधार होता है,जिसपर क़ानूनी एवं राजनीतिक ऊपरी ढाँचा खड़ा किया जाता है और जिसके अनुरूप चिन्‍तन के भी कुछ निश्चित सामाजिक रूप होते हैं;मेरा म‍त है कि उत्‍पादन की प्रणाली आम तौर पर सामाजिक,राजनीतिक एवं बौद्धिक जीवन के स्‍वरूप को निर्धारित करती है। इस पत्र की राय में,मेरा यह मत हमारे अपने ज़माने के लिए तो बहुत सही है,क्‍योंकि उसमें भौतिक स्‍वार्थों का बोलबाला है,लेकिन वह मध्‍ययुग के लिए सही नहीं है,जिसमें कैथोलिक धर्म का बोलबाला था,और वह एथेंस और रोम के लिए भी सही नहीं है,जहाँ राजनीति का ही डंका बजता था। अब सबसे पहले तो किसी का यह सोचना सचमुच बड़ा अजीब लगता है कि मध्‍ययुग और प्राचीन संसार के बारे में ये पिटी-पिटाई बातें किसी दूसरे को मालूम नहीं हैं। बहरहाल इतनी बात तो स्‍पष्‍ट है कि मध्‍ययुग के लोग केवल कैथोलिक धर्म के सहारे या प्राचीन संसार के लोग केवल राजनीति के सहारे ज़ि‍न्‍दा नहीं रह सकते थे। इसके विपरीत,उनके जीविका कमाने के ढंग से ही यह बात साफ़ हो जाती है कि क्‍यों एक काल में राजनीति की और दूसरे काल में कैथोलिक धर्म की भूमिका प्रधान थी। जहाँ तक बाक़ी बातों का सम्‍बन्‍ध है,तो,उदाहरण के लिए,रोमन गणतंत्र के इतिहास की मामूली जानकारी भी यह जानने के लिए काफ़ी है कि रोमन गणतंत्र का गुप्‍त इतिहास वास्‍तव में उसकी भूसम्‍पत्ति का इतिहास है। दूसरी ओर,दोन किहोते बहुत पहले अपनी इस ग़लत समझ का ख़ामियाज़ा अदा कर चुका है कि मध्‍ययुग के सूरमा-सरदारों जैसा आचरण समाज के सभी आर्थिक रूपों से मेल खा सकता है।


-कार्ल मार्क्‍स(पूँजी,खण्‍ड-एक, 1867,पृष्‍ठ-100 पर पाद टिप्‍पणी)

काश ! ऐसा होता !

$
0
0
धीरज हमारे लिए
एक निष्क्रिय प्रतीक्षा का नाम नहीं
एक सुदूर, दुर्गम लक्ष्‍य की तैयारी
होना चाहिए।


विनम्रता हमारे लिए
हर विरोधी विचार पर
पूर्वाग्रह मुक्‍त सोच-विचार करने का
समय होना चाहिए
और अपने विचारों के परिष्‍कार के लिए
सहायता लेने का यत्‍न होना चाहिए।


साहस हमारे लिए
जन संग ऊष्‍मा का
अंगीकार होना चाहिए।


तार्किकता हमारे लिए
उत्‍पादन के साधनों जैसा
उपयोगी औज़ार होना चाहिए।


संवेदना हमारे लिए
सामाजिक सरोकार होना चाहिए।


इतिहास बोध हमारा
इतिहास बदलने के लिए होना चाहिए।


स्‍वप्‍न हमारे
भविष्‍य के मानचि‍त्र होने चाहिए।

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

नमो फासीवाद! रोगी पूँजी का नया राग!

$
0
0


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पहले पाँच विधान सभाओं के चुनाव होने हैं और फिर अगले साल लोक सभा चुनाव होंगे। मँहगाई और भ्रष्‍टाचार पर कुछ लोकलुभावन बातें कहने के अलावा किसी पार्टी के पास कोई मुद्दा नहीं है। फिर वही पुराना नुस्‍खा आज़माने पर सभी जुट गये हैं -- धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण।

इसमें हिंदुत्‍ववादी कट्टरपंथी सर्वाधिक आक्रामता के साथ आगे हैं। चौरासी कोसी परिक्रमा,संकल्‍प दिवस वगैरह-वगैरह के द्वारा फिर आर.एस.एस.,विहिप और उनके अन्‍य अनुषंगी संगठन 1990-92 जैसा माहौल बनाने पर जुट गये हैं। 2002‍ के गुजरात नरसंहार के बाद पहली बार मुजफ्फरनगर में इतने भीषण दंगे हुए। वहाँ आग कुछ ठण्‍डी हो ही रही थी कि शिविर में रह रहे दो मुस्लिम युवकों की हत्‍या,एक युवती से बलात्‍कार और महापंचायतों के नये सिलसिले ने तनाव फिर से बढ़ा दिया है। उ.प्र. में जो साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है,उसका लाभ सपा को भी मिलेगा। पीछे छूट जाने के बावजूद कांग्रेस और बसपा भी दंगे की आँच पर अपनी चुनावी गोट लाल करने की हर चन्‍द कोशिश कर रहे हैं।

नरेन्‍द्र मोदी का चेहरा आगे करके भाजपा ने हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद को मॉडर्न चेहरा देने की सफल कोशिश की है। कारपोरेट घरानों में प्रबंधन और कम्प्‍यूटर आदि के पेशे से जुड़ी,नवउदारवाद की जारज औलादों को -- महानगरीय खुशहाल मध्‍यवर्गीय युवाओं को नरेन्‍द्र मोदी के रूप में नया नायक मिल गया है। गाँवों के धनी किसानों का रुझान भी भाजपा की तरफ हुआ है। वैसे भी धनी किसानों-कुलकों के वर्ग में बुर्ज़ुआ जनवादी चेतना काफ़ी न्‍यून होती है और धार्मिक पूर्वाग्रहों की जड़ें गहरी होती हैं। पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के संकट का जो दबाव विनियोजित अधिशेष के इस छोटे भागीदार पर पड़ रहा है,वह फासीवाद की राजनीति की ओर इसके झुकाव को तेज़ी से बढ़ा रहा है। आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार पटेल को राष्‍ट्रीय नायक के रूप में उभारकर संघ-भाजपा एक तीर से दो शिकार कर रही हैं।  एक ओर तो कांग्रेस के अनुदारवादी धड़े के नेता पटेल को अपनाकर वह एक स्‍वीकार्य राष्‍ट्रीय बुर्ज़ुआ नेता को आगे करके (आख़ि‍र हेडगेवार,गोलवलकर,देवरस,वाजपेयी,आडवाणी तो ऐसे ऐतिहासिक राष्‍ट्रीय नेता हो नहीं सकते,आज़ादी की लड़ाई में भागीदारी के श्रेय वाला,गाँधी और नेहरू की धाराओं से अलग एक अनुदारवादी व्‍यक्तित्‍व पटेल का ही हो सकता था,चाहे उन्‍हें अपनाने के लिए ऐतिहासिक तथ्‍यों की ऐसी की तैसी क्‍यों न करनी पड़े) वह राष्‍ट्रीय बुर्ज़ुआ पार्टी होने की अपनी दावेदारी पुख्‍़ता कर रही है,दूसरे मध्‍यम जाति के उस भारी वोट बैंक में भी अपनी पैठ मज़बूत करने की कोशिश कर रही है जो मुख्‍यत: धनी मझोले मालिक किसानों की आबादी है। पटेल चाहे जो भी हों,अपने को उन्‍होंने महज़ पटेलों,कुर्मियों,कोइरियों,सैंथवारों जैसी मध्‍य जातियों के नेता के रूप में तो कभी सोचा भी नहीं होगा।

आर.एस.एस. बहुत व्‍यवस्थित ढंग से शहरों की मज़दूर बस्तियों में पैर पसार रहा है। किसानी पृष्‍ठभूमि से उजड़कर आये,निराश-बेहाल असंगठित युवा मज़दूरों और लम्‍पट सर्वहारा की सामाजिक परतों के बीच वह अपना आधार तैयार कर रहा है।

औद्योगिक कारपोरेट घराने और वित्‍त क्षेत्र के मगरमच्‍छ नवउदारवाद की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से चलाना चाहते हैं। इसके लिये एक निरंकुश सत्‍ता की ज़रूरत होगी। इसलिए इन शासक वर्गों का एक हिस्‍सा भी नरेन्‍द्र मोदी पर दाँव आजमाना चाहता है। उसे बस डर यही है कि साम्‍प्रदायिक तनाव ऐसी सामाजिक अराजकता न पैदा कर दे‍ कि पूँजी निवेश का माहौल ही ख़राब हो जाये। पूँजीपति वर्ग हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासीवाद का इस्‍तेमाल जंज़ीर से बँधे कुत्‍ते के समान करना चाहता है। पर हालात की गति उनकी इच्‍छा से स्‍वतंत्र भी हो सकती है। जंज़ीर से बँधा कुत्‍ता जंज़ीर छुड़ाकर अपनी मनमानी भी कर सकता है।

पटना में मोदी की रैली के पहले हुए बम विस्‍फोटों ने साम्‍प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है। यह काम इस्‍लामी कट्टरपंथियों का है,यह प्रमाणित हो चुका है। इस्‍लामी कट्टरपंथ की राजनीति हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपंथ को ही बल पहुँचा रही है। भाजपा ने पटना बम विस्‍फोट में मारे गये लोगों की अस्थिकलश यात्रा निकालकर और मोदी को उनके घरों पर भेजकर साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने की पूरी कोशिश की है।

इस्‍लामी कट्टरपंथी आतंकवाद भी फ़ासीवाद का ही दूसरा रूप है,जो मुस्लिम हितों की हिफ़ाज़त के नाम पर ज़ि‍हाद का झण्‍डा उठाकर जो कारग़ुज़ारियाँ कर रहा है उससे भारत में हिन्‍दुत्‍ववादियों का ही पक्ष मज़बूत हो रहा है। ये दोनों एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं। इतिहास गवाह है कि सर्वइस्‍लामवाद का नारा देने वाले वहाबी कट्टरपंथ ने पूरी दुनिया में हर जगह अन्‍तत: साम्राज्‍यवाद का ही हितपोषण किया है। आज भी,लीबिया में,इराक में,सीरिया में,मिस्र में,अफगानिस्‍तान में -- हर जगह उनकी यही भूमिका है। भारत में हर धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक आबादी को यह बात समझनी ही होगी कि वे अपनी हिफ़ाज़त धार्मिक कट्टरपंथ का झण्‍डा नहीं बल्कि वास्‍तविक धर्मनिरपेक्षता का झण्‍डा उठाकर ही कर सकते हैं। वास्‍तविक धर्मनिरपेक्षता की राजनीति केवल क्रान्तिकारी मज़दूर राजनीति ही हो सकती है जो जाति और धर्म से परे व्‍यापक मेहनतक़श अवाम की जुझारू एकजुटता क़ायम कर सकती है।

पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान यदि अस्तित्‍व में नहीं आयेगा,तो लाज़ि‍मी तौर पर उसका फ़ासीवादी समाधान सामने आयेगा। क्रान्ति के लिए यदि मज़दूर वर्ग संगठित नहीं होगा तो जनता फ़ासीवादी बर्बरता का कहर झेलने के लिए अभिशप्‍त होगी। समाजवाद या फ़ासीवादी बर्बरता -- भारतीय समाज के सामने ये दो ही विकल्‍प ध्रुवीकृत रूप में बचे रह जायेंगे।


यही वह यक्षप्रश्‍न है जो आज जनता की हरावल क्रान्तिकारी शक्तियों के सामने खड़ा है। अब न समय है,जूझना ही तय है। 

ऐतिहासिक युग और विश्व दृष्टिकोण

$
0
0
मध्‍ययुग का विश्‍वदृष्टिकोण सारत: धर्मशास्‍त्रीय था। ईसाई धर्म ने यूरोपीय विश्‍व की एकता - जो वास्‍तव में अन्‍दरूनी तौर पर अस्तित्‍वमान थी ही नहीं - को बाह्य तौर पर,साझे सरासेन*शत्रु के ख़ि‍लाफ़ - को क़ायम किया। पश्चिम यूरोपीय विश्‍व - जो सतत् संसर्ग के दौरान विकासमान कुछेक राष्‍ट्रों के समूह से निर्मित हुआ था - की एकता कैथोलिक मत से जोड़ दिये जाने के परिणामस्‍वरूप सम्‍भव हुई। यह धर्मशास्‍त्रीय जुड़ाव विचारों के स्‍तर पर ही नहीं था बल्कि वह यथार्थता में अस्तित्‍वमान था - न केवल पोप में,जो कि उसका राजतन्‍त्रवादी केन्‍द्र था - बल्कि उस चर्च में भी अस्तित्‍वमान था जो कि सामन्‍ती ढंग से तथा पद-सोपान के आधार पर संघटित किया गया था तथा जो प्रत्‍येक देश में लगभग एक तिहाई भूमि का स्‍वामी होने के कारण सामन्‍ती संघटन में ज़बरदस्‍त शक्ति का उपभोग कर पाने की स्थिति में था। सामन्‍ती भूस्‍वामी होने के कारण चर्च अलग-अलग देशों के बीच की वास्‍तविक कड़ी बना हुआ था। चर्च के सामन्‍ती संघटन ने लौकिक सामन्‍ती राज्‍य प्रणाली को धार्मिक प्रतिष्‍ठा प्रदान की। इसके अलावा,एकमात्र शिक्षित वर्ग पादरियों का ही था। इसलिए यह स्‍वाभाविक ही था कि चर्च मतवाद समस्‍त चिन्‍तन का आरम्‍भ-बिन्‍दु तथा बुनियाद बन गया। न्‍यायशास्‍त्र,प्रकृतिविज्ञान,दर्शनशास्‍त्र का ही नहीं,बल्कि सबकुछ का विवेचन इस बात को आधार बनाकर किया जाता था कि उसकी अन्‍तर्वस्‍तु चर्च के सिद्धान्‍तों का समर्थन करती थी अथवा विरोध।
पर सामन्‍तवाद के गर्भ में बुर्ज़ुआ वर्ग की शक्ति विकसित हो रही थी। बड़े भूस्‍वामियों के विरोध में एक नया वर्ग प्रकट हुआ। शहरी बर्गर मुख्‍यत: माल के उत्‍पादक व व्‍यापारी मात्र थे,जबकि सामन्‍ती उत्‍पादन पद्धति काफ़ी हद तक इस विशि‍ष्‍टता पर आधारित थी कि एक सीमित क्षेत्र के भीतर पैदा किये गये उत्‍पाद का - आंशिक रूप से उत्‍पादकों द्वारा तथा आंशिक रूप से सामन्‍ती सरदार द्वारा - स्‍व-उपभोग कर लिया जाता था। सामन्‍तवादी ढाँचे के आधार पर गठित व निर्मित कैथोलिक विश्‍व दृष्टिकोण इस नये वर्ग के लिए तथा उसका उत्‍पादन एवं विनिमय की शर्तों के लिए अब उपयुक्‍त नहीं रह गया था। फिर भी यह वर्ग लम्‍बे समय तक धर्मशास्‍त्र का बन्‍दी बना रहा। 13वीं से लेकर 17वीं शताब्‍दी तक उनसे जुड़े हुए तथा धार्मिक नारों के तहत जितने भी धर्म-सुधार आन्‍दोलन तथा संघर्ष चलाये गये,वे सैद्धान्तिक पक्ष की दृष्टि से,शहरी बर्गरों व जनसाधारण,तथा इन दोनों के सम्‍पर्क में आकर विद्रोही बने किसानों द्वारा बार-बार उठाई गयी इस माँग के अलावा कुछ नहीं थे कि पुराने धर्मशास्‍त्रीय दृष्टिकोण को बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों तथा नये वर्ग की जीवन स्थितियों के अनुरूप रूपान्तरित व अनुकूलित किया जाये। लेकिन वैसा किया नहीं जा सका। इंग्‍लैण्‍ड में धर्म-पताका आख़ि‍री बार 17वीं शताब्‍दी में फहरायी। पचास वर्ष भी नहीं गुज़रे थे‍ कि फ़्रांस में नया विश्‍वदृष्टिकोण - जिसे बुर्ज़ुआ वर्ग का क्‍लासिकीय विश्‍व दृष्टिकोण बनना था - यानी न्‍यायिक विश्‍व दृष्टिकोणखुले तौर प्रकट हुआ।
इस विश्‍वदृष्टिकोण का अर्थ था धर्मशास्‍त्रीय दृष्टिकोण का लौकिकीकरण। मानव-अधिकार ने जड़ मतवाद का,दैवीय अधिकार का स्‍थान ले लिया,और राज्‍य ने चर्च का स्‍थान ले लिया। आर्थिेक एवं सामाजिक परिस्थितियों - जिनके बारे में पहले कल्‍पना कर ली गयी कि उन्‍हें चर्च तथा जड़ मतवाद ने उत्‍पन्‍न किया था,क्‍योंकि चर्च तथा जड़ मतवाद उन्‍हें स्‍वीकृति प्रदान करते थे - के बारे में अब यह माना जाने लगा कि उन्‍हें राज्‍य द्वारा उत्‍पन्‍न किया गया है तथा वे क़ानून की नींव पर निर्मित हैं। क्‍योंकि सामाजिक पैमाने पर तथा अपने पूरे विकसित रूप में किया जाने वाला माल-विनिमय (ख़ासकर पेशगी तथा उधार के माध्‍यम से) पेचीदा पारस्‍परिक अनुबन्‍ध सम्‍बन्‍धों को जन्‍म देता है इसलिए ऐसे आम तौर पर लागू किये जा सकने नियमों व सिद्धान्‍तों की माँग करता है जो केवल समुदाय द्वारा ही दिये जा सकते हैं;यानी राज्‍य द्वारा निर्धारित क़ानून के प्रतिमान,जिनके बारे में ये कल्‍पना की गयी थी कि वे (क़ानून के प्रतिमान) आर्थिक तथ्‍यों से उत्‍पन्‍न नहीं होते थे बल्कि राज्‍य द्वारा विधिवत संस्‍थापन से पैदा होते थे। चूँकि स्‍पर्द्धा - जो स्‍वतन्‍त्र माल उत्‍पादकों द्वारा किये जाने वाले व्‍यापार का बुनियादी रूप थी - बराबरी क़ायम करने की सबसे बड़ी शक्ति होती है - समानता (क़ानून के समक्ष समानता) बुर्ज़ुआ वर्ग की लड़ाई का सबसे प्रमुख नारा बन गयी। इस तथ्‍य ने कि सामन्‍ती सरदारों तथा उनके रक्षक निरंकुश राजतंत्र के ख़ि‍लाफ़ इस नये उदीयमान,आकांक्षी वर्ग का संघर्ष,प्रत्‍येक वर्ग-संघर्ष के समान,राजनीतिक संघर्ष - यानी राज्‍य पर आधिपत्‍य के लिए संघर्ष - ही होना था इसलिए उसे न्‍यायिक माँगोंको आधार बनाकर लड़ा जाना आवश्‍यक हो गया था,न्‍यायिक विश्‍व दृष्टिकोण के सुदृढ़ीकरण से विशेष योगदान किया।
लेकिन बुर्ज़ुआ वर्ग ने अपने नकारात्‍मक प्रतिरूप,यानी सर्वहारा को जन्‍म दिया,और उसके साथ एक नये वर्ग-संघर्ष को जन्‍म दिया जो कि बुर्ज़ुआ वर्ग द्वारा राजसत्‍ताहथियाने की प्रक्रिया पूरी करने के पहले ही छिड़ गया। जिस प्रकार अपने समय में बुर्ज़ुआ वर्ग ने परम्‍परा की शक्ति के असर में,अभिजात वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के दौरान कुछ समय तक धर्मशास्‍त्रीय दृष्टिकोण को स्‍वयं से चिपकाये रखा था,उसी प्रकार सर्वहारा ने एकदम अपने प्रतिद्वंदी से न्‍यायिक दृष्टिकोण हथिया लिया और उसमें बुर्ज़ुआ वर्ग के ख़ि‍लाफ़ हथियारों की तलाश करता रहा। सर्वहारा पार्टी के आरम्भिक तत्‍व तथा उसके सैद्धान्तिक प्रतिनिधि पूरी तरह क़ानून के 'न्‍यायिक आधारभूमि'पर जमे रहे,सिर्फ़ एक फ़र्क था और वह यह कि उन्‍होंने अपने लिए जो क़ानून की आधारभूमि तैयार की वह बुर्ज़ुआ वर्ग की आधारभूमि से भिन्‍न थी। एक ओर समानता की माँग को विस्‍तार दिया गया ताकि सामाजिक समानता क़ानूनी समानता की अनुपूरक बन सके,तो दूसरी ओर एडम स्मिथ की इस प्रस्‍थापना से (कि श्रम समस्‍त सम्‍पदा - धन-दौलत - का स्रोत है किन्‍तु श्रम के फल में भूस्‍वामी तथा पूँजीपति की हिस्‍सेदारी होनी चाहिए) यह निष्‍कर्ष निकाला गया कि यह बँटवारा (हिस्‍सेदारी) न्‍यायोचित नहीं है इसलिए इसे या तो समाप्‍त किया जाये,या मज़दूर के पक्ष में संशोधित किया जाये। किन्‍तु इस अहसास ने कि इस प्रश्‍न को क़ानून के न्‍यायिक आधार के भरोसे छोड़ देने मात्र से पूँजीवादी उत्‍पादन पद्धति द्वारा उत्‍पन्‍न दमनकारी परिस्थितियों - यानी बड़े पैमाने पर उद्योग पर आधारित उत्‍पादन पद्धति द्वारा उत्‍पन्‍न परिस्थितियों - का खात्‍मा किसी तरह सम्‍भव नहीं होता था,पहले ही सन्‍त साइमन,फूरिये तथा ओवेन (जो कि प्रारम्भिक समाजवादियों के बीच प्रमुख‍ चिन्‍तकों के रूप में जाने जाते थे) को न्‍यायिक-राजनीतिक क्षेत्र पूरी तरह छोड़ने को सब प्रकार के राजनीतिक संघर्ष को व्‍यर्थ एवं निरर्थक घोषित करने को विवश कर दिया था।
ये दोनों ही धारणाएँ आर्थिक परिस्थितियों द्वारा पैदा की गयी मज़दूर वर्ग की मुक्ति की आकांक्षा को समुचित रूप से व्‍यक्‍त करने तथा उसे पूरी तरह समाविष्‍ट करने की दृष्टि से समान रूप से असन्‍तोषजनक थीं। श्रम के पूरे फल की माँग तथा उसी तरह समानता की माँग (जैसे ही उन्‍हें न्‍यायिक रूप में ब्‍योरेवार सूत्रबद्ध किया गया तथा समस्‍या के मर्म - यानी उत्‍पादन पद्धति के रूपान्‍तरण - को कमोबेश अनछुआ छोड़ दिया गया) असमाधेय अन्‍तरविरोधों में लुप्‍त हो गयी। काल्‍पनिक (यूटोपियाई) समाजवादियों द्वारा राजनीतिक संघर्ष का अस्‍वीकरण (परित्‍याग) साथ ही वर्ग-संघर्ष - जो उस वर्ग के कार्यकलाप का एकमात्र रूप था जिसका वे प्रतिनिधित्‍व करते थे - का अस्‍वीकरण भी था। दोनों दृष्टिकोणों ने उस ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि का - जिससे कि वे अस्तित्‍व में आये थे - अमूर्तीकरण कर दिया;दोनों ने भावना को आकृष्‍ट किया : कुछ ने न्‍याय की भावना को तथा अन्‍य ने मानवता की भावना को। दोनों ने ही अपनी माँगों को पवित्र इच्‍छाओं के रूप में परिधान पहनाकर प्रस्‍तुत किया,जिनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता था कि उन्‍हें तब ही क्‍यों पूरा किया जाना चाहिए था और एक हज़ार वर्ष पहले या बाद में क्‍यों नहीं।
मज़दूर वर्ग - जो कि सामन्‍तवादी उत्‍पादन पद्धति के पूँजीवादी उत्‍पादन पद्धति में रूपान्‍तरण हो जाने के परिणामस्‍वरूप उत्‍पादन के साधनों के समस्‍त स्‍वामित्‍व से वंचित हो गया था तथा जो पूँजीवादी उत्‍पादन पद्धति की क्रियाविधि द्वारा सम्‍पत्तिविहीनता की,विरासत में प्राप्‍त,अवस्‍था में नये सिरे से स्‍वयं को पा रहा है - बुर्ज़ुआ वर्ग के न्‍यायिक भ्रम में अपनी जीवन-परिस्थितियों की व्‍यापक अभिव्‍यक्ति नहीं पा सकता है। वह जीवन के हालात को सही और पूरी तरह से तभी समझ व जान सकता है जबकि वह न्‍यायिक-रंग के चश्‍में के बगैर (यानी उसे उतारकर) जीवन की वास्‍तविकता को देखने की कोशिश करे। मार्क्‍स ने इतिहास की भौतिकवादी धारणा के सहारे ऐसा करने में उसकी सहायता की है - उसके सामने यह प्रमाण उपलब्‍ध कराकर कि मनुष्‍य के समस्‍त न्‍यायिक,राजनीतिक,दार्शनिक,धार्मिक तथा अन्‍य विचार (धारणाएँ) अन्‍ततोगत्‍वा उसके जीवन की आर्थिक परिस्थितियों से ही,उसकी उत्‍पादन पद्धति तथा उत्‍पाद के विनिमय की पद्धति से ही व्‍युत्‍पन्‍न होते हैं। इस प्रकार उन्‍होंने वह विश्‍व दृष्टिकोण प्रस्‍तुत किया जो सर्वहारा वर्ग के जीवन व संघर्ष की परिस्थितियों के अनुरूप हैं;मज़दूरों के दिमाग़ में भ्रमों की कमी ही उनके सम्‍पत्ति-अभाव के अनुरूप हो सकती है। और यह सर्वहारा विश्‍व दृष्टिकोण अब दुनियाभर में छाता जा रहा है

-फ्रेडरिक एंगेल्‍स('न्‍यायिक समाजवाद',1887)
---------------------------------------

*रोमन साम्राज्‍य की सीरियाई सीमाओं पर रहने वाला घुमन्‍तू क़बीला - जिसका उल्‍लेख धर्मयुद्धों से संलग्‍नता के कारण भी मिलता है। यहाँ उसे यूरोपीय देशों के साझे शत्रु के रूप में चित्रित किया गया है। 

7 नवम्‍बर: जीतों के दिन की शान में गीत

$
0
0
(अक्‍टूबर क्रान्ति की 96वीं वर्षगाँठ के अवसर पर)

-पाब्‍लो नेरूदा

यह दोहरी वर्षगाँठ*, यह दिन, यह रात,
क्‍या वे पायेंगे एक खाली-खाली सी दुनिया, क्‍या उन्‍हें मिलेगी
उदास दिलों की एक बेढब सी घाटी?
नहीं, महज एक दिन नहीं घण्‍टों से बना हुआ,
जुलूस है यह आईनों और तलवारों का,
यह एक दोहरा फूल है आघात करता हुआ रात पर लगातार
,जबतक कि फाड़कर निशा-मूलों  को पा न ले सूर्योदय !

स्‍पेन का दिन आ रहा है
दक्षिण से, एक पराक्रमी दिन
लोहे के पंखों से ढका हुआ,
तुम आ रहे हो उधर से, उस आखिरी आदमी के पास से
जो गिरता है धरती पर अपने चकनाचूर मस्‍तक के साथ
और फिर भी उसके मुँह में है तुम्‍हारा अग्निमय अंक!

और तुम वहाँ जाते हो हमारी
अनडूबी स्‍मृतियों के साथ:
तुम थे वो दिन, तुम हो
वह संघर्ष, तुम बल देते हो
अदृश्‍य सैन्‍य दस्‍ते को , उस पंख को
जिससे उड़ान जन्‍म लेगी, तुम्‍हारे अंक के साथ!

सात नवम्‍बर, कहाँ रहते हो तुम?
कहाँ जलती हैं पंखुडि़याँ , कहाँ तुम्‍हारी फुसफुसाहट
कहती है बिरादर से : आगे बढ़ो, ऊपर की ओर !
और गिरे हुए से : उठो!
कहाँ रक्‍त से पैदा होता है तुम्‍हारा जयपत्र
और भेदता है इंसान की कमज़ोर देह को और ऊपर उठता है
गढ़ने के लिए एक नायक?

तुम्‍हारे भीतर , एक बार फिर, ओ सोवियत संघ,
तुम्‍हारे भीतर , एक बार फिर, विश्‍व की जनता की बहन,
निर्दोष और सोवियत पितृभूमि। लौटता है तुम्‍हारे तक तुम्‍हारा बीज
पत्‍तों की  एक बाढ़ की शक्‍ल में, बिखरा हुआ समूची धरती पर!

तुम्‍हारे लिए नहीं हैं आँसू, लोगो, तुम्‍हारी लड़ाई में!
सभी को होना है लोहे का, सभी को आगे बढ़ना है और जख्‍़मी
होना है,
सभी को, छुई न जा सकने वाली चुप्‍पी को भी, संदेह को भी,
यहाँ तक कि उस संदेह को भी जो अपने सर्द हाथों से
जकड़कर जमा देता है हमारे हृदय और डुबो देता है उन्‍हें,
सभी को, खुशी को भी, होना है लोहे का
तुम्‍हारी मदद करने के लिए, विजय में, ओ माँ, ओ बहन!

थूका जाए आज के गद्दार के मुँह पर!
नीच को दण्‍ड मिले आज, इस विशेष
घण्‍टे के दौरान, उसके सम्‍पूर्ण कुल को,
कायर वापस लौट जायें
अँधेरे में, जयपत्र जायें पराक्रमी के पास,
एक पराक्रमी प्रशस्‍त पथ, बर्फ और रक्‍त के
एक पराक्रमी जहाज के पास, जो हिफ़ाजत करता है दुनिया की

आज के दिन तुम्‍हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे: हम हमेशा ग़रीब रहे।
कल मैं तुम्‍हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में। वहाँ तुम्‍हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जबतक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा।

आज मैं उन्‍हें याद करता हूँ, वे सब तुम्‍हारे साथ हैं!
फैक्‍ट्री दर फैक्‍ट्री घर दर घर
तुम्‍हारा नाम उड़ता है लाल चिडि़या की तरह ।
तुम्‍हारे वीर यशस्‍वी हों और हरेक बूँद
तुम्‍हारे ख़ून की। यशस्‍वी हों हृदयों की बह-बह निकलती बाढ़
जो तुम्‍हारे पवित्र और गौरवपूर्ण आवास की रक्षा करते हैं!

यशस्‍वी हो वह बहादुरी भरी और कड़ी
रोटी जो तुम्‍हारा पोषण करती है, जब समय के द्वार खुलते हैं
ताकि जनता और लोहे की तुम्‍हारी फौज मार्च कर सके, गाते हुए
राख और उजाड़ मैदानों के बीच से ,हत्‍यारों के खिलाफ़,
ताकि रोप सके एक ग़ुलाब चाँद जितना विशाल
जीत की सुंदर और पवित्र धरती पर!

----------------------------------------
*7नवम्‍बर  को दोहरी वर्षगाँठ  बतलाये जाने का कारण यह है कि सोवियत समाजवादी क्रान्ति दिवस होने के साथ ही, इसी दिन मैड्रिड के द्वार से तानाशाह फ्रांको की राष्‍ट्रवादी सेना को (अस्‍थाई तौर पर) पीछे लौटने को बाध्‍य कर दिया गया था। यह कविता नेरूदा ने 1941 में लिखी थी, जब अक्‍टूबर क्रान्ति की 24वीं वर्षगाँठ और स्‍पेनी गणराज्‍य की उपरोक्‍त  विजय की पाँचवीं वर्षगाँठ थी।

मनबहकी लाल के पद

$
0
0


दस -बारह वर्षों पहले मज़दूर अखबार 'बिगुल'में मनबहकी लाल के पद प्राय: छपते थे और पाठकों में काफी लोकप्रिय थे। यहाँ कुछ पदों को फिर प्रस्‍तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ । आप भी पढि़ये और किताबी कीड़ों, बकवासी वामपंथी ''सिद्धान्‍तकारों,''बड़बोले नौदौलतिये ''क्रान्तिकारियों''और कठमुल्‍लावादी पुरातात्विक महत्‍व की ''सामग्रियों''पर जी खोलकर हँसिये ।   --कविता कृष्‍णपल्‍लवी
-----------------------------------------------------

(एक)
सन्‍तो भाई, ज्ञान की आँधी आई रे ।
भूसा-टुर्री दाब के राख्‍यो, दाना सब उधियाई रे ।
चिन्‍तन के इस चमत्‍कार से नैन गये चुँधियाई रे ।
नित नव साखी-सबद सुनाये, बौद्धिक रास रचाई रे ।
ऐसा मता-अगाध परोसिन्हि, लक्ष्‍य हवा हुई जाई रे ।
अमल धरम आले पे राख्‍यो, ऐसी मति बढि़याई रे ।
जन को भूले, बैठ कक्ष में, मुक्ति-मार्ग बतलाई रे ।
बिना करम चिन्‍तन-फल चाख्‍यो, माया ठगिनी नचाई रे ।
अकल बहुरिया के मतवारे, भजते राम गुसाई रे ।

(दो)
साधो, बहुत कीन्हि बकवास ।
अति कर डाली, मति हर डाली, चहुँदिशि व्‍यापा त्रास ।
खूब निकाल्‍यो खाल बाल की, थम गई हवा-बतास ।
ज्ञान शास्‍त्र से सभागार में फैला खूब उजास ।
गदगद होकर बोतल खोल्‍यो, खूब कीन्हि परिहास ।
यह अतिचिन्‍तन पड़ी गले में जनगण के बनि फाँस ।
कैसे बजे बाँसुरी साधो, रहे न जग में बाँस ।
छोड़ क्रान्ति की, चादर तानो, यही जगत की आस ।
ओढ़ ज्ञान की काली कमरिया, जाओ प्रभु के पास ।

(तीन)
साधो भागे धुरियाझाऱ ।
जन ने पूछा ज्ञान कहाँ से मिला आपको अपरम्‍पार ।
जीवन के करघे से अथवा पोथी से, बतलाओ यार ।
ज्ञानी हो तो राह बताओ, दु:ख का नहीं पारावार ।
अन्‍धकार की इस सुरंग से कैसे निकलेंगे हम पार ।
चिन्‍तन कर तर माल उड़ाते, लेक्‍चर देते बारम्‍बार ।
धूल-धुआँ जो फाँक रहे हैं, उनकी किस्‍मत तारमतार ।
अनगढ़-बेढब बातें सुनकर साधु खा गये जन से खार ।
ज्ञान भार से लदफद-लथपथ घर को लपके, हो मुर्दार ।

(चार)
हम ठलुअन के, ठलुए हमारे ।
ग्रंथन बिच झींगुर जस चिपकिन्हिं, जिनगी की हरिहरी बिसारे ।
लायब्रेरि में पोथी घोखत, 'थियरी'बूकत साँझ-सकारे ।
भ्रान्ति भये सब सपन क्रान्ति के, अस गुरुमंत्र सिखाये प्‍यारे ।
गुरू भये पेरी एण्‍डरसन, चेला हुइ गये अन्‍ना हजारे ।
'बैकडोर'से छुपके पहुँचे, फण्डिंग एजेंसियन दुआरे ।
ऐसिहिं राह चुनो तुम ऊधो, मौज करेंगे ललुए तुम्‍हारे ।

(पाँच)
अब लौं नसानी, अब ना नसैंहो ।
ओढ़ ज्ञान की काली कमरिया किन्‍नर देश बसैंहो ।
अतिसय कठिन डगर पनघट की घर बादल  बरसैंहो ।
नियम उलटिकै अब चिन्‍तन से जीवन को उपजैंहो ।
बकबक-बकबक-बकबक-बकबक खूब विचार सुनैंहो ।
कथनी पर अधिकार जमा, सिद्धान्‍तकार कहलैंहो ।
जब करनी कै बारी चादर तानि तुरत सो जैंहो ।
मूरख भटकैं धूल-धुआँ में, हम लाइन गढ़ लैंहो ।
एन.जी.ओ. का चुग्‍गा चुगिकै, जो सिखिहैं, सिखलैंहो ।
जब लौं सिक्‍का चलिहैं तब लौं अनहद राग सुनैंहो ।
गगन घटा घहरानी जब झट स्‍वर्गपुरी उडि़ जैंहो ।

(छह)
मनुआ, तुम कत रहत हरे ।
अस अमूर्त दरसन सुनि-सुनि कै ठाढ़े क्‍यूँ न जरे ।
सभागार में बिद्वानन के रेवड़ ठूँस भरे ।
जूठन को मौलिक कहि-कहि कै, पगुरी खूब करे ।
चिन्‍तन से उत्‍तर-चिन्‍तन में अस संक्रमण करें ।
अस बिमर्श का चर्खा कातैं, भ्रम का धुआँ भरें ।
जो कुछ हुआ नकारे उसको, नव-सिद्धान्‍त गढ़ें ।
रस्‍सी फेंकें आसमान में, उस पर जाई चढ़ें ।
ठलुआ चिन्‍तन का सिक्‍का मण्‍डी में खूब चले ।
मूड़ मुड़ाये पढ़ुआ गन बिच इनकी दाल गले ।
मीन मेख अस काढ़ै जस निखुराहा बरध चरे ।
अस कसिकै पछींट कै धोवैं, कुकुरा घाट मरे ।

(सात )*
माधव हम परिनाम निरासा ।
अनुभव घट जब रीत गयो, तब बाजा ताहि बनायो ।
बैठी मियाँ की मल्‍हार छेड़ि‍न्हि, जीवन-धन बिसरायो ।
पैठी गुफा में ध्‍यान लगा चिन्‍तन का अण्‍डा सेऊँ ।
कोलम्‍बस बन पोखर में क़ागज की नैया खेऊँ ।
चेलन को जब राह सुझायो, चेले झट मुड़ि‍यायो ।
गच्‍चा खायो ग़जब हम भइया, इनके कहे पतियायो ।
जो जो जाये धँसे जनता में, बहुरि लौटि ना आयो ।
हम इक बचे जहाज के पंछी, पुनि जहाज पै आयो ।
हम धृतराष्‍ट्र महाभारत के, निकट न संजय कोई ।
दुखवा कासे रोउँ रे सजनी, काटुँ वही जो बोई ।
रावण जस मदमत्‍त भयो, ठलुअन से बाँधी आसा ।
मूर्खन बिच अस फँसे कि मरु बिच जैसे मरत पियासा ।
.................................................
*(पुरानी पीढ़ी के उन क्रान्तिकारियों के नाम, जो क्रान्ति-पीठों के महामण्‍डलेश्‍वर बनने के चक्‍कर में पड़ गये और पुरातात्विक महत्‍व की सामग्री बन गये ।)

समाजवाद पर उदय प्रकाश के साथ एक असमाप्‍त संवाद

$
0
0
एक बहस जो न जाने कहाँ-कहाँ से ग़ुज़र गयी



(अभी पिछले दिनों अक्‍टूबर क्रान्ति की वर्षगाँठ के अवसर पर उदय प्रकाश द्वारा फेसबुक पर पोस्‍ट की गयी
एक टिप्‍पणी पर जब मैंने कमेण्‍ट किया तो एक बहस शुरू हो गयी। दिलचस्‍प यह है कि उदय प्रकाश जी अक्‍टूबर क्रान्ति के अनुभव के आधार पर क्रान्तियों की ''अनिवार्य विफलता''के बारे में  जो विचार रखते हैं, उन्‍हें तो उन्‍होंने बस सूत्रवत ही रखा, पर साथ ही बहुत सारे ग़लत हवाले दिये और बहुत सारे ऐसे सूत्रीकरण प्रस्‍तुत किये, जिनका प्रतिवाद करना मुझे आवश्‍यक लगा। शुरू में बहस का बड़ा हिस्‍सा तो उनके स्‍वयं से जुड़े प्रश्‍नों के उत्‍तर देने में ही ख़र्च हो गया। इन सभी प्रश्‍नों के उत्‍तरों पर एक-एक कर चुप लगाते हुए जब वे नये-नये, अप्रासंगिक प्रश्‍न उठाते ही चले गये, तब मैंने उन प्रश्‍नों को थोड़े में समेटकर विराम लगाते हुए समाजवाद की ''विफलता''और सामाजिक क्रान्तियों की ''अनुपयोगिता''पर सिलसिलेवार (हालाँकि संक्षेप में) अपनी बातें रखीं। बहरहाल बहस में, जो प्रसंगातर हैं, वे भी बहुत उपयोगी हैं अपने आप में। इससे हिन्‍दी साहित्‍य जगत में बौद्धिक विमर्श की स्थिति, साहित्‍य की राजनीति और उदय प्रकाश की (एवं उन जैसों की) वैचारिक अवस्थिति, सार-संग्रहवादी पद्धति तथा व्‍यावहारिक जीवन में उनके आचरण को जानने-समझने में मदद मिलती है।
समाजवाद की समस्‍याओं और उसकी विफलता के कारणों पर बहस का जो हिस्‍सा है, उसे अभी 'जारी'या 'असमाप्‍त'माना जाना चाहिए। हमारी जो अवस्थिति है, उसे मैंने संक्षेप में रख दिया है। बेहतर होता, यदि यह बहस आगे बढ़ती और इसमें दिलचस्‍पी और पैठ रखने वाले अन्‍य साहित्‍यकार-बुद्धिजीवी साथी भी हिस्‍सा लेते।
यह पूरी बहस, सुगमता से, एक साथ पढ़ी जा सके और आगे भी जारी रखी जा सके, इसके लिए यहाँ ब्‍लॉग पर पोस्‍ट कर रही हूँ। यदि कोई पत्रिका  इसे छापकर इस बहस को आगे बढ़ाये और इसके दायरे को भी व्‍यापक बनाये, तो यह मेरे लिए खुशी की बात होगी।-कविता कृष्‍णपल्‍लवी)

----------------------------------------------------------------


उदय प्रकाश(8नवम्‍बर)
  आज १९१७ में हुए सोवियत क्रांति की एक और वर्षगांठ है. जूलियन कैलेंडर के अनुसार २५ अक्टूबर और आजकल दुनियाभर में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर के मुताबिक, ठीक आज के ही दिन, ७ नवंबर को यह समाजवादी क्रांति घटित हुई थी, जिसने दुनिया को बदल डाला था. एक समय ऐसा भी था, जब इस धरती के लगभग ७० प्रतिशत हिस्से में समाजवाद का प्रभाव था. हमारे देश पर भी इसका गहरा असर था. 'हिंदी-पट्टी'पर भी एक समय ऐसा लग रहा था कि सामाजिक समता और न्याय तथा वर्गाधारित शोषण से मुक्त समाज-व्यवस्था के जन्म की संभावना बहुत करीब है.
इस क्रांति ने बीसवीं सदी के उत्पीड़ित तबकों को मुक्ति के नये सपने सौंपे. लेकिन देखते ही देखते इन स्वप्नों को समाज की छुपी हुई क्षुद्र शक्ति-संरचनाओं ने अगुवा कर लिया और कार्ल-मार्क्स तथा लेनिन की वह विचारधारा, वह दार्शनिक सैद्धांतिकी, जो दुनिया को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि उसे मानवता के पक्ष में बदल डालने के लिए कारगर हो सकती थी, उसे ठगी, निहित स्वार्थ, भ्रष्टाचार और झांसे का औज़ार बना लिया.
वह 'ईश्वर'जो संसार की वंचित-उत्पीड़ित मनुष्यता को मुक्त करने के लिए अस्तित्व में आया था, वह 'असफल'हो गया.
हम लोग जब युवा थे और जब १९५० के दशकों में आई विवादास्पद लेकिन बहुचर्चित किताब, जिसका संपादन ब्रिटेन के एक सांसद रिचर्ड क्रासमैन ने किया था और जिसमें एक समय इस सोवियत बोल्शेविक क्रांति के समर्थक रह चुके कई महत्वपूर्ण लेखकों के निबंधों की किताब -'गाड दैट फेल्ड'हम सबने ६०-७० के दशक में पढी थी, तब हम इस पर विश्वास नहीं करते थे. हमारे जैसे युवा इसे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के द्वारा संचालित-निर्देशित एक साजिशाना हमला मानते थे. इस पुस्तक के लेखकों-साहित्यकारों- आंद्रे जीद, आर्थर कोएसलर, स्टीफेन स्पेंडर या अश्वेत समाजचिंतक रिचर्ड राइट जैसा हमारा 'मोहभंग'इस सोवियत क्रांति से नहीं हुआ था.
लेकिन इसी पुस्तक में उन लुई फ़िशर का भी निबंध था, जिन्होंने बाद में महात्मा गांधी की विश्वविख्यात जीवनी लिखी, जिस पर आटेनबरो की सुप्रसिद्ध, आस्कर अवार्ड विजेता फ़िल्म 'गांधी'बनी. 
हमारे कई पुराने साथी, जो अब हमसे छूट चुके हैं, आज भी इस १९१७ की सोवियत क्रांति की स्मृति में जगह-जगह आयोजन कर रहे हैं और प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार जान रीड की बहुचर्चित किताब पर आधारित फ़िल्म 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी'को अपने आयोजनों में प्रदर्शित करते हुए उस महान क्रांति की सफलता-असफलता पर विचार-विमर्श कर रहे हैं. विडंबना यही है कि वे हमारे समाज की वास्तविक अंतर्संरचना की उन बनावटों (formations) के ही प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने इस महान विचारधारा का अपहरण करके उसे असफल और दमनकारी राजनीति का ही एक अंग बना डाला है. जैसा ज़ाइज़ेक ने कहा था - आज हमारे समय का लेफ़्ट बीसवीं सदी के पूर्वार्ध का वह लेफ़्ट नहीं है, जो सर्वहारा, मज़दूर-किसान और शोषित-वंचित वर्गों की विश्वदृष्टि से संपन्न था, बल्कि अब यह नयी ग्लोबल अर्थप्रणाली से लाभान्वित 'नव-धनाढ्य' (नियो-रिच) वर्ग है. यह हर हर तरह के श्रम को नीची निगाह से देखता है. भाषा से लेकर खलिहान, खदान, खेत में पसीना बहाते और हर रोज़ उत्पीड़न-दमन का शिकार होते निचली जातियों और हाशिये की विजातीय अस्मिताओं के प्रति उसके मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ द्वेष और घृणा है. हम सबने इस नफ़रत और अन्याय को अपने-अपने जीवन में भोगा है.
'दस दिन जब दुनिया हिल उठी'में १९१७ की सोवियत समाजवादी क्रांति में ट्राट्स्की की ऐतिहासिक भूमिका को जान रीड ने बहुत महत्व दिया था. वही ट्राट्स्की, जिनकी हत्या स्टालिन के समर्थकों ने कर दी थी, उनका कहा आज एक बार फिर याद आता है - 
“The party that leans upon the workers but serves the bourgeoisie, in the period of the greatest sharpening of the class struggle, cannot but sense the smells wafted from the waiting grave.” 
लेकिन सच यह भी है कि मार्क्सवाद आज के समय में और अधिक प्रासंगिक और अनिवार्य हो चुका है. बस शर्त यही है कि इसे आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक सोपानों में सबसे ऊंची जगहों पर बैठे ताकतवरों से विभक्त करते हुए, अलग से इसे इसे अपनाया जाय.
(आज ही मैंने संयोग से हिंदी के सवर्ण-संगठित कवियों-लेखकों के एक ऐसे ब्लाग को देखा, जिनके भीतर हम सबके प्रति इतनी नफ़रत भरी हुई थी कि वे सब गाली-गलौज़ के अलावा उन सब पर 'थूकने'की बात कर रहे थे, जो उनसे सहमत नहीं हैं और जो उनके गिरोहों में नहीं हैं. दुर्भाग्य है कि वे सब वही 'हिंदी-हिंदू वामपंथी'हैं, जिनकी इस दिल्ली शहर में ही नहीं, दूसरे राज्यों की राजधानियों के संस्थानों पर कब्जा है. इन जैसे घटिया तत्वों ने ही उस 'ईश्वर'को 'असफल'किया है, जो एक समय सामाजिक मुक्ति के लिए आया था.)




कविता कृष्‍णपल्‍लवी (8नवम्‍बर)
 अक्टू्बर क्रान्ति के बारे में उदय प्रकाश के दिल में अभी भी कुछ भावनाएँ बची हैं, जानकर अच्छा लगा। पर फिर उनका मोहभंग हो गया और इस क़दर हो गया कि वे न केवल एक ओर उत्तरआधुनिकतावाद, 'सबआल्टंर्न स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री 'और 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स'के अनुगामी हो गए, बल्कि दूसरी ओर उग्र हिंदुत्ववादी योगी आदित्य नाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्कार भी लेने लग गए। 
उदयप्रकाश के मोहभंग का मूल कारण यह रहा कि समाजवाद उनके लिए मानवमुक्ति का सवेरा लाने वाला ''ईश्वर''था। (पुराने ईश्वर के बरक्स एक नए ''ईश्वर''के निर्माण के लिए लेनिन ने गोर्की और लुनाचार्स्की की काफ़ी आलोचना की थी)। ''ईश्वर''को विफल तो होना ही होता है। ''ईश्वर''की मृत्यु तो होनी ही होती है।
समाजवाद पूँजीवाद की हर समस्या का कोई अंतिम समाधान था ही नहीं। समाजवाद एक लंबा संक्रमण काल था, जिसमें पूँजीवादी रास्ते और कम्युनिज़्म की ओर भविष्योन्मुख रास्ते के बीच का संघर्ष लंबे समय तक जारी रहना था और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे भी मौजूद रहने थे। उदयप्रकाश काफ़ी पढ़ते हैं, समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के बारे में मार्क्स ('गोथा कार्यक्रम की आलोचना'), लेनिन (1918-1922 के बीच के लेख), स्तालिन ('सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ') और माओ (1959 के बाद की रचनाएँ) वे पढ़ लेते तो बेहतर होता। और भी अच्छा होता यदि वे समाजवादी संक्रमण के बारे में बेतेलहाइम-स्वीज़ी बहस, रेमंड लोट्टा-अल्‍बर्ट-श्ज़ि‍मांस्की बहस तथा मार्टिन निकोलस, विलियम हिंटन, रॉबर्ट वील, मार्टिन हार्टलैंड्सबर्ग आदि की रचनाओं से परिचित होते। स्तालिन और त्रॉत्‍स्‍की के बारे में राय बनाने से पहले लूडो मार्टेन्स, कोस्तास मावराकिस आदि की कृतियों और ग्रोवर फ़र की वेबसाइट से भी वाकिफ़ हो लेते तो अच्छा होता।
समाजवाद की पूरी अवधि सघन वर्ग संघर्ष की अवधि थी। पाँच स्रोतों से पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों की चर्चा ले‍निन ने ही की थी। विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र की पराजय मायूसी पैदा करने के बावजूद इतिहास की गति थी। समाजवादी प्रयोगों के पहले संस्‍करणों में यदि कुछ ग़लतियाँ हुईं, उनमें यदि कुछ अनगढ़पन था और अंतत: वे पराजित हो गईं तो ऐतिहासिक पश्चदृष्टि से देखने पर कुछ अजूबा नही लगता। प्रकृति विज्ञान में भी ऐसा होता रहा है। प्रारंभिक प्रयोगों की पराजय क्रान्ति के विज्ञान की पराजय नहीं होती। आज के विश्व पूँजीवाद और उसके संकटों को समझने और एक वैकल्पिक ढाँचे द्वारा उसे विस्थापित करने की वैज्ञानिक दृष्टि आज भी मार्क्सवाद ही बताता है। 
बेशक हम बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों की रणनीति की कार्बन कॉपी नहीं कर सकते क्योंकि विश्व पूँजीवाद की उत्पादन एवं विनिमय की प्रणाली तथा सत्ता तंत्र और बौद्धिक वर्चस्व की प्रणाली में काफ़ी अंतर आये हैं। हमें अपने समय और समाज को समझना होगा। जड़सूत्रवाद हमें जड़वामन बना देता है। दुनिया के सामने और भारत के सामने दो ही मार्ग हैं - समाजवाद या फ़ासीवादी बर्बरता। समाजवाद से मायूस होकर यदि कोई फ़ासीवादी बर्बरता का शरणागत हो जाये, तो इसका मतलब यह है कि वह वैज्ञानिक समाजवादी कभी था ही नहीं। 
उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वह जब मार्क्‍सवादी थे, तब भी सीपीआई ब्रांड मार्क्सवादी थे जो गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका काल तक सोवियत संघ को समाजवादी मानते थे। पता नहीं उन्होंने सोवियत और चीनी पार्टियों के बीच 1963-64 के बीच चली बहस और मार्टिन निकोलस ('कैपिटलिस्ट रेस्टोरेशन इन यूएसएसआर') भी पढ़ी थी या नहीं। समाजवाद की पराजय तो सोवियत संघ में वस्तुत: 1956 में ही हो चुकी थी, उसके बाद जो था वह ''समाजवाद''नामधारी पूँजीवाद था, जैसे चीन में 1976 के बाद से ''बाज़ार समाजवाद''नामधारी मिश्रित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है। 
उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वे भारतीय कम्युनिस्टों के ''चाल-चेहरा-चरित्र''से मार्क्सवादी विज्ञान को तौलते हैं जो वस्तुत: कम्युनिस्ट हैं ही नहीं। भाकपा-माकपा से अलग जो क्रान्तिकारी वाम धारा पैदा हुई थी, वह भी ''वाम''दुस्साहसवाद के दुश्चक्र में फँसकर और चीनी क्रान्ति के कार्यक्रम के अन्धानुकरण के जड़मति दुराग्रह के कारण बिखर चुकी है। 
दरअसल यह विपर्यय और बिखराव विश्वव्‍यापी है, पर यह सर्वहारा संघर्षों का अंत नहीं है, दुनिया का अंत नहीं है, इतिहास का अंत नहीं है, मार्क्सवाद का अंत नहीं है। सामंतवाद पर निर्णायक जीत हासिल करने में पूँजीवाद को भी शताब्दियाँ लगी थीं। अक्टूबर क्रान्ति जो प्रथम सर्वहारा क्रान्ति थी, उसे अभी मात्र 96 वर्ष बीते हैं। 
जब तक पूँजीवाद है, सर्वहारा क्रान्ति की ज़रूरत बनी रहेगी। आज पूँजीवाद असाध्य ढाँचागत संकट और आत्मिक रिक्तता-रुग्णता से ग्रस्त है। दूसरी ओर, मेहनतकश जनता को मुक्ति की ज़रूरत है और मुक्ति का विज्ञान भी जीवित है। यह विज्ञान फिर मुक्ति के आकांक्षी, विद्रोह को उद्यत जनसमुदाय तक नवसंगठित हिरावलों के ज़रिए पहुँचेगा और इसी शताब्दी में अक्टूबर क्रान्ति के नए परिष्कृत स्मारकीय संस्करण अस्तित्व में आएंगे (भले ही इस बात को उदयप्रकाश अति-आशावाद और नियतत्ववाद कहकर खारिज कर दें।



उदय प्रकाश
 आपकी टिप्पणी पढ़ गया. अभी-अभी. इसका उत्तर यों है : (१) कोई भी ऐसा व्यक्ति, जो अपने भाई, बेटे, पिता, पत्नी या निकट के मित्रे की मृत्यु पर कोई 'पुरस्कार'लेता है, तो उससे अधिक 'अमानवीय'और निकृष्ट कोई हो नहीं सकता. लेकिन यदि ऐसा नहीं है, फिर भी कोई तबका या 'संप्रदाय- जाति'इस असत्य का प्रचार बार-बार करती है, तो वह फ़ाशिसट इसलिए है क्योंकि हिटलर के नाज़ीवादी प्रचारक गोयेबेल्स का मानना था कि अगर किसी 'झूठ'को बार-बार, हज़ार बार दुहराया जाय तो वह 'सच'बन जाता है. मेरी एक कविता की पंक्ति है -'जो यथार्थ को व्यक्त करता है, वह मार दिया जाता है, अफ़वाहों से ..!' (२) 'ईश्वर की मृत्यु'की अवधारणा की दार्शनिक प्रतिपत्ति जिस व्यक्ति ने की थी, उसका नाम था फ़्रेडेरिक नीत्शे. क्या यह कोई नहीं जानता कि नीत्शे ही फ़्यूहरर का 'मेंटर'या पथ-प्रदर्शक'था. क्या यह सिद्ध नहीं होता कि आप उसी नीत्शे के अनुयायी हैं? (३) 'समाजवाद' (यहां मैं 'साम्यवाद'पद का प्रयोग करना चाहूंगा) क्या उसी औद्योगिक सभ्यता का उत्पाद नहीं था, जिसका 'पूंजीवाद 'और 'साम्राज्यवाद'था ? क्या इन दोनों की, मानवीय संदर्भों में, कोई सीमाएं नहीं थीं ? क्या इनमें से एक 'संक्रमणशील'और दूसरा 'आब्सोल्यूट'था ? (४) आपने बार-बार 'वैज्ञानिक'का प्रयोग किया है, क्या यह वही 'साइंटिफ़िक डिटरमिनिज़्म'नहीम है, जिसका विरोध स्वयं लेनिन ने 'क्रिटिसिज़्म इंपीरियोक्रिटिसिज़्म'मेम किया था ? मैं अगर यह कहूं कि क्रांति पूर्व-निर्धारित 'वैज्ञानिक-नियमों'के तहत नहीं बल्कि स्वाभाविक मानवीय 'चेतना'से संभव होती हैं, तो क्या आप मुझे 'भाववादी' (हेगेलियन) कहेंगे ? अगर ऐसा आपने कहा तो मैं आपको 'अमानुषिक फ़ायरबाखियन'कहूंगा. यानी घोर निर्दयी हिंसक संवेदनहीन 'पदार्थवादी'. (५) 'क्रांति'या मनुष्य की आज़ादी के स्वप्न अभी भी 'पराजित'नहीं हुए हैं, जैसा आप सोचते हैं, बल्कि अब वे उन सूक्ष्म-संरचनाओं को भी पहचानने की अंतरदृष्टि हासिल कर रहे हैं, जो निरंतर बुद्ध और अंबेडकर के समय से लेकर आज तक उन परिवर्तनों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. (६) अगर आपने रूसी साहित्य के महान उपन्यासकार मिखाइल बुल्गाकोव के दो उपन्यास पढ़े हों -'मास्टर एंड मार्ग्रीता'और 'हार्ट आफ़ अ डाग', या यदि चीनी भाषा के महान साहित्यकार लुशुन की 'स्टोरीज़ आफ़ आह क्यु'पढ़ रखी हो तो आप जानेंगे कि 'क्रांतियां'हमेशा 'लूट'ली जाती हैं और 'व्यवस्था मेम उन्हीं का प्रभुत्व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे. स्व्यं भीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस'पढ़ कर देखें, जो सांप्रदायिक दंगा और जन-संहार को पैदा करते हैं, अंत में वही 'शांति और सदभावना'के जुलूस में सबसे आगे होते हैं. (७) आपकी 'नेमड्रापिंग'पर मुझे बेसाख्ता हंसी आयी. मैं यह 'काम'इतना अधिक कर सकता हूं कि फेसबुक के दोस्त चमत्कृत हो उठेंगे. लेकिन एक कनफ़ेशन आप यह करें, (कृपया सच बोलें) कि आपकी 'जातिगत'पहचान क्या है ? क्या आप भी ब्राह्मणवादी सवर्ण हिंदू हैं. (क्या ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया हैं?) यह प्रश्न इसलिए मैं पूछ रहा हूं कि हमारे देश में जो 'आइडियोलाजी'सचमुच कार्यशील है, वह है -जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार ! (इसका उत्तर अवश्य दें)
 फिर आपके तर्कों की एक सीमा यह भी है कि आपने निरंतर 'साहित्य'या 'सृजनात्मक'प्रयासों को गौण या 'अ-प्राथमिक'मान लिया है. क्या आपने मार्क्स की -'एटींथ ब्रुमेर आफ़ लुई बोनापार्ट'पढ़ रखी है ? मार्क्स सिर्फ़ एक दार्शनिक, अर्थशास्त्री या समाज-वैज्ञानिक ही नहीं था. वह 'व्यंजना'और 'विद्रूप-विडंबना'की भाषिक क्षमता या सामर्थ्य को जानने वाल एक लेखक भी था. वह चाहता तो एक 'साहित्यकार'बन कर अपना जीवन बिता सकता था. मीना काउत्स्की को लिखा गया उसका उसका पत्र आपने ज़रूर पढ़ रखा होगा. अगर नहीं तो कृपया एक बार अवश्य पढ़िये. इस पत्र मेम उसने काउत्स्की को सलाह दी थी कि यदि अपने समय-समाज और यथार्थ को जानना हो तो समाज-शस्त्रियों को नहीम, बाल्ज़ाक के उपन्यासों को पढ़ो. यह पत्र उपलब्ध है. लेनिन ने भी जड़ कम्युनिस्ट 'साहित्यिक आलोचक'जदानोव का विरोध किया था, जिसने ताल्सताय को सामंतवादी और क्रिष्चियन होने का आरोप लगा कर उसे रूसी साहित्य से बाहर कर देने की वकालत की थी. लेनिन ने उसी ताल्सताय को, जो महात्मा गांधी के भी 'गुरु'थे और उन्हीं के नाम पर दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने अपना 'आश्रम (ताल्सताय आश्रम) बनाया था, को सोवियत समाज का दर्पण घोषित किया था. आप जैसे कठमुल्ले किसी काम के नहीं हैं. न समाज के, न वंचितों के मुक्ति के, न साहित्य के. (उम्मीद है आप नाराज़ नहीं होंगे) (ज़ारी ...)

कविता कृष्‍णपल्‍लवी

 उदय प्रकाश जी, आपकी आख़ि‍री टिप्‍पणी के अंत में (जारी) लिखा है, पूरी होने का इंतज़ार है....


उदय प्रकाश
कविता कृष्‍णपल्‍लवी जी  ... टिप्पणी तो 'ज़ारी'रहेगी, लेकिन आप पहले मेरे पहले प्रश्न पर अपनी भूमिका साफ़ करें. आपने मुझ पर मेरे भाई की मृत्यु के शोक के अवसर पर 'पुरस्कार'लेने का आरोप लगाया है. यह एक दुखद और कुत्सित आरोप है. इसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए तथ्य दें. मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है. वस्तुपरक और तथ्यात्मक. 'झूठ'और 'अफ़वाह'का प्रचार फ़ाशीवाद की एक जानी-पहचानी निशानी है, जो वे अपने से अलग, अन्य, जाति, नस्ल, धर्म के लोगों के बारे में फैलाते हैं और इस तरह उनके विरुद्ध घृणा, संदेह, अविश्वास का वातावरण तैय्यार करते हैं. मेरे निरंतर चुप रहने और सब कुछ सहते रहने के बावज़ूद यह दुष्प्रचार एक उच्च सवर्ण जाति के गुट द्वारा अब तक ज़ारी है. वर्चुअल और प्रिंट, दोनों माध्यमों में. (मौखिक तौर पर यह कितना होगा, इसका अदाज़ा लगाया जा सकता है) मेरा विनम्र आग्रह है कि इस 'पुरस्कार'के बारे में तथ्य प्रस्तुत करें अन्यथा सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार करें. इस तरह का आरोप मैं ही नहीं कोई भी नहीं सह सकता. मैं आपसे फिर पूछता हूं कि क्या आप अपनी मां, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र-पुत्री की मृत्यु के अवसर पर जा कर कोई 'पुरस्कार'लेना चाहेंगे ? उत्तर दें. मैं प्रतीक्षारत हूं.


कविता कृष्‍णपल्‍लवी
 उदय प्रकाश जी, वैचारिक बहस को आगे बढ़ाने के पहले, आपने यह शर्त लगाई है कि उग्र हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्‍कृत होने के बारे में मैं तथ्‍य प्रस्‍तुत करूँ। गोरखपुर शहर से मेरा भी रिश्‍ता रहा है। सही है कि आप अपने रिश्‍ते के भाई की स्‍मृति सभा में गये थे। वहाँ योगी आदित्‍यनाथ के हाथों आपने पहला 'कुँवर नरेन्‍द्र प्रताप सिंह स्‍मृति सम्‍मान'लिया था, जिसकी तस्‍वीर सहित ख़बरें गोरखपुर के अख़बारों में छपी थीं। योगी के हाथों सम्‍मानित होते आपकी एक तस्‍वीर 25जुलाई 2009 को एक ब्‍लॉग iharmonium.blogspot.in पर भी टिप्‍पणी सहित आई थी। पुन: धीरेश सैनी के ब्‍लॉग ek-ziddi-dhun.blogspot.com.in पर 15 जुलाई को आपकी इस करनी के ख़ि‍लाफ़ हिन्‍दी के अग्रणी लेखकों-कवियों का एक विरोध पत्र प्रकाशित हुआ था। इसी ब्‍लॉग पर 20 जुलाई, 2009 को 'उदय प्रकाश प्रकरण : भ्रष्‍ट आचरण को ट्रेण्‍ड बनाने की कोशिश'शीर्षक टिप्‍पणी प्र‍काशित हुई थी। पुन: इसी ब्‍लॉग पर प्रणय कृष्‍ण के प्रकाशित आलेख 'साहित्‍य, सत्‍ता और सम्‍मान (30अगस्‍त,2009) में आपके पुरस्‍कार प्रसंग की चर्चा है। अब 'समयांतर'नवम्‍बर 2013 के अंक में प्रकाशित एक टिप्‍पणी ('शारीरिक बनाम मानसिक रुग्‍णता') में विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी के अध्‍यक्ष रहते, आपकी एक कहानी को उपन्‍यास बताकर साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार दिये जाने को अबतक का सबसे भ्रष्‍ट पुरस्‍कार बताया गया है और यह भी कहा गया है कि इसके लिए फासिस्‍ट नेता योगी आदित्‍यनाथ के दबाव का इस्‍तेमाल किया गया है। इस तथ्‍य की प्रामाणिकता अभी मुझे ज्ञात नहीं ( यह 'समयांतर'सम्‍पादक बतायेंगे), लेकिन गोरखपुर के अखबारों में छपी सारी ख़बरें और तस्‍वीरें भला ग़लत कैसे हो सकती हैं?
बहस के वैचारिक प्रश्‍नों पर आप स्‍वस्‍थ मन से वापस लौट सकें, इसके लिए 'बेतुका'और 'अतार्किक'मानते हुए भी मेरी जाति से सम्‍बन्धित आपके प्रश्‍न का उत्‍तर दे दूँ (क्‍योंकि यह उत्‍तर आपको अवश्‍य चाहिए)। मैं एक ऐसी जाति के परिवार में जन्‍मी हूँ, जिसे कुछ लोग सवर्ण तो कुछ शूद्र मानते हैं। पर मेरे लिए जाति का, सिद्धांतत: ही नहीं, बल्कि व्‍यवहारत: भी कभी कोई मतलब नहीं रहा। जाति के समूल नाश का प्रोजेक्‍ट मेरी राजनीति का बुनियादी अंग है। हमारे साथियों के दायरे में दलित, मुसलमान, ईसाई सभी पृष्‍ठभूमि के लोग हैं। हमलोग शादी-ब्‍याह के मामलों में भी जाति-धर्म-राष्‍ट्रीयता को पैमाना नहीं बनाते, न ही धार्मिक कर्मकाण्‍डों में हिस्‍सा लेते हैं। हम जातिवाद और साम्‍प्रदायिकता की राजनीति ही नहीं, सामाजिक व्‍यवहार का भी विरोध करते हैं। सामाजिक कार्यों के दौरान दलित और मुसलमान मज़दूरों के साथ हमारा रहना, उठना-बैठना सामान्‍य बात है। यह सारी सफाई मैंने आपकी तसल्‍ली के लिए दे दी है (ताकि विमर्श आगे बढ़े), अन्‍यथा मुझे नहीं लगता कि वैचारिक बहस में इस तथ्‍य की कोई भूमिका होनी चाहिए कि बहसकर्ता किस जाति का है! फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि ठाकुर जाति के उदय प्रकाश दलितों के पक्षधर भला कैसे हो सकते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि योगी आदित्‍यनाथ के साथ जाति के आधार पर भी उनकी एकता बनती है। लेकिन मैं ऐसा कत्‍तई नहीं कहूँगी । मेरा विचार है कि चीज़ों का फैसला जाति विशेष में पैदा होने से नहीं बल्कि विचारों से और व्‍यक्तिगत सामाजिक आचार से होना चाहिए।



उदय प्रकाश
कविता कृष्‍णपल्‍लवी जी... अब आपने 'पुरस्कार'का आरोप छोड़ दिया और 'स्मृति सम्मान'की बात करने लगीं/ लगे. कृपया ध्यान दें कि जो बहस एक बड़ी विचारधारा की असफ़लताओं पर केंद्रित हो सकती थी, उसे आपने ही 'योगी आदित्यनाथ' ..'पुरस्कार'आदि के साथ जोड़ कर नितांत 'व्यक्तिगत'लांछन पर तब्दील किया. इसी के संदर्भ में मैंने आपसे तथ्य और प्रमाण मांगे थे. ..हा ...हा...! और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आपने इसके लिए वही 'संदर्भ' (रिफ़ेरेन्स) दिये, जिनकी ओर मैंने अपनी मूल पोस्ट के आखीर में, कोष्टक के भीतर संकेत किया था. क्या आपको स्मरण है कि यह आरोप स्वयं आपका था और निहायत जजमेंटल था.( वे न केवल एक ओर उत्तरआधुनिकतावाद, 'सबआल्टंर्न स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री 'और 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स'के अनुगामी हो गए, बल्कि दूसरी ओर उग्र हिंदुत्ववादी योगी आदित्य नाथ के साथ मंचासीन होकर पुरस्कार भी लेने लग गए। ) (२) आपने मुझे फ़ैसलाकून तरीके से 'सी.पी.आई. ब्रांड'का भी घोषित कर डाला. फिर आपने स्वयं को 'नास्तिक'भी घोषित किया और अपनी 'जाति'प्रगट नहीं की और किसी ठग पोलितीशियन की तरह स्वयं को 'जाति-संप्रदाय-धर्म'इत्यादि से ऊपर उठा हुआ व्यक्तित्व कहा. जब कि मैंने पहले ही अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय समाज में जो कोई भी 'जाति-संप्रदाय-धर्म'और 'भ्रष्टाचार'के बारे में खामोशी अख्तियार करता है, उसे सीधे-सीधे संबोधित नहीं करता, वह दरअसल किसी 'विचारधारा'या राजनीति या निहित स्वार्थों के लिए सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है. 'नास्तिकता'अपनी असली जातिगत और सांप्रदायिक आइडेंटिटी को छुपा कर 'अन्यों'को बरगलाने का काम करती आ रही है. यह शहीद भगत सिंह की या राहुल सांकृत्यायन का 'एथीज़्म'नहीं है, जिसे उन्होंने अपने जीवन-कर्म से प्रमाणित किया था. अब यह एक क्लीशे हो चुका झांसे का औज़ार है. (३) ज़ाहिर है कि आप किसी न किसी संगठन से जुड़ी/ जुड़े हैं. वह राजनीतिक ही होगा और यह तय है कि उसकी कोई जातिगत-सांप्रदायिक बनावट ज़रूर होगी. क्योंकि आज हमारे समय में कोई एक भी राजनीतिक दल ऐसी नहीं है, जिस पर इन तीन का वर्चस्व ना हो -जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार. अब इस विमर्श को पुरानी वैचारिकी पर लौटाने के पूर्व मैं आपसे कुछ और जानने का विनम्र आग्रह करता हूं (इसलिए क्योंकि आप मूलत: राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं) वह आग्रह है - कृपया प्रकाश करात, दीपांकर भट्टाचार्य, वर्धन-अतुल कुमार अंजान के बारे में अपने मत प्रगट करें तथा इन दलों से जुड़े तीन लेखक संगठनों पर अपनी वैसी ही फ़ैसलाकून टिप्पणी दें जैसी आपने मेरे बारे में दी है -वे तीन संगठन हैं -जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और प्रगतिशील लेखक संघ. (आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी )



कविता कृष्‍णपल्‍लवी
उदय प्रकाश जी, आपतो किसी मीडिया चैनल या हिन्‍दी विभाग के जातिवादी अध्‍यक्ष की तरह साक्षात्‍कार के दौरान जाति जानने पर ही अड़ गये! क्‍या यह पर्याप्‍त नहीं कि मैं जाति नहीं मानती? फिर भी आपकी तसल्‍ली के लिए मैंने अपना पारिवारिक जातिमूल इंगित कर दिया। मेरा अभी भी मानना है कि आपके ठाकुर परिवार में या मेरे कायस्‍थ परिवार में पैदा होने से हमारी बहस की वैचारिक अंतर्वस्‍तु पर कोई फर्क नहीं पड़ता। क्‍या आप अपने प्रशंसकों-परिचितों से भी स‍बसे पहले उनकी जाति पूछते हैं तभी संवाद करते हैं? चलिये, एक बार फिर आपकी तसल्‍ली के लिए मैं यह भी बता दूँ कि भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन मेरी दृष्टि में छद्म वाम दल हैं और इनके सांस्‍कृतिक संगठनों से भी मेरा कोई लेना-देना नहीं। भाकपा(माओवादी) की अतिवाम राजनीति से भी मेरी सहमति नहीं। मैं एक मार्क्‍सवादी हूँ, क्‍या मात्र इतना ही पर्याप्‍त नहीं है कि हम कुछ वैचारिक असहमतियों पर संवाद करें? ग़जब का जनवाद है भाई आपका! और बचाव के लिए बाल की खाल निकालने में भी जवाब नहीं आपका। एक फासिस्‍ट के हाथों सम्‍मानित होने और पुरस्‍कृत होने के बीच भला क्‍या गुणात्‍मक फ़र्क है? चलिए, मैं ग़लती ठीक कर लेती हूँ: आप उग्र हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ के साथ मंचासीन हुए और उसके हाथों सम्‍मान ग्रहण किया... हा... हा...। मैंने आपकी वैचारिकता को आपके लेखों के ज़रिए ही जाना है। यह जानकारी मुझे कुछ पुराने साहित्‍य प्रेमियों से ही मिली कि उत्‍तर आधुनिक 'टर्न्र'लेने के पहले आप भाकपा के निकटस्‍थ वामपंथी हुआ करते थे। वैसे आपकी ही तर्ज़ पर ये सारे उत्‍तर देने से पहले मैं भी पूछ सकती थी कि भाजपा को आप फासिस्‍ट संगठन मानते हैं या नहीं, तमाम अंबेडकरवादी दलित बुद्धिजीवियों और पार्टियों के बारे में आपकी राय क्‍या है... वगैरह-वगैरह। पर मैं ऐसा नहीं पूछूंगी क्‍योंकि मैं इसे मूल मुद्दों पर बहस की पूर्व शर्त नहीं मानती। आपके इस निर्णय से भी मेरी सहमति सम्‍भव नहीं कि जो जाति नहीं मानता वह जाति 'छिपाकर''अन्‍यों'को बरगलाता है। तब तो कोई व्‍यक्ति आपसे बहस कर सके, इसके लिए यह भी ज़रूरी हो जायेगा कि आपका नाम वह ठाकुर उदय प्रकाश सिंह के रूप में (या ऐसे ही किसी रूप में) देखना चाहे। चलिए, विमर्श की पुरानी वैचारिकी पर लौटने के लिए मैंने, न चाहकर भी, आपके सवालों पर काफी सफाइयाँ पेश कर दीं। अब क्‍या मूल बहस पर वापस लौटा जाए?




उदय प्रकाश
कविता कृष्‍णपल्‍लवी जी चलिये अब आपने अपना ज़रा-सा परिचय दिया. लेकिन आपकी बातों और तर्कों से लगता है कि आपने कुछ धारणाएं अंतिम तौर पर बना डाली हैं. आपने यह भी अभी घोषित किया कि आप 'मार्क्सवादी'हैं. इसके पहले आप जाति-धर्म आदि से ऊपर उठ चुकी/ चुके थीं/ थे. फिर आपने मुझे 'ठाकुर'भी कह डाला. गोरखपुर से भी आपका संबंध है. सारे वामपंथी दल भी आपकी निगाह में छद्म हैं. इनके सांस्कृतिक संगठनों से भी आपका कुछ लेना-देना नहीं. अब एक प्रश्न और. आप मुझे व्यक्ति के रूप में या लेखक के रूप में किस माध्यम से जानती/ जानते हैं. क्या उन्हीं सूत्रों के ज़रिये, जिनका आपने उल्लेख किया है? क्या आपने मेरी कोई रचना कभी पढ़ी है? मेरे व्यक्तित्व और रचनाशीलता के मूल्यांकन के आधार आपके क्या हैं ? ..और 'मूल मुद्दा'आपकी दृष्टि में क्या है? योगी आदित्यनाथ जिसे आपने 'फ़ाशिस्ट'कहा और उसके हाथों पहले 'पुरस्कार'फिर 'सम्मान'फिर 'मंचासीन'होने की बात कही. क्या आप मानती/ मानते हैं कि 'मोहन दास'को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने के पीछे 'योगी आदित्यनाथ का दबाव'था ? क्या आपने 'मोहन दास'पढ़ी है ? इस पुरस्कार की ज्यूरी में अशोक वाजपेयी, चित्रा मुद्गल और आपके प्रिय आलोचक मैनेजर पांडेय थे. क्या विश्वनाथ त्रिपाठी समेत इन सब पर योगी आदित्यनाथ का 'दबाव'था ? (मूल मुद्दा यही है) आपसे एक अनुरोध और है. गूगल या किसी भी सर्च में जाकर एक बार 'मोहन दास'या उदय प्रकाश टाइप कर लें. इस पुस्तक पर लगभग सभी भारतीय भाषाओं और कुछ प्रमुख विदेशी भाषाओं के प्रतिष्ठित आलोचकों, साहित्यविदों की समीक्षाएं हैं और उनमें कई मार्क्सवादी आलोचक भी हैं. संसार के प्रमुख प्रकाशकों द्वारा वह प्रकाशित भी है. उस पर एक फ़िल्म बन चुकी है, दूसरी बनने की तैय्यारी है. उसका मंचन इप्टा, हिरावल और अन्य भाषाओं, जिनमें पंजाबी भी सम्मिलित है, हो चुका है. जन नाट्यमंच के कलाकार ने भी फ़िल्म में भूमिका निभाई है. अब आप बतायें कि क्या अपनी राय आप उन्हीं स्रोतों से बनाती हैं, जिनका आपने रिफ़ेरेंस दिया है, या आप स्वयं को 'मार्क्सवादी'घोषित करते हुए किसी भी रचना और किसी भी व्यक्ति पर मनचाहे आरोप-प्रत्यारोप लगा सकते/ सकती हैं? आपकी वाल पर आपके संबंधों के दायरे का पता चलता है. क्या आप अपना और परिचय मुहैय्या करेंगी/ करेंगे? 
 आपने बार-बार मुझ पर फ़ैसलाकून ढंग से 'उत्तर-आधुनिक'होने का टैग लगा दिया है. इसके पीछे आधार क्या है? 'उत्तर-आधुनिकता'की बुनियादी प्रस्तावनाएं क्या हैं और किन तर्कों या निष्कर्षों से आप यह फ़ैसला दे रही/ रहे हैं कि मैंने कोई 'उत्तर-आधुनिक टर्न'ले लिया है? मुझे तो नहीं लगता कि 'उत्तर-आधुनिकता'से मेरा या मेरी रचनाओं का कोई वास्ता है. (आप कृपया यह स्वीकार कर लें कि आपका इरादा किसी गंभीर और ईमानदार 'बहस'/ 'विमर्श'का नहीं है बस अपने फ़ैसले सुनाने का है. अब आप उस 'थूकने'वाली भाषा पर अपनी राय दें, जिसका उल्लेख मैंने मूल पोस्ट में किया है. क्या वह उचित है? ..और क्या ऐसी गर्हित भाषा का उपयोग कोई सभ्य, लोकतांत्रिक, प्रबुद्ध तथा स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति दूसरों के लिए कर सकता है ? ) .
हा ... हा ...! आपने एक जजमेंट मेरे बारे में और दिया है. इसे कृपया देखें : ''उदयप्रकाश की समस्या यह है कि वह जब मार्क्‍सवादी थे, तब भी सीपीआई ब्रांड मार्क्सवादी थे जो गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका काल तक सोवियत संघ को समाजवादी मानते थे।''चलिए आपने मुझे सी.पी.आई. ब्रांड का माना (हालांकि १९८२ के बाद से मैं 'जनवादी लेखक संघ'का सदस्य, केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य और दिल्ली राज्य का उपाध्यक्ष भी रह चुका हूं. रिकार्ड चेक कर लें.) अब आपसे अनुरोध है कि कृपया फणीश्वरनाथ रेणु, निराला, नागार्जुन, प्रेमचंद, मंटो, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, हजारीप्रसाद द्विवेदी, भीष्म साहनी, अमरकांत, धर्मवीर भारती, धूमिल, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय के भी 'ब्रांड'बताएं. मैं बेसब्री से प्रतीक्षारत हूं. 




कविता कृष्‍णपल्‍लवी
 उदय प्रकाश जी, अब आप रेणु से लेकर रघुवीर सहाय तक सोलह लेखकों के बारे में राय पूछने लगे! पहली बात, रचनाकारों के 'ब्राण्‍ड'बनाना-बताना अनुचित होगा और ग़लत भी । उनकी रचनाओं के अन्‍तरविरोधों की, और समग्रता में जनपक्षधरता की बात की जा सकती है । कई बार लेखक की रचना उसकी विचारधारा और राजनीति के प्रतिकूल भी जा खड़ी होती है, जैसे कि बाल्‍ज़ाक और तोलस्‍तोय के साथ हुआ । स्‍पष्‍ट कर दें कि यहाँ भी बात उदय प्रकाश के कवि-कथाकार के रूप में मूल्‍यांकन से नहीं शुरू हुई थी । यहाँ बात आपके राजनीतिक विचारों की आलोचना से शुरू हुई थी (और बात जब राजनीतिक विचारों की होती है तो जीवन-व्‍यवहार की चर्चा अनुचित नहीं)। इसलिए मैं आपके द्वारा उल्लिखित सोलह लेखकों का न तो 'ब्राण्‍ड'बताने जा रही हूँ, न ही आगे ऐसे किसी अप्रासंगिक प्रश्‍न का उत्‍तर देने जा रही हूँ क्‍योंकि इसी कड़ी में आप वहाँ तक जा पहुँच सकते हैं कि तुलसीदास, कालि‍दास, वेदव्‍यास और होमर के बारे में भी मेरी राय पूछें और यह भी जानना चाहें कि हड़प्‍पा और मेसोपोटामिया की सभ्‍यताओं के बारे में मेरी क्‍या राय है!
(1) चलिए, तमाम कठहुज्‍जती के बाद आपने यह तो माना कि उग्र हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ के साथ गोरखपुर में आप मंचासीन हुए थे और उनके हाथों सम्‍मानित हुए थे। मात्र सूचना-स्रोतों के सन्‍दर्भों से आप यह मान बैठे हैं कि मैं हिन्‍दी साहित्‍य में आपके विरुद्ध सक्रिय किसी ''गिरोह''की सदस्‍य हूँ। बहरहाल, इस संदेह-ग्रंथि का कोई इलाज मेरे पास नहीं है । अब पूछ रहे हैं कि आपकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के अतीत और आपके उत्‍तरआधुनिक 'टर्न'के बारे में मेरे ''जजमेण्‍ट''के स्रोत/रेफरेंस क्‍या हैं! यह बात तो आपके जीवन-‍परिचयों में (इण्‍टरनेट पर भी) उल्लिखित है कि सोलह वर्ष की आयु में आप वाम राजनीति में सक्रिय हुए और फिर भाकपा के कार्यकर्ता बने, जे.एन.यू. आने से पहले सागर विश्‍वविद्यालय के दिनों में ही। फिर '80 के दशक में आप माकपा के निकट आये। यही समय था जब आप जलेस के सदस्‍य और पदाधिकारी रहे। तो इस दौरान आपकी जो राजनीति रही और सोवियत संघ के बारे में उस राजनीति की जो समझ थी, मैंने वही तो बयान किया है! अब रहा सवाल आपके उत्‍तर-आधुनिक 'टर्न'का! पुरानी पत्रिकाओं की फाइलें पलटते हुए 'हंस'के बहुत पुराने अंकों में आपके लेख पढ़ने को मिले थे, जिनकी मूल तार्किक प्रणाली और निष्‍पत्तियाँ उत्‍तरसंरचनावादी और उत्‍तरआधुनिकतावादी विचार-सरणियों के सर्वथा अनुरूप लगीं। उन्‍हीं से पता चला कि सुधीश पचौरी के बाद उत्‍तर-आधुनिक'टर्न'लेने वाले आपे दूसरे प्रमुख वामपंथी थे। उल्‍लेख्‍य है कि यहाँ आपके विचारों और राजनीति की ही चर्चा हो रही है। आपकी रचनाओं में भी इस 'टर्न'को लक्षित किया जा सकता है, पर वह एक अलग विषय है जो काफ़ी विस्‍तार की माँग करता है और वह यहाँ न तो सम्‍भव है , न ही हमारे विमर्श का मूल मुद्दा!
2) 'मोहनदास'कहानी मैंने पढ़ी है, यहाँ उस कहानी पर मेरी राय का प्रश्‍न नहीं है। न ही निर्णायक मण्‍डल पर मेरी राय का प्रश्‍न है। निर्णायक मण्‍डल पर सीधे योगी आदित्‍यनाथ नहीं, अध्‍यक्ष वि.प्र.तिवारी तो दबाव बना ही सकते थे और उनकी दक्षिणपंथी रुझानें सर्वज्ञात हैं। लेकिन यह मेरा कहना नहीं है। मैंने पहले ही बता दिया है कि इसकी प्रामाणिकता के बारे में तो 'समयांतर'का टिप्‍पणीकार ही बता सकता है। यह भी स्‍पष्‍ट कर दें कि मेरे लिए यह मुद्दा नहीं था। मेरे लिए मुद्दा उतना ही था, जितना मैंने अपने पहले कमेण्‍ट में लिखा था। यह मुद्दा तो तब उठा जब आपने मूल प्रतिपाद्य से हटकर परिधिगत मसलों को तूल दिया। लेकिन अब एक और सवाल तो बनता ही है। अमित सेनगुप्‍ता से एक बातचीत के दौरान (The Sharp Eyed Seer,25अक्‍टूबर 2006, archive.tehelka.com) आपने अरुंधती राय द्वारा साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार ठुकराये जाने पर टिप्‍पणी करते हुए कहा था: ''I fully agree, they call the academy autonomous, but it is like what all statist institutions are, full of brokers, compromisers, people fleecing the system for private gains, awards, recognitions,fellowshipholders, those holding plum posts. she speaks of her mind, how many of writers dare to do against the corrupt power mafia? she has shown the truth of not only corruption in these institutions, but also how global capital has squeezed us, in squeezing us dry everyday in this new era where everything has become so cruel and moneycentric.''चार वर्ष बाद जब आपने खुद साहित्‍य-अकादमी पुरस्‍कार लिया तो क्‍या वह पाक-साफ और राज्‍य की जकड़बन्‍दी से मुक्‍त हो चुकी थी, क्‍या वहाँ से दलालों और पद-पुरस्‍कार लोलुप मौक़ापरस्‍तों का सफ़ाया हो चुका था? उस समय साहित्‍य अकादमी के बारे में आपकी राय बदल गयी थी या आप बदल गये थे, या अकादमी तभी तक भ्रष्‍ट थी जब तक आप पुरस्‍कृत नहीं हुए थे?
(3) मैं नहीं जानती कि वह कौन सा सवर्ण-संगठित कवि-लेखक गिरोह है, जो ब्‍लॉग पर अपने से असहमत लोगों पर 'थूकने'की बात कर रहा है। मैंने पढ़ा नहीं है, आप ब्‍लॉग का नाम बताइयेगा पढ़ लूँगी। जाहिर है, मैं इस भाषा की कायल नहीं, राजनीतिक विवाद में राजनीतिक तल्‍ख शब्‍दावली तो आयेगी, पर गाली-गलौज एकदम अलग बात है। इस मसले पर मेरा स्‍टैण्‍ड मेरी शैली से स्‍पष्‍ट है। मैंने आपके बारे में जो भी कहा, प्राप्‍त तथ्‍यों के आधार पर कहा(यदि कोई तथ्‍य ग़लत हो तो, तो उसे सुधारने की तत्‍परता के साथ), आपके निजी सम्‍मान को ठेस पहुँचाने वाली कोई बात नहीं कही, आपके उकसाने के बावजूद। आप लगातार अपने विरोधी किसी गिरोह से जुड़े होने के संदेह से प्रेरित प्रश्‍न पूछते रहे, एकदम अप्रासंगिक प्रश्‍न उठाते रहे, जाति जानने पर अड़े रहे और जाति-धर्म-सम्‍प्रदाय को सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में न मानने की मेरी प्रतिबद्धता पर निराधार सन्‍देह करते हुए मेरे ऊपर ''ठग पोलिटीशियन''जैसा व्‍यवहार करने तक का आरोप लगा दिया! आपके इन अपशब्‍दों के बावजूद मैंने अपनी भाषाई मर्यादा नहीं तोड़ी। इससे साफ है कि मैं बहस में 'थूकने-खँखारने'या चोर-उचक्‍का-ठग कहने जैसी भाषाई गुण्‍डागर्दी की विरोधी हूँ। राजनीतिक प्रवृत्ति या प्रवर्ग को नाम देना एक बात है, राजनीतिक व्‍यंग्‍य भी 'पालिमिक्‍स'में एक मान्‍य रीति है, लेकिन गाली देना या अपशब्‍द इस्‍तेमाल करना एकदम दीगर बात है।
4) मूल प्रश्‍न पर आने से पहले, इस बहस को फॉलो कर रहे आम पाठकों में कोई भ्रान्ति न फैले, इसके लिए आप द्वारा प्रस्‍तुत कुछ ग़लत तथ्‍यों और सन्‍दर्भों की संक्षिप्‍त चर्चा ज़रूरी है। लेनिन ने ज्‍़दानोव के विरुद्ध कहीं कुछ लिखा-बोला नहीं था क्‍योंकि उनके जीवन-काल में ज्‍़दानोव सोवियत संघ के सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य पर कहीं था ही नहीं। पहली बार, लुनाचार्स्‍की के इस्‍तीफे के बाद 1929 में ज्‍़दानोव 'कमिसारियत ऑफ एनलाइटेनमेण्‍ट'का प्रभारी बना था। 1934 में 'आल यूनियन राइटर्स कान्‍फ्रेंस ऑफ सोवियत यूनियन'में, जिसके प्रमुख गोर्की और एक अन्‍य अग्रणी सिद्धान्‍तकार पी.यूदिन थे, अपने भाषण से ज्‍़दानोव चर्चा में आया था। उससमय समाजवादी यथार्थवाद की अवधारणा में कुछ मेटाफिजिकल विचलनों के बावजूद, ज्‍़दानावियन यांत्रिकता का दौर अभी नहीं आया था। 1930 के दशक में ही मिखाइल लिफ्शित्‍ज, केमेनोव, आई.सात्‍ज़ और मार्क रोजेंथाल आदि ने मार्क्‍सवादी साहित्‍य-सैद्धातिकी में भोंड़े समाजशास्‍त्रीय और यांत्रिक वर्ग अपचयनवादी भटकावों के विरुद्ध संघर्ष चलाया था। ज्‍़दानोवियन यांत्रिकता का वास्‍तविक बोलबाला 1946 में हुआ जब ज्‍़दानोव सोवियत सांस्‍कृतिक नीति का प्रभारी बना और बहुचर्चित 'ज्‍़दानोव डॅाक्ट्रिन'आया। फिर 1948 में 'एण्‍टी-फार्मलिज्‍़म कैम्‍पेन'चला जब मुरादेली के ऑपेरा और शास्‍ताकोविच, खाचातुरिन, प्रोकोफि़येव के संगीत आदि को आलोचना को निशाना बनाया गया।
लेनिन ने अपने जीवन-काल में 'प्रोलेतकुल्‍त'की सांस्‍कृतिक-साहित्यिक समझ की आलोचना की थी। तोलस्‍तोय पर किसी का जवाब देते हुए नहीं, बल्कि सकारात्‍मक रूप से उन्‍होंने लेख लिखे थे(प्रसंगवश आपकी एक और त्रुटि यहाँ इंगित कर दें, लेनिन ने तोलस्‍तोय को सोवियत समाज का नहीं, 'रूसी क्रान्ति का दर्पण'कहा था)। प्‍लेखानोव ने पूर्वप्रचलित भोंड़े समाजशास्‍त्रीय नज़रिये से, अंतिम मूल्‍यांकन में तोलस्‍तोय को 'अभिजनों के घोंसले का चितेरा'कहा था, जबकि लेनिन ने संज्ञान के परावर्तन सिद्धान्‍त को साहित्‍य में पहली बार लागू करते हुए तोलस्‍तोय के यथार्थवाद की प्रगतिशीलता के साथ ही उनकी विचारधारा के प्रतिक्रियावाद की भी चर्चा की थी ('रूसी क्रान्ति का दर्पण'शीर्षक पर न जाइये, लेनिन ने तोल्‍स्‍तोय के दोनों पक्षों की द्वंद्वात्‍मक विवेचना की थी)। न जाने किस स्रोत-सामग्री के आधार पर, आपने तोल्‍स्‍तोय के प्रश्‍न पर ज्‍़दानोव को सीधे लेनिन से ही भिड़ा दिया है।
(5) तथ्‍य की दूसरी ग़लती। मिन्‍ना काउत्‍स्‍की के नाम कार्ल मार्क्‍स ने कोई पत्र नहीं लिखा था। मिन्‍ना काउत्‍स्‍की को फ्रेडरिक एंगेल्‍स ने एक पत्र (26नवम्‍बर,1885) लिखा था, जिसमें बाल्‍ज़ाक के बारे में ऐसी कोई बात नहीं थी, जैसी आपने लिखी है। उस पत्र में उन्‍होंने यह बात लिखी थी कि प्रयोजनमुखी साहित्‍य में, ''प्रयोजन को स्‍वयं परिस्थिति तथा कार्यकलाप में अपने को व्‍यक्‍त करना चाहिए, विशेष रूप से लक्षित किये बिना, और लेखक अपने वर्णित सामाजिक टकरावों का भावी ऐतिहासिक समाधान पाठक के सामने तैयारशुदा रूप में प्रस्‍तुत करने के लिए कर्त्‍तव्‍यबद्ध नहीं है।''हाँ, फ्रेडरिक एंगेल्‍स का ही एक और पत्र (अप्रैल प्रारम्‍भ,1888) है मार्गरेट हार्कनेस के नाम। इस पत्र में उन्‍होंने लिखा है कि बाल्‍ज़ाक ने फ्रांसीसी समाज का जो पूरा इतिहास समेटा है, उससे उन्‍हें आर्थिक तफ़सीलों तक के मामले में तमाम इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों तथा सांख्यिकीविदों की पुस्‍तकों से कहीं अधिक जानकारी मिली। सन्‍दर्भ मिलाकर अपनी जानकारी दुरुस्‍त कर लीजियेगा।
(6) तथ्‍य की तीसरी ग़लती, जो गम्‍भीर ग़लती है। यह लेनिन की पुस्‍तक 'मैटीरियलिज्‍़म एंण्‍ड इम्‍पीरियो क्रिटिसिज्‍़म'(पुस्‍तक का नाम भी आपने ग़लत लिखा है)। के बारे में है। इस पुस्‍तक का प्रतिपाद्य 'साइंटिफिक डिटर्निज़्म'नहीं बल्कि 'सब्‍जेक्टिव आइडियलिज्‍़म','एग्‍नॉस्टिसिज्‍़म'और 'पाजि़टिविज्‍म'की आलोचना है। माख और अबेनारिउस के 'इम्‍पीरियोक्रिटिसिज्‍़म'की यही दार्शनिक अंतर्वस्‍तु थी, जो काण्‍ट से आगे बढ़कर ह्यूम और बर्कले तक जा पहुँचती थी। 'साइंटिफिक डिटर्मिनिज्‍़म' (वैज्ञानिक नियतत्‍ववाद) एक अलग चीज़ है। यदि वैज्ञानिक का मतलब ही वैज्ञ‍ानिक नियतत्‍ववाद होता है, तब तो समाज की गतिकी की वैज्ञानिक समझ की बात ही नहीं की जा सकती जो‍ कि मार्क्‍सवाद करता है। जब समाज विज्ञान को कोई व्‍यक्ति प्रकृति विज्ञान की तरह से ट्रीट करता है और इतिहास विकास की प्रक्रिया में मानवीय अभिकर्ता (ह्यूमन एजेंसी) की भूमिका को नकार देता है, तो इसे वैज्ञानिक नियतत्‍ववाद कहते हैं(अकादमिक मार्क्‍सवाद की एक धारा -- संरचनावादी मार्क्‍सवाद ऐसा ही करता है)। जिसप्रकार आर्थिक मूलाधार को अंतत: निर्णायक मानना आर्थिक नियतत्‍ववाद नहीं है, वर्गीय संरचना और वर्ग-विश्‍लेषण को बुनियादी चीज़ मानना वर्ग-अपचयनवाद (क्‍लास रिडक्‍शनिज्‍़म) नहीं है, उसी प्रकार वैज्ञानिक का मतलब वैज्ञानिक नियतत्‍ववाद नहीं होता। यदि आप या कोई भी अज्ञेयवादी (एग्‍नॉस्टिक) या अनिश्‍चयवादी 'साइंण्टिफि़क'का मतलब 'साइंण्टिफि़क डिटर्मिनिज्‍़म'समझता है तो समझे, लेकिन इसका कलंक कम से कम लेनिन के मत्‍थे तो न मढ़े। आर्थिक और वैज्ञानिक नियतत्‍ववाद के विरुद्ध मार्क्‍स, एंगेल्‍स और लेनिन के अतिरिक्‍त अन्‍य कई मार्क्‍सवादियों का विपुल लेखन मौज़ूद है, पर उनकी चर्चा मैं कत्‍तई नही करुंगी, वर्ना आप फिर 'नेमड्रॉपिंग'का आरोप चस्‍पां कर देंगे।
(7) बहस के दौरान, 'ईश्‍वर की मृत्‍यु'रूपक आते ही आपने मुझे नीत्‍शे से जोड़ दिया और चूँकि नीत्‍शेवाद के बुनियादी प्रतिक्रियावादी निष्‍कर्ष ज़र्मन फासिज्‍़म के विचारों के स्रोत बने, (वैसे टॉमस मान, इब्‍सन और श्‍वाइत्‍ज़र भी नीत्‍शे से प्रभावित थे) इसलिए मुझ ''नीत्‍शे के अनुयायी''का असली ''चेहरा''आपने ''एक्‍सपोज''कर दिया। महज कुछ जुमले मिलाकर कुछ का कुछ सिद्ध कर देना शास्‍त्रार्थी ब्राह्मणों की परम्‍परा है, हमारी नहीं होनी चाहिए। नीत्‍शे ने ईश्‍वर के समक्ष लोगों की समानता तथा ''सत्‍ता की कामना''का निषेध करने वाली ''आत्‍मअवमानना''विषयक ईसाई धर्म के विचारों को ठुकराते हुए ''ईश्‍वर की मृत्‍यु''की तथा आत्‍मा के अमरत्‍व के विकल्‍प के तौर पर ''शाश्‍वत प्रत्‍यागमन''की बात की थी। आपने समाजवाद के लिए ईश्‍वर का रूपक इस्‍तेमाल किया, मैंनें नहीं। उस समाजवाद की असफलता के लिए आपने 'ईश्‍वर की असफलता'का रूपक का इस्‍तेमाल किया। वह समाजवाद अब नहीं रहा(आप भी मानते हैं), इसपर आप ही के रूपक की भाषा में मैंने ''ईश्‍वर की मृत्‍यु''कह दिया तो इसमें नीत्‍शे कहाँ से आ टपक पड़ा? और फिर यह रूपक तो आपका गढ़ा हुआ है, मेरा नहीं। मेरा तो मात्र इतना कहना था कि समाजवाद को कठिन वर्ग संघर्ष और प्रयोगों से भरी दीर्घ संक्रमण-अवधि के रूप में देखने के बजाय, जो लोग निर्दोष, परम शुद्ध रूप में आदर्शीकृत करते हुए उसे ईश्‍वर तुल्‍य समझते रहे, उनके ''ईश्‍वर की मृत्‍यु''तो होनी ही थी। ऐसा ईश्‍वर किसी भी रूप में गढ़ना वास्‍तविकता में ग़लत था और दार्शनिक तौर पर तो किसी भी रूप में ईश्‍वर गढ़ना रूमानी भाववाद ही होता है। पर यदि मैं आपको हेगेलियन भाववादी कहूँ तो आप मुझे 'अमानुषिक फायरबाखियन पदार्थवादी'कह देंगे, यह धमकी आप पहले ही दे चुके हैं।
(8) आपने बिना किसी प्रसंग या संदर्भ के, साहित्‍य या सृजनात्‍मक प्रयासों को गौण या अप्राथमिक मानने का आरोप मेरे सिर पर थोप मारा है जबकि मूल विषय में ऐसा कोई प्रसंग आया ही नहीं है। प्रश्‍न विचारधारा, साहित्‍य-कला और राजनीति में से किसी को गौण या प्रधान मानने या न मानने का है ही नहीं। सामाजिक परिवर्तन की पूरी परियोजना में या इतिहास-विकास के पूरे मानचित्र पर, तीनों अधिरचनात्‍मक उपादानों का अपना अनस्‍थानांतरणीय, अविनिमेय, अपरिहार्य स्‍थान है। इन तीनों में तुलना बेमानी है। तीनों के बिना सामाजिक परिवर्तन की कल्‍पना नहीं की जा सकती। विचारधारा (सचेतन हो या अचेतन) सभी सामाजिक-व्‍यक्तिगत आचार एवं कार्यों की निर्देशिका होती है। साहित्‍य-कला इतिहास के सभ्‍यतागत आसवन (डिस्टिलेशन) से प्राप्‍त मानवीय सारतत्‍व है, सामाजिक क्रान्ति के अग्रणी लोगों को और भागीदार जनों को, इस मानवीय सारतत्‍व का संज्ञान किसी न किसी हद तक देना ही होता है और सामाजिक क्रान्ति का बुनियादी लक्ष्‍य अन्‍यायपूर्ण सामाजिक ढाँचे के अमानुषिक अवरोधों को हटाकर इसी मानवीय सारतत्‍व को समृद्ध करना होता है। राजनीति आर्थिक सम्‍बन्‍धों की सर्वाधिक सान्‍द्र अभिव्‍यक्ति होती है और पूरी संक्रमण प्रक्रिया के निर्णायक बिन्‍दु पर क्रान्ति का सवाल बुनियादी तौर पर राज्‍यसत्‍ता का (यानी राजनीति का) सवाल बन जाता है क्‍योंकि एक सामाजिक ढाँचे के नियंत्रक-विनियामक टॉवर (राज्‍यसत्‍ता) को ध्‍वंस करना होता है और शोषण-असमानता के हिमायती वर्गों के बचे रहने तक एक नयी राज्‍यसत्‍ता की अनिवार्य ज़रूरत होती है। अत: अलग-अलग अधिरचनात्‍मक उपादानों की तुलना का सवाल ही नहीं है। बल्कि मेरा तो मानना है कि रूसी क्रान्ति हो ही नहीं सकती थी, बोल्‍शेविक क्रान्तिकारियों की पीढ़ी तैयार ही नहीं हो सकती थी, यदि पुश्किन, गोगोल, तुर्गनेव, दोस्‍तोयेव्‍स्‍की, तोल्‍स्‍तोय, चेखव, चेर्नीशेव्‍स्‍की, हर्जेन, दोब्रोल्‍यूबोव आदि-आदि की समृद्ध परम्‍परा के साये में वह पली-बढ़ी नहीं होती। पुनर्जागरण और प्रबोधनकाल से लेकर उन्‍नीसवीं सदी तक के यथार्थवादी और रोमानवादी साहित्‍य को भी मैं इसी नज़रिये से देखती हूँ। क्रान्तिपश्‍चातकाल में भी नयी साहित्‍य-कला-संस्‍कृति के सृजन के बिना नया मनुष्‍य तैयार हो ही नहीं सकता था। कई-कई गोर्की, फ़ेदिन, फ़देयेव, शोलोखोव, आइजेंस्‍ताइन, पुदोवकिन, मेयरहोल्‍ड, स्‍तानिस्‍लाव्‍स्‍की, वाख्‍तांगोव होते, कई तरह के प्रयोग होते, स्‍वस्‍थ मतभेद और विवाद होते तो यह समाजवाद के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए और अच्‍छा होता। मेरा यह मानना है कि पहले दौर के समाजवादी प्रयोगों में, अन्‍य क्षेत्रों की तरह, साहित्‍य-कला के क्षेत्र में भी ग़लतियाँ हुईं, (जिनमें कुछ गम्‍भीर थीं) विचलन आये, उनमें प्रथम प्रयोगों की अनगढ़ता भी थी और मौलिकता की पथान्‍वेषी भटकनें भी। उन सब पर यहाँ विस्‍तृत चर्चा असम्‍भव है। फिर भी पश्‍चदृष्टि से देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के क्षेत्र में भी बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की उपलब्धियाँ शानदार थीं। ज्‍़दानोवियन यांत्रिकता की मैं भी विरोधी हूँ। यथार्थवाद के बारे में ब्रेष्‍ट, आइजेंस्‍ताइन, मेयेरहोल्‍ड, वाख्‍तांगोव आदि के बोध एवं धारणा की एक धारा बनती है जो अधिक द्वंद्वात्‍मक, सापेक्षत: अधिक सही प्रतीत होती है। पर यह समय न चीज़ों को सिरे से ख़ारिज करने का है, न ही अंतिम फैसला सुनाने का। अध्‍ययन-विश्‍लेषण-विमर्श-समाहार की प्रक्रिया अभी लम्‍बी चलनी चाहिए।
(9) मिख़ाइल बुल्‍गाकोव का उपन्‍यास 'मास्‍टर ऐण्‍ड मार्गारीता'जादुई यथार्थवादी बनावट-बुनावट वाली 'पॉलिफोनिक'कथाकृति है (मार्खे़ज़ भी बुल्‍गाकोव को ही जादुई यथार्थवाद का 'ट्रेण्‍डसेटर'मानते थे)। एक धरातल पर यह कृति विशेषकर '20 के दशक के अंत से '30 के दशक तक सोवियत तंत्र के कुछ खित्‍तों में प्रभावी नौकरशाही की आलोचना करते हुए समाजवाद के भविष्‍य को लेकर निराशा प्रकट करती है, दूसरे धरातल पर यह 'फ्रीमैसन'स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से नास्तिकता के प्रचारकों के विरुद्ध एक प्रच्‍छन्‍न स्‍टेटमेण्‍ट है, तीसरे धरातल पर अच्‍छे और बुरे के ''शाश्‍वत''संघात के चित्रित करती हुई यह सवाल उठाती है कि यदि दुनिया पर वोलैण्‍ड और उसके संगियों का शैतानी प्रभुत्‍व ही बने रहना है तो फिर इस दुनिया के होने का मतलब क्‍या है? आपने इस उपन्‍यास का बहुत चलताऊ अर्थ-संधान किया है। जहाँ तक समाजवादी संक्रमण-अवधि के दौरान सोवियत तंत्र में पैदा हुई नौकरशाही का सवाल था, वह समाजवाद की (ख़ासतौर पर जब उसका रंगमंच कोई पिछड़ा देश हो) अपरिहार्य बुराई थी। लेनिन ने भी सोवियत संघ के सर्वहारा अधिनायकत्‍व को ''नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जु़आ विरूपणों''से युक्‍त बताते हुए एक वस्‍तुगत यथार्थ का बयान किया था, पर साथ ही उसे किसी भी बुर्जु़आ जनवाद से लाखों गुना अधिक जनवादी भी बताया था। समाजवाद के दौरान, पुराने मालिक वर्गों की, तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताओं से, विशेषकर मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के अंतर (जैसे वेतन, सुविधाओं आदि के अंतर के रूप में) से पैदा होने वाले बुर्जु़आ अधिकारों की, माल-मुद्रा के नियमों (श्रम शक्ति के माल होने की स्थिति)के किसी हद तक बने रहने से पैदा होने वाली बुर्ज़आ संस्‍कृति की, अतीत के अवशेष के रूप में मौजूद संस्‍कृति की तथा छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्‍पादन की मौजूदगी से पैदा होने वाले नये बुर्ज़ुआ तत्‍वों की संस्‍कृति की मौजूदगी का परावर्तन एवं परिणाम राजनीतिक अधिरचना में भी सामने आता ही है। यह समाजवाद की विफलता नहीं, एक स्‍वाभाविक समस्‍या थी और इस समस्‍या के जड़ों की शिनाख्‍़त करना और हल निकालना कम्‍युनिस्‍ट नेतृत्‍व के समक्ष चुनौती थी। इस प्रश्‍न के सैद्धान्तिक-व्‍यावहारिक धरातल पर हल होने में समय लगा और इससे आगे चलकर ऐतिहासिक क्षति हुई। बुल्‍गाकोव (और उन जैसे कइयों की) समस्‍या यह थी कि उन्‍होंने समाजवाद की समस्‍याओं को आम मेहनतक़श जनों की अवस्थिति से नहीं बल्कि एक 'फेंससिटर', 'आउटसाइडर'पेटी-बुर्जु़आ बुद्धिजीवी के नज़रिये से देखा और उन्‍हें ''ईश्‍वर की असफलता''की, या ''शैतानी ताक़तों की जीत''की घोषणा करते अथवा यह नतीजा निकालते देर नहीं लगी कि 'क्रान्तियाँ हमेशा लूट ली जाती हैं और व्‍यवस्‍था में उन्‍हीं का प्रभुत्‍व बना रहता है जो पहले भी शासक थे।'इसी प्रजाति के लोगों ने आगे चलकर सामाजिक क्रान्तियों के विचारों और इतिहास को ही, प्रबोधनकाल से पैदा होकर विकसित होने वाली मुक्ति एवं समानता की अवधारणा को ही, ''महाख्‍यान''कहकर खारिज कर दिया और विखण्डित क्षुद्र सामाजिक आन्‍दोलनों पर विमर्श का जश्‍न मनाने लगे। बुल्‍गाकोव ही नहीं, शिक्षा कमिसारियत में मौजूद नौकरशाही की आलोचना मकारेंको ने भी अपनी कृति 'रोड टु लाइफ़'में और सामूहिक फ़ार्मों में मौजूद नौकरशाही की आलोचना शराफ़ रशीदोव ने भी 'विजेता'और 'तूफ़ान झुका सकता नहीं'जैसे अपने उपन्‍यासों में प्रस्‍तुत की है। सैकड़ों और ऐसी कृतियाँ हैं। फ़र्क यह है कि बुल्‍गाकोव के विपरीत उनका रुख'इनसाइडर'का है, इनके चलते न तो वे समाजवाद को ही सिरे से ख़ारिज करते हैं, न ही अध्‍यात्‍म और रहस्‍यात्‍मक संदेहवादी नैराश्‍य को अपना शरण्‍य बनाते हैं। बेशक़ समाजवाद को साहित्‍य के माध्‍यम से भी जाना-समझा जा सकता है, पर बुल्‍गाकोव ही क्‍यों, अलेक्‍सेई तोल्‍स्‍तोय की उपन्‍यास-त्रयी ('ऑर्डियल'के तीन खण्‍ड -- 'द सिस्‍टर्स', '1918'और 'द ब्‍लीक मॉर्निंग') व अन्‍य कृतियों, कोंस्‍तातिन फे़दिन की उपन्‍यास त्रयी ('पहली उमंगें','आग्‍नेय वर्ष'के दो खण्‍ड और 'अलाव') व अन्‍य कृतियों, शोलोखोव के महाकाव्‍यात्‍मक उपन्‍यासों और ऐसी ही अन्‍य रचनाओं के माध्‍यम से क्‍यों नहीं?समाजवादी जीवन के यथार्थ को देखने का एक वर्गीय नज़रिया बुल्‍गाकोव का था तो दूसरा फ़ेदिन, अलेक्‍सेई तोल्‍स्‍तोय, शोलोख़ोव जैसों का था। कौन यथार्थ की किस प्रस्‍तुति को प्रातिनिधिक मानता है, यह भी वर्गीय विचारधारात्‍मक अवस्थिति का सवाल है।
(10) लूशुन की प्रसिद्ध कहानी 'द ट्रू स्‍टोरी ऑफ आह क्‍यू' ('स्‍टोरीज़ ऑफ आह क्‍यू'नहीं) का तो आपने एकदम मनमाना अनर्थकारी भाष्‍य कर डाला है। इस कहानी की अबतक जो मान्‍य व्‍याख्‍या रही है, वह स्‍वयं लूशुन की एक टिप्‍पणी से भी स्‍पष्‍ट होता है और लूशुन साहित्‍य के सबसे बड़े विशेषज्ञ चीनी आलोचक फेंग झूएफेंग (1903-76) भी उसी की ताईद करते हैं। सर्वोपरि तौर पर लूशुन एक आदमी के आत्मिक जीवन पर हज़ारों वर्षों के उत्‍पीड़न के विमानवीकारी (डीह्यूमनाइजिंग) प्रभाव को दर्शाना चाहते हैं और साथ ही यह भी, कि ऐसा एक विमानवीकृत व्‍यक्ति भी जीवन की सामान्‍य मानवीय स्थितियों को हासिल करने के लिए विद्रोह और समर्पण के द्वंद्व से गुजरता है। आह क्‍यू की सबसे बड़ी विफलता यह है कि उसकी यह आदत बन चुकी है कि जब भी वह पराजित होता है तो न सिर्फ दूसरों को बल्कि अपने आपको धोखा देता है और खुद को यह सोचकर तसल्‍ली देता है कि उसने नैतिक विजय हासिल की है। यह पराजयवाद है। फिर जल्‍दी ही वह अपने उत्‍पीड़कों और दुश्‍मनों को भुला देता है, अपने से कमज़ोर लोगों से एक उत्‍पीड़क जैसा ही भाव-ताव बनाकर प्रतिशोध लेने लगता है। जब 1911 की क्रान्ति आती है तो स्‍वभावतया आह क्‍यू की नियति उससे जुड़ जाती है, उसके द्वंद्व का सुषुप्‍त पक्ष जागता है, लेकिन यह तथ्‍य कि उसे क्रान्ति में भाग नहीं लेने दिया जाता, 1911 की क्रान्ति की निर्बलता और विफलता का एक रूपक पेश करता है। आह क्‍यू की कहानी से क्रान्ति के बारे में आपने जो सामान्‍यीकृत निषेधवादी निष्‍कर्ष निकाला है, इससे आपकी 'स्‍पेक्‍युलेटिव'सूक्ष्‍मदर्शी प्रतिभा को देखकर लूशुन भी किंकर्तव्‍यविमूढ़ हो जाते।
(11) कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा लाकर वांछित निष्‍कर्ष प्रतिपादित करने के लिए आपने झाड़ू-बुहारू स्‍टाइल सामान्‍यीकरण करते हुए 'तमस'को भी घसीट लिया है और ऐसा निष्‍कर्ष निकाला है जिसके बारे में भीष्‍म साहनी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। भारतीय राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन में वर्चस्‍वकारी भूमिका निभाने वाली बुर्ज़ुआ राजनीति के दुरंगे चरित्र को और साम्‍प्रदायिकता और कथित धर्मनिरपेक्षता के हथकण्‍डों के उसके द्वारा कुटिल इस्‍तेमाल की प्रवृत्ति को दिखलाने के साथ ही भीष्‍म साहनी ने आज़ादी और विभाजन के दौर की सारी ज़मीनी राजनीतिक-सामाजिक परिणतियों को 'तमस'में शानदार ढंग से दिखाया है। 1947 की घटना क्रान्ति नहीं थी और सत्‍तासीन भारतीय बुर्ज़ुआ वर्ग की राजनीतिक पार्टी से जिस आचरण की अपेक्षा थी, उसने वही किया। 'तमस'के उक्‍त प्रसंग से कहीं भी यह सार्विक सामान्‍यीकृत निष्‍कर्ष नहीं निकलता कि 'क्रान्तियाँ हमेशा लूट ली जाती हैं और व्‍यवस्‍था में उन्‍हीं का प्रभुत्‍व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे'। तब तो कुल जमा नतीज़ा यही निकला न कि चाहे जितने भी पवित्र उद्देश्‍य से प्रेरित हो, क्रान्ति की दिशा में हर प्रयास ही लोगों को निरर्थक कष्‍ट और तबाही में झोंक देता है! फिर अक्‍टूबर क्रान्ति को फ़ालतू में भावुक होकर याद करने का नाटक क्‍यों? सीधे कहिए न, कि क्रान्ति की इस परिणति को न जानने के कारण लेनिन और उनकी पार्टी ने बेकार ही रूसी जनता को इतनी परेशानियों में धकेल दिया। नतीजा -- 'आगे पूरी व्‍यवस्‍था बदलने वाली क्रान्‍ति की कोई भी विनाशकारी कोशिश नहीं होनी चाहिए। हाँ, कुछ बाँध विरोधी आन्‍दोलन, पर्यावरण आन्‍दोलन, सामाजिक आन्‍दोलन होते रहें तो कोई बात नहीं। और मनुष्‍यता के शाश्‍वत दु:खों की त्रासदी और अकेलेपन की पीड़ा पर सुन्‍दर कविताएँ लिखी जाती रहनी चाहिए क्‍योंकि 'सुन्‍दरता ही मनुष्‍यता को बचायेगी'। क्रान्तियों के महाख्‍़यान (मेटानैरेटिव्‍स) मुर्दाबाद! देरिदा आदि से लेकर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक तक, ज़ि‍न्‍दाबाद !'
(12) मैंने टिप्‍पणी की सीमा देखते हुए उन पुस्‍तकों का मजबूरन नाम लिया जो समाजवाद के इतिहास का मार्क्‍सवादी अवस्थितियों से समाहार प्रस्‍तुत करने की कोशिश करती हैं। यह मजबूरी है क्‍योंकि आप जैसे लोग एक ख़ास धारा की स्रोत-सामग्री का इस्‍तेमाल करते हुए बस निर्णायक और सकारात्‍मक तौर पर अपनी बात कह देते हैं, विरोधी धारा की स्रोत-सामग्री द्वारा प्रस्‍तुत तर्कों-तथ्‍यों के साथ टकराते नहीं। जैसे उत्‍तरआधुनिकतावादियों व अन्‍य उत्‍तर-विचारसरणियों के विचारकों को लें। उनकी विशद और गम्‍भीर आलोचनाएँ पिछले पच्‍चीस वर्षों के दौरान मार्क्‍सवादी स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट्स से प्रस्‍तुत की गयी हैं, ये विचारकगण इन आलोचनाओं की आलोचना कभी नहीं करते, सीधे 'पॉलिमिक्‍स'में कभी नहीं उतरते। बीसवीं शताब्‍दी के समाजवादी प्रयोगों की पराजय की एक अन्‍य समझ के बारे में आपकी क्‍या राय है, यह जानने के लिए, और आप उन तर्कों की बिन्‍दुवार काट रखते हुए हम जैसों लोगों को प्रबोधित करें, इसके लिए जब मैंने कुछ नाम गिनाये तो आपको मेरी ''नेमड्रॉपिंग''की प्रवृत्ति पर बेसाख्‍़ता हँसी आ गयी और आपने बताया कि यह 'काम'आप इतना अधिक कर सकते हैं कि फेसबुक के दोस्‍त चमत्‍कृत हो उठें। ठीक बात है पर ऐसा करने के लिए आजकल तो आप जैसा दुर्दांत पढ़ाकू होने की भी ज़रूरत नहीं। कोई भी पल्‍लवग्राही बुद्धिजीवी इण्‍टरनेट पर विषयवार-लेखकवार 'सर्च'करते हुए पुस्‍तकों की समीक्षाएँ और परिचय पढ़कर तथा विचारकों पर संक्षिप्‍त टिप्‍पणियाँ पढ़कर यह काम कर सकता है। लेकिन आपने 'ना-ना'करते हुए भी जिस ग़ैरज़ि‍म्‍मेदारी के साथ 'नेमड्रॉपिंग'की है, वह देखकर तो कोई ठहाका लगाने लगता, लेकिन मैंने नहीं लगाया। एंगेल्‍स के पत्र को मार्क्‍स का बता दिया, मार्गरेट हार्कनेस को मिन्‍ना काउत्‍स्‍की बना दिया। लेनिन की प्रसिद्ध दार्शनिक कृति में जो प्रतिपाद्य है, उसके ठीक विपरीत अटकलपच्‍चू कुछ लिख दिया। 'आह क्‍यू की सच्‍ची कहानी'और 'तमस'की कुछ अगड़मबाइस व्‍याख्‍या कर डाली। एक तो बहुत सारे नाम गिनाये और जो भी सन्‍दर्भ बताये, सब ग़लत-सलत। ऐसा नहीं करना चाहिए। लेखकों-विचारकों को अपने विचार तो ख़ूब रखने चाहिए, पर तथ्‍यों के बारे में आम पाठकों को ग़लत जानकारी नहीं देनी चाहिए, दिग्‍भ्रमित नहीं करना चाहिए।
(13) आपका विचार है कि क्रान्ति पूर्वनिर्धारित वैज्ञानिक नियमों से नहीं बल्कि स्‍वाभाविक मानवीय 'चेतना'से सम्‍पन्‍न होती है। आप 'नेमड्रॉपिंग'का आरोप लगा देंगे, इसलिए इस धारणा के विरुद्ध मार्क्‍स-एंगेल्‍स ने डेढ़ सौ वर्षों पहले जो दार्शनिक तर्क और ऐतिहासिक तथ्‍य दिये थे, उनके हवाले तो मैं दे नहीं सकती। आप जैसे अध्‍यवसायी अध्‍येता ने तो पढ़ा ही होगा, आप ही बतायें, आपके प्रतितर्क क्‍या हैं? सामाजिक क्रा‍न्तियों के ऐतिहासिक आवश्‍यकता-प्रसूत होने की जिस वैज्ञानिक नियम संगति को मार्क्‍सवाद ने दर्शन, इतिहास और अर्थशास्‍त्र से स्‍थापित किया था, उसे आप किस आधार पर ख़ारिज करते हैं? यदि महज स्‍वाभाविक मानवीय चेतना से ही क्रान्तियाँ सम्‍पन्‍न होती हों, तबतो समाजवाद तीन-चार सौ साल पहले भी आ स‍कता था, और हो सकता है कि तीन-चार सौ साल बाद भी न आये (वैसे भी आयेगा तो 'लूट'लिया जायेगा)! आवश्‍यकता और सांयोगिकता के द्वंद्व को आप नहीं समझते और आपका ज़ोर सिर्फ़ सांयोगिकता पर ही है। दूसरी बात, सामाजिक परिवर्तन की वैज्ञानिक नियम-संगति को ही आप वैज्ञानिक नियतत्‍ववाद मानते हैं और क्रान्ति की वैज्ञानिक नियमानुकूलता का अर्थ यह मानते हैं कि इसमें चेतना की, 'ह्यूमन एजेंसी की या आत्‍मगत उपादान की कोई भूमिका ही नहीं होती (आपकी इस हास्‍यास्‍पद समझ की चर्चा मैं पहले कर चुकी हूँ)। 'लूई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर' (जिसे पढ़ने की नेक सलाह आपने मुझे दी थी) आपने किस तरह पढ़ा है कि उसकी शुरुआत से दूसरे पैराग्राफ़ की इन पंक्तियों को ही नहीं समझ सके हैं: ''मानव-जन अपना इतिहास स्‍वयं बनाते हैं, पर अपने मनचाहे ढंग से नहीं। वे उसे अपनी मनचाही परि‍स्थितियों में नहीं, अपितु ऐसी परि‍स्थितियों में बनाते हैं जो उन्‍हें अतीत से प्राप्‍त और अतीत द्वारा सम्‍प्र‍ेषित होती हैं और जिनका उन्‍हें सीधे-सीधे सामना करना होता है।''शुरू के पूरे पाँच पृष्‍ठ जितने अद्भुत काव्‍यात्‍मक है, उतने ही समृद्ध दार्शनिक अन्‍तर्वस्‍तु से खचित भी। पर इसकी दार्शनिक अन्‍तर्वस्‍तु को आप एकदम नहीं पकड़ पाये। हवाले अनगिनत हैं। पर आप जैसे गहन अध्‍येता ने लेनिन की कृति 'दूसरे इण्‍टरनेशनल का पतन'का वह अंश तो पढ़ा ही होगा जहाँ लेनिन ने क्रान्तिकारी परिस्थितियों के लक्षण गिनायें हैं और फिर तफ़सील से यह बताया है कि हर क्रान्तिकारी परिस्थिति क्रान्ति को जन्‍म नहीं देती। क्रान्ति तब तक नहीं हो सकती जबतक वस्‍तुगत स्थिति के अतिरिक्‍त आत्‍मगत शक्तियाँ तैयार न हो, यानी मज़दूर वर्ग संगठित न हो, विचारधारात्‍मक रूप से समृद्ध एक हरावल के नेतृत्‍व में संगठित न हो। वह हरावल शक्ति कैसे बनती है, उसकी संरचना और कार्यप्रणाली क्‍या हो, वह मज़दूर वर्ग को 'क्‍लास फॉर इटसेल्‍फ'की चेतना कैसे दे, जनउभारों को क्रान्ति की दिशा में कैसे आगे बढ़ाये, इसपर लेनिन की दो पुस्‍तकें और पचासों लेख (विशेषकर 1895 से 1905 के बीच के) हैं, पर मैं उनके हवाले नहीं दूँगी। क्रान्ति की पूरी तैयारी में, वस्‍तुगत स्थितियों और आत्‍मगत शक्तियों का द्वंद्वात्‍मक संबंध होता है, लम्‍बे टाइम-फ्रेम की निश्चितता और छोटे टाइम फ्रेम की अनिश्चितता के बीच का द्वंद्व होता है, सूक्ष्‍म स्‍तर की अनिश्चितता और व्‍यापक स्‍तर की निश्चितता के बीच द्वंद्व होता है तथा आवश्‍यकता और सांयोगिकता के बीच का द्वंद्व होता है। अत: जाहिर है कि मैं ''अमानुषिक फ़ायरबाखियन पदार्थवादी'' (वैसे फ़ायरबाख का पदार्थवाद यांत्रिक भले ही हो, अमानुषिक तो कत्‍तई नहीं था, यह उस महान दार्शनिक के लिए एक गाली है) कत्‍तई नहीं, बल्कि द्वंद्वात्‍मक भौतिकवादी हूँ , लेकिन क्रान्ति को ''स्‍वाभाविक मानवीय चेतना''का नतीजा मानते हुए आप निरे हेगेलियन भाववादी का आदिप्ररूप (प्रोटोटाइप) ही हैं।
(14) आपका मानना है कि समाजवाद (जिसे आप साम्‍यवाद कहना चा‍हते हैं, पर यह एकदम ग़लत है, साम्‍यवाद समाजवाद की शताब्दियों लम्‍बी संक्रमण-अवधि के बाद की अवस्‍था होगी, सन्‍दर्भ बताने से आप बिदकते हैं, इसलिए इतना ही कहूँगी कि इनके फ़र्क को मार्क्‍स और लेनिन की प्रसिद्ध कृतियों से जान लीजिये) और पूँजीवाद-साम्राज्‍यवाद -- दोनों ही औद्योगिक सभ्‍यता की उपज हैं अत: दोनो की ही कुछ सीमाएँ होंगी। इससे ध्‍वनित होता है कि दोनों की सीमाओं में कुछ समानता होनी चाहिए, बुराइयों में भी कुछ समानता होनी चाहिए। ये प्रकृतिवादियों के पुराने तर्क हैं जो ''औद्योगिक सभ्‍यता'', ''मशीनी सभ्‍यता''आदि शब्‍दों में आज की सभ्‍यता और आगे की सभ्‍यता में बाँधकर देखते हैं और फिर लाल कपड़ा देखकर बिदकने वाले साँड़ जैसा आचरण करते हैं ( हालाँकि ऐसे सभी बुद्धिजीवी ''औद्योगिक सभ्‍यता''की सभी देनों का अपने रोज़मर्रे के जीवन में खूब इस्‍तेमाल करते हैं और ''प्रकृति की गोद''में लौट जाने के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते) ! मशीनें और कम्‍प्‍यूटर अपने आप में और कुछ नहीं क्रमश: मनुष्‍य के हाथों और मतिष्‍क के बाह्य विस्‍तार हैं। ये उत्‍पादन के साधन हैं। ये हमारे ऊपर शासन नहीं करते, इनके स्‍वामी करते हैं। पूँजीवाद ने उत्‍पादक शक्‍तियों (विज्ञान, तकनोलॉजी, मशीनों सहित) का अभूतपूर्व विकास किया और नयी मशीनों ने उत्‍पादन-प्रणाली का ज्‍़यादा से ज्‍़यादा समाजीकरण सम्‍भव बना दिया, दूसरी ओर उत्‍पादन के साधनों के स्‍वामित्‍व का चन्‍द हाथों में संकेन्‍द्रण बढ़ता गया। इस बुनियादी अन्‍तरविरोध को केवल उत्‍पादन के साधनों के स्‍वामित्‍व का समाजीकरण करके ही हल किया जा सकता है। उद्योग या औद्योगिक सभ्‍यता निरपेक्षत: कोई बुरी चीज़ नहीं है। बुरी बात यह है कि जब उत्‍पादन मूलत: सामाजिक आवश्‍यकता की पूर्ति के लिए न होकर मुनाफ़े के लिए होता है तो अंधी हवस की इस होड़ में पूँजीपति न केवल श्रम शक्ति को, बल्कि प्रकृति को भी अंधाधुंध निचोड़कर पारिस्थितिक विनाश का संकट पैदा कर देते है (मार्क्‍स ने ही इसकी चर्चा की थी, इस प्रश्‍न पर मार्क्‍सवादी दृष्टि से लिखी गयी कई किताबें मौजूद हैं)। साथ ही, पृथ्‍वी की थोड़ी सी आबादी की रुग्‍ण विलासिता और अपव्‍यय तथा बाज़ारों की प्रतिस्‍पर्द्धा से जन्‍म लेने वाले युद्ध और शस्‍त्रों की प्रतिस्‍पर्धा भी पर्यावरणीय विनाश रचती हैं। यदि उत्‍पादन मुनाफ़े की जगह सामाजिक उपयोगिता से निर्देशित हो और नियोजित अर्थतंत्र हो तो कथित औद्योगिक सभ्‍यताजन्‍य इन सभी संकटों से मुक्ति पाई जा सकती है। जिस तकनोलॉजी से पकृति को नुकसान होता है, उसकी क्षतिपूर्ति भी उसी तकनोलॉजी से की जा सकती है। पूँजीवाद की समाप्ति से युद्धों की समाप्ति का सवाल जुड़ा है। जीवाष्‍म ईंधन की जगह अक्षय ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत व तकनोलॉजी मौज़ूद हैं। विज्ञान, तकनोलॉजी, उत्‍पादन और जीवन स्‍तर तो आगे जायेंगे ही, यह इतिहास की स्‍वाभाविक गति है। हम पीछे नहीं लौट सकते। यह पुरोगामी दृष्टि है। विनाश की जड़ पूँजीवादी ढाँचा है, विज्ञान या उद्योग नहीं। ''औद्योगिक सभ्‍यता''का दूसरा परिणाम आत्मिक धरातल पर अलगाव (एलियनेशन) और विमानवीकरण बताया जाता है। पर ये चीज़ें पूँजीवादी श्रम-विभाजन की उपज हैं। अत: औद्योगिक सभ्‍यता अपने आप में कोई चीज़ नहीं है, बात पूँजीवादी सभ्‍यता की होनी चाहिए। उत्‍पादन के साधनों के अभूतपूर्व विकास के बावजूद समाजवाद मुनाफ़े एवं प्रतियोगिता की चालक शक्ति से संचालित नहीं होने के कारण न तो पारिस्थितिक संकट पैदा करेगा, न ही,(पूँजीवादी श्रम-विभाजन के क्रमश: खतम होने के चलते) अलगाव, सामाजिक विघटन और विमानवीकरण को जन्‍म देगा। अत: यह सूत्रीकरण बेमानी है कि समान औद्योगिक सभ्‍यता की उपज होने के चलते पूँजीवाद और समाजवाद की कुछ समान कमज़ोरियाँ और कुछ समान सीमाएँ हैं। सोवियत संघ में पर्यावरण का प्रश्‍न (उस समय संकट इतना प्रत्‍यक्ष था भी नहीं) सचेतन तौर पर एजंडे पर नहीं था, इसका एक कारण गृहयुद्ध और भुखमरी के बाद एक दशक बीतते-बीतते फासिस्‍ट संकट के विरुद्ध सामरिक तैयारियों में जुट जाना भी था। चीन में पर्यावरण संतुलन के प्रश्‍न पर (ज़ाहिर है, ''बाज़ार समाजवाद''के पहले) समाजवादी निर्माण के दौरान ध्‍यान दिया गया। यह समस्‍या पिछले 40-50 वर्षों में गम्‍भीर होकर, ध्‍यानाकर्षण का केन्‍द्र बनी है।
(15) अब आपके अगले प्रश्‍न का उत्‍तर । पूँजीवादी व्‍यवस्‍था इसलिए स्‍वत: किसी अगली व्‍यवस्‍था में संक्रमण नहीं कर सकती, क्‍योंकि उत्‍पादन के साधनों के निजी स्‍वामित्‍व के बढ़ते केन्‍द्रीकरण और उत्‍पादन प्रक्रिया के समाजीकरण के अन्‍तरविरोध को इसके दायरे में हल किया ही नहीं जा सकता, एक उत्‍पादन स्‍थल पर संगठनबद्धता और समूचे उत्‍पादन में अराजकता को समाजवादी नियोजन के बग़ैर हल किया ही नहीं जा सकता, अधिशेष विनियोजन (सरप्‍लस एप्रोप्रियेशन) की प्रक्रिया के जारी रहते 'फालिंग रेट ऑफ प्रॉफिट'की शाश्‍वत पूँजीवादी समस्‍या का अंतिम समाधान निकाला ही नहीं जा सकता। दूसरी ओर, समाजवाद इसलिए एक संक्रमणशील व्‍यवस्‍था है क्‍योंकि उत्‍पादन के साधनों के स्‍वामित्‍व का समाजीकरण स्‍वयं एक सापेक्षिक, क्रमश: आगे बढ़ने वाली प्रक्रिया है। कृषि का उदाहरण लें -- सहकारीकरण, सामूहिकीकरण, राजकीयकरण -- ये तीन अवस्‍थाएँ हैं। जनता की चेतना का अतिक्रमण करके सीधे उच्‍चतम रूप पर छलाँग नहीं लगाया जा सकता। और फिर प्रश्‍न केवल स्‍वामित्‍व के रूप का ही नहीं, उत्‍पादन और विनिमय के पूरे सम्‍बन्‍धों को रूपांतरित करने का होता है, जो रातों रात नहीं हो सकता । जनता ही इसके लिए तैयार नहीं होगी। उदाहरण के तौर पर, समाजवादी चेतना से लैस नयी बौद्धिक शक्ति तैयार होने और पुराने बुद्धिजीवियों के रूपांतरण तक बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम का अंतर बना रहेगा, वैज्ञानिकों-शिक्षकों-तकनीकविदों-प्रबंधन-विशेषज्ञों और मज़दूरों के बीच वेतन, सुविधा के अंतर बने रहेंगे, उन्‍हें तुरत नहीं समाप्‍त किया जा सकता। उत्‍पादक शक्तियों के काफी विकसित होने तक गाँव और शहर के, कृषि और उद्योग के अंतर भी बने रहेंगे। इन तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताओं के चलते समाजवादी समाज में बुर्ज़ुआ अधिकारों की मौजूदगी बनी रहती है। साथ ही, आम मज़दूरों की चेतना भी क्रान्ति होते यकायक़ इतनी तैयार नहीं हो जाती कि 'मैटीरियल इंसेटिव'को समाप्‍त किया जा सके और जबतक यह चीज़ बनी रहती है, आम जनता के बीच भी असमानता और लोभ-लालच की संस्‍कृति भी बनी रहती है। फिर यह भी नहीं भूलना होगा कि लम्‍बे समय तक अपने ''खोये हुए स्‍वर्ग''की प्राप्ति के लिए पुराने शोषक वर्ग सचेष्‍ट रहते हैं, छोटे पैमाने के माल उत्‍पादन का अस्तित्‍व बना रहता है, और मूल्‍य के नियम मौजूद रहते हैं। साम्राज्‍यवादी विश्‍व के प्रभाव की भूमिका भी कुछ कम नहीं होती। फिर राजनीतिक अधिरचना का सवाल आता है। क्रान्ति होते ही आम मज़दूर वर्ग सीधे शासन और प्रबंधन के हाथों को काम में लेने के लिए तैयार नहीं होता। इन कामों में अच्‍छे-खासे समय तक पार्टी की प्रत्‍यक्ष भूमिका बनी रहती है और बुद्धिजीवी वर्ग की भी भूमिका बनी रहती है। चेतना के धरातल के उन्‍नत होते जाने और तृणमूल स्‍तर से तैयारी के बाद ही क्रमश: यह स्थिति आ सकती है कि आम मज़दूरों और विशेषज्ञों के बीच का अंतर मिट जाये, मज़दूर वर्ग विकेन्द्रित-केन्द्रित नियोजन तंत्र में स्‍वयं शासन के काम सम्‍भालने लगे और पार्टी की भूमिका विचारधारात्‍मक-राजनीतिक मार्गदर्शक की होकर रह जाये। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान ही, लाजिमी तौर पर, शासन तंत्र के भीतर से नौकरशाहाना विकृतियाँ पनपने लगती हैं, विशेषाधिकारों को बनाये रखने की ख्‍़वाहिशें पैदा होने लगती हैं और पार्टी के भीतर से ही पूँजीवादी पथगामी पैदा होने लगते हैं। अब सामाजिक-सांस्‍कृतिक अधिरचना को लें। क्रान्ति के बाद, पुराने आर्थिक मूलाधार के तोड़े जाने के साथ ही (हालाँकि ऊपर की चर्चा से यह भी स्‍पष्‍ट है कि समाजवादी संक्रमणशील मूलाधार में भी पूँजीवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध बचे रहते हैं) पुरानी अधिरचना तुरत नष्‍ट नहीं होती और वह अपनी पारी में उलटकर मूलाधार को प्रतिकूल रूप में प्रभावित करती है। साथ ही, समाजवादी संक्रमण अवधि में जो नये बुर्ज़ुआ तत्‍व पैदा होते हैं, वे भी समाजवाद-विरोधी मूल्‍यों-मान्‍यताओं को जन्‍म देते रहते हैं। आम जनता के भीतर सदियों से जो वर्ग समाज जनित मूल्‍य और पूर्वाग्रह पैठे होते हैं, उन्‍हें जादू की छड़ी या डण्‍डे के ज़ोर से तुरत समाप्‍त नहीं किया जा सकता। इनके चलते समाज में भी पूँजीवादी पथगामियों का सामाजिक आधार मौज़ूद रहता है। समाजवाद की इन समस्‍याओं पर 1917 से लेकर 1976 तक (चीन में समाजवाद की पराजय तक) चिन्‍तन मनन और प्रयोग चलते रहे । इतिहास में इस नयी सामाजिक क्रान्ति के सामने पहले से कोई नज़ीर मौज़ूद नहीं थी। इतिहास की यह त्रासद विडम्‍बना है कि ऐसी स्थिति में प्राय: (अनिवार्यत: नहीं) असफल होकर ही ज़रूरी शिक्षाएँ हासिल की जाती हैं। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बाद, उससे सबक लेकर, कई गलतियाँ और प्रयोग करते हुए, चीन में यह निष्‍कर्ष निकला कि समाजवादी संक्रमण के दौरान, उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के उन्‍नततर समाजवादी रूपों को लागू करते हुए, उत्‍पादक शक्तियों को लगातार विकसित करते हुए, अधिरचना के क्षेत्र में सतत् क्रान्ति पर सर्वोपरि ज़ोर देना होगा, अन्‍यथा समाजवाद को कम्‍युनिज्‍़म की दिशा में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता और पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना को रोका नहीं जा सकता। पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के इस ख़तरे की और समाजवाद की समस्‍याओं की चर्चा लेनिन ने भी की थी। मार्क्‍सवाद के किसी गम्‍भीर अध्‍येता के लिए बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की पराजय, दुखद चाहे जितनी हो, एकदम अप्रत्‍याशित नहीं थी। आज दुनिया में कोई समाजवादी देश नहीं बचा है। समाजवाद के समस्‍याओं के निदान की आम दिशा की समझ हासिल करने तक पहुँचते-पहुँचते चीन में भी वर्ग शक्ति संतुलन बदल चुका था और वहाँ भी 1976 से पूँजीवादी राह पर विपथगमन शुरू हो गया। लेकिन पूँजी और श्रम के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक महासमर का अभी पहला चक्र ही समाप्‍त हुआ है। इससे प्राप्‍त शिक्षाओं के साथ इस सदी में इस महासमर का दूसरा चक्र शुरू होना ही है (जो शायद निर्णायक भी हो) । बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पहले चक्र की पराजय मार्क्‍सवादी विचारधारा की पराजय नहीं है।
16) उदय प्रकाश जी, आपकी सारी समस्‍या यह है कि आप समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और उसकी समस्‍याओं-चुनौतियों के बारे में कुछ भी जाने-समझे बिना, उसे मानवता की सारी समस्‍याओं को चुटकी बजाते हल कर देने वाला ईश्‍वर समझते रहे और वह ईश्‍वर जब असफल हो गया तो आप मूल ईश्‍वर में शरण्‍य ढूँढने चल दिये। आप गहन संशय और निराशा में डूबकर यह फैसला देने लगे कि क्रान्तियाँ हमेशा 'लूट'ली जाती हैं और अंतत: व्‍यवस्‍था में उन्‍हीं का प्रभुत्‍व बना रहता है, जो पहले भी शासक थे। अत: नतीज़ा तो यही निकला कि क्रान्ति की हर कोशिश सिसिफस के निष्‍परिणामी उद्यम जैसा ही है। आप समाजवादी समाज का वर्ग विश्‍लेषण नहीं कर पाने के कारण पूँजीवादी पथगामियों के गुट के बजाय क्रान्ति के समूचे नेतृत्‍व पर ही यह आरोप लगाने लगे कि उसने सत्‍ता सम्‍हालने के बाद मार्क्‍स और लेनिन की विचारधारा को ''ठगी, निहित स्‍वार्थ, भ्रष्‍टाचार और झाँसे का औज़ार बना लिया।''भारत के संशोधनवादी कम्‍युनिस्‍टों के पतित आचरण और यहाँ के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन की विफलताओं (जिनके कारणों पर अलग से विस्‍तृत चर्चा की जा सकती है) के कारणों को भी आपने अपने सामान्‍यीकृत निष्‍कर्षों के फ्रेम में व्‍यवस्थित कर लिया। आपके निष्‍कर्षों को यदि मैं निराधार फतवों को नाम दूँ तो यह भला कैसे अनुचित होगा?
(17) त्रात्‍स्‍की और स्‍तालिन के बारे में आपकी सारी जानकारियाँ शीतयुद्ध काल में पश्चिम में लिखे गये इतिहास पर आधारित लगती हैं। इधर ग्रोवर फर सहित अमेरिका के ही कई इतिहासकार रूसी अभिलेखागार से प्राप्‍त नयी जानकारियों के आधार पर स्‍तालिनकाल के इतिहास का पुनर्लेखन कर रहे हैं। इसीलिए मैंने आपको ग्रोवर फर, लूडो मार्टेन्‍स और मारियो सूसा आदि को पढ़ने का तथा त्रात्‍स्‍की पर कोस्‍तास मावराकिस को पढ़ने का सुझाव दिया तो आप आहत हो गये। पढ़ने में बुराई क्‍या है? असहमत होने पर ख़ारिज कर दीजियेगा। नौकरशाही पर जिस त्रात्‍स्‍की को आपने उद्धृत किया है, वह स्‍वयं इतना बड़ा नौकरशाह था कि सत्‍ता में रहते समय (दसवीं कांग्रेस के समय) उसने ट्रेड यूनियन तक के राजकीयकरण का प्रस्‍ताव रखा था जिसका लेनिन ने पुरजोर विरोध किया था। पार्टी-नौकरशाहों के विरुद्ध संघर्ष चलाने के लिए स्‍तालिन स्‍वयं पार्टी के भीतर कितने सघन रूप में प्रयासरत थे, इस पर ग्रोवर फर का नये दस्‍तावेज़ी साक्ष्‍यों सहित लम्‍बा लेख उसकी वेबसाइट पर मौजूद है और 'कल्‍चरल लॉजिक'नामक ई-जर्नल में भी मौजूद है। इस पूरे दौर का इतिहास पुनर्विचार और पुनर्लेखन के दौर से गुज़र रहा है। निश्‍चय ही, स्‍तालिन 1930 के दशक में समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की उपस्थिति को समझने में विफल रहे (बाद में समझा) । निश्‍चय ही उस दौर में अर्थनीति और राजनीति के क्षेत्र में उत्‍पादक शक्तियों के विकास पर अधिक बल देने की अर्थवादी विच्‍युति और यांत्रिक भौतिकवादी विच्‍युति के चलते कई ग़लतियाँ हुई, पर ये प्रयोग की ग़लतियाँ थीं। कुछ अतिरेक भी हुए, पर इनके लिए पार्टी मशीनरी और राज्‍य तंत्र की किसी हद तक ग़लत कार्यप्रणाली की जगह व्‍यक्ति के तौर पर स्‍तालिन को ज़िम्‍मेदार मानना और उन्‍हें ''हत्‍यारा''और ''तानाशाह''तक कह देना शीतयुद्धकालीन पाश्‍चात्‍य इतिहास लेखन और सतत् मीडिया प्रचार जनित पूर्वाग्रह के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है। आज प्रमाणित तथ्‍य इस बहुप्रचारित धारणा के कत्‍तई पक्ष में नहीं है। यह कोई अंधपक्षधरता नहीं है। आगे कभी समय मिलने पर, इस प्रश्‍न पर अपने ब्‍लॉग पर विस्‍तार से लिखूँगी।
(18) आपका एक सूत्रीकरण यह भी है कि 'भारत में इस समय तीन ही आइडियोलॉजी सचमुच कार्यशील हैं : जातिवाद, साम्‍प्रदायिकता और भ्रष्‍टाचार ।'भ्रष्‍टाचार तो ख़ैर अपने आप में कोई ऑडियोलॉजी नहीं है, वह पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे का ही एक अनिवार्य उपोत्‍पाद है जो नवउदारवाद के दौर में नग्‍नतम और वीभत्‍सतम हो चुका है। जहाँ तक जातिवाद का सवाल है, आज जाति व्‍यवस्‍था के ढाँचे और मूल्‍यों को पूँजीवादी तंत्र ने सहयोजित (कोऑप्‍ट) और उत्‍सादित (सब्‍लेट) कर लिया है। यह एक पूँजीवादी जाति-व्‍यवस्‍था है और इसके विरुद्ध संघर्ष की रणनीति भी इसके चरित्रांकन से ही तय होगी। जहाँ तक साम्‍प्रदायिकता का सवाल है, साम्‍प्रदायिक फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में इस देश में काफी पहले से मौज़ूद रहा है। 1990 के दशक से आजतक इसकी बढ़ती आक्रामकता और फैलते सामाजिक आधार का बुनियादी कारण आर्थिक कट्टरपंथ (नवउदारवाद) और पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट में देखे जाने चाहिए, जिनके दबाव के चलते रहा-सहा बुर्ज़ुआ जनवाद भी छीजता-सिकुड़ता जा रहा है। इसका एक दूसरा कारण मज़दूर आंदोलन का बिखरना और पीछे जाना है। साम्‍प्रदायिक फासीवाद का नया सामाजिक आधार शहरों के कारपोरेट कल्‍चर में रचे-पगे मध्‍यवर्गीय युवाओं, कुलीन मज़दूरों और गाँवों के पूँजीवादी मालिक किसानों के अतिरिक्‍त,उत्‍पादन की प्रक्रिया से अंशत: या पूर्णत: बाहर कर दी गयी उस ''अतिरिक्‍त''मज़दूर आबादी में तैयार हुआ है जो विमानवीकरण और लम्‍पटीकरण का शिकार है। पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान यदि तैयार नहीं होगा तो लाजिमी तौर पर उसका फासीवादी समाधान सामने आयेगा। बहरहाल, यह अपने आप में एक लेख का विषय है। आप यदि मार्क्‍सवादी ढंग से इन परिघटनाओं का सामाजिकार्थिक विश्‍लेषण नहीं करेंगे तो सारसंग्रहवादी ढंग से इन्‍हें गिनाने और इनको लेकर हवा में कुछ धिक्‍कार और नसीहतें उछालने या रोने-बिसूरने के अतिरिक्‍त आपके पास कहने को कोई ठोस बात नहीं होगी, कोई ठोस 'ऑपरेटिव पार्ट'नहीं होगा आपकी सारी बातों का।

साधो, ये मुरदों का गाँव ! (2)

$
0
0

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी



(पूर्व प्रकाशित टिप्‍पणी में एक विश्‍लेषणपरक अंश जोड़ना बाद में ज़रूरी लगा।  उसे पोस्‍ट कर रही हूँ।-कविता)





भारतीय बुद्धिजीवियों के इस विश्‍वासघात की त्रासद गाथा पिछली लगभग आधी सदी के दौरान एक-एक सर्ग करके लिखी गयी है। इसके अंतिम सर्ग की रचना 1990 से लेकर अबतक जारी है।
दरअसल भारतीय बौद्धिक मानस की निर्मिति एक औपनिवेशिक-सामंती संरचना में हुई थी। यह न तो यूरोप की तरह 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति'की प्रक्रिया में संघटित हुई थी,न ही इसने रूस की तरह विलंबित गति से चलती हुई बेलिंस्‍की-हर्जन-चेर्निशेव्‍स्‍कीके क्रान्तिकारी जनवाद तक और पुश्किन-लर्मन्‍तोव-गोगोल-तुर्गनेव-तोल्‍स्‍तोय-चेखवके यथार्थवाद तक की यात्रा तय की थी। औपनिवेशिक संरचना के भीतर जो मरियल वैचारिक आधार और सीमित 'जनसंगऊष्‍मा'वाली राष्‍ट्रीय जनवादी चेतना विकसित हुई,यह वर्ग उसका बीसवीं शताब्‍दी में वाहक बनकर विचार,राजनीति और साहित्‍य-कला की परिधियों में सक्रिय हुआ। उस समय भी,इसकी चेतना राष्‍ट्रीय अधिक थी और जनवादी कम। उसमें अनैतिहासिक अतीतोन्‍मुखता थी,धार्मिक प्रतिछायाएँ थीं और जुझारू भौतिकवादी तर्कणा का अभाव था। हाँ,राधामोहन गो‍कुल,राहुल सांकृत्‍यायन,भगतसिंहआदि जैसे कुछ अपवाद ज़रूर गिनाये जा सकते हैं। मज़दूर आंदोलनों क उभार और अक्‍टूबर क्रान्ति के प्रभाव में बुद्धिजीवी वर्ग का जो हिस्‍सा वैज्ञानिक समाजवाद से जुड़ा,उसकी वैचारिकी की तमाम कमज़ोरियों और उनकी त्रासद परिणतियों की जड़ भी मूलत: भारतीय बौद्धिक मानस की निर्मिति की वस्‍तुगत ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही निहित थी। स्‍वतंत्रता-प्राप्ति के बाद,राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के बुर्ज़ुंआ नेतृत्‍व के नायकत्‍व को खण्डित होते और गौरव को पराभूत होते ज्‍यादा समय नहीं लगा। पचास और साठ के दशक में,इसी का परिणाम था कि भारतीय मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का बड़ा हिस्‍सा पलायनवाद,अस्तित्‍ववाद से लेकर सर्वनिषेधवाद और अंधविद्रोहवाद तक की यात्रा करता रहा या फिर अपने मध्‍यवर्गीय जीवन के सुखों-दुखों और त्रासदियों-विडम्‍बनाओं में शुतुर्मुगी ढंग से गर्दन धँसाये रहा। तेलंगाना संघर्ष की पराजय और फिर सोवियत संघ में ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के आविर्भाव के बाद,विचार और साहित्‍य-कला के क्षेत्र में वाम धारा पृष्‍ठभूमि में चली गयी थी। प्रतिक्रिया के बुर्ज से शीतयुद्ध की गोलंदाजी के दौर में,मुक्तिबोध, अमरकान्‍त नागार्जुन,त्रिलोचन,शमशेर,केदार,यशपाल,भैरव प्रसाद गुप्‍त,शेखर जोशी,मार्कण्‍डेयआदि-आदि साहित्‍य की दुनिया में सक्रिय तो थे,पर चर्चा के विषय नहीं थे और अलग-अलग सीमाओं में उनकी सर्जना के  अपने अन्‍तरविरोध भी थे।
1967 का नक्‍सलबाड़ी जन-उभार कई मायनों में एक नया प्रस्‍थान-बिन्‍दु बनकर सामने आया। मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों की एक नयी पीढ़ी 'रैडिकलाइज़'होकर वाम-प्रभाव में आयी। आगे चलकर,अपनी विचारधारात्‍मक कमज़ोरी,वाम दुस्‍साहसवादी विचलन और भारतीय समाज के सही मूल्‍यांकन के अभाव (चीनी क्रान्ति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति) के चलते नक्‍सलबाड़ी उभार से पैदा हुई क्रान्तिकारी वामधारा भले ही बिखर गयी हो,लेकिन विचार और साहित्‍य-कला की दुनिया में प्रगतिशील-जनवादी धारा को निश्‍चय ही इसने नया संवेग प्रदान किया। एक छोटा सा दौर था जब अतिवाम के प्रभाव में साहित्‍य में यांत्रिक नारेबाजी का भटकाव ज़ोरों पर था,पर उस उबाल के शांत होते ही अच्‍छा वामपंथी साहित्‍य सामने आया। नक्‍सलबाड़ी के  बाद वाम उभार का दौर व्‍यापक था। यह केवल नक्‍सलबाड़ी धारा से घोषित प्रतिबद्धता वाले दायरे तक ही सीमित नहीं था। लेकिन 1990 का दशक भारतीय वाम की वैचारिकी और कला-साहित्‍य की दुनिया में भी 'ग्‍लास्‍नोस्‍त पेरोस्‍त्रोइका'का दौर लेकर आया। वामपंथी साहित्‍य की दुनिया में भी नवरूपवादी प्रवृत्तियों ने तेजी से प्रभाव-विस्‍तार की शुरुआत की। विचारों की कंगाली और जनजीवन से कटाव के चलते साहित्‍य साहित्‍य में पैदा हुई एकरसता और रिक्‍तता की भरमाई बारीक़ रेशमी कतान और जादुई चमत्‍कारों  से करने की प्रवृत्ति पैदा हुई।
राजनीतिक प्रभावों से भी कहीं अधिक इसके लिए वस्‍तुगत सामाजिकार्थिक परिवर्तन ज़ि‍म्‍मेदार थे। 1980 के दशक तक क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए,तीसरी दुनिया की अगली कतार के अन्‍य उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों की ही तरह,भारतीय समाज भी पूँजीवादी विकास के एक ऐसे दौर के संतृप्ति-बिन्‍दु तक पहुँच चुका था,जहाँ आयात-प्रतिस्‍थापन औद्यो‍गीकरण (इम्‍पोर्ट-सब्‍स्‍टीट्यूशन इण्‍डस्ट्रियलाइजेशन) और राजकीय पूँजीवाद की नीतियाँ,अपनी ज़रूरी भूमिका निभाने के बाद,आगे के पूँजीवादी विकास के रास्‍ते में सापेक्षिक अवरोधक भूमिका निभाने लगी थीं। इसी की तार्किक परिणति 1990 के दशक में नवउदारवाद के दौर के रूप में सामने आयी। उदारी‍करण-निजीकरण का दौर भारतीय पूँजीपति वर्ग की (एकजुट पश्चिमी साम्राज्‍यवादी दबाव के आगे झुकने की) विवशता भी थी और अपने आन्‍तरिक दबावों से पैदा हुई ज़रूरत भी।
यूँ कहें कि बुर्ज़ुआ दायरे में राष्‍ट्रीय जनवाद के कार्यभारों का जिस हद तक और जिस रूप में पूरा होना सम्‍भव था,वह क्रमश: होते जाने के साथ ही मध्‍यवर्ग का विभेदीकरण तीखा होता चला गया,उसका एक हिस्‍सा बुर्ज़ुआ ढाँचे में व्‍यवस्थित होकर व्‍यवस्‍था का मुखर या परोक्ष पक्षधर होता चला गया और पूँजी  के सामाजिक आधार के विस्‍तार के साथ ही यह हिस्‍सा समानुपातिक रूप से बड़ा भी होता चला गया। 1980 के दशक तक प्रोफेसर,पत्रकार,वकील,डॉक्‍टर,इंजीनियर,नौकरशाह और वित्‍तीय क्षेत्र,सेवा क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों की संख्‍या और खुशहाली में भी भारी बढ़ोत्‍तरी हुई थी। वामपंथी बुद्धिजीवियों को ही लें तो उनमें से अधिकांश का जीवन-स्तर काफी ऊँचा हो गया था,जबकि मज़दूरों के जीवन स्‍तर में कोई बदलाव नहीं आया था। वाम राजनीति के कमज़ोर और अनुष्‍ठानिक होते जाने से इन बुद्धिजीवियों की सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी भी कम हुई थी,इनके जीवन में कुर्बानी और अनुशासन का पहलू भी क्षरित हुआ था और कैरियरवाद तथा भौतिक तरक्‍क़ी की ख्‍़वाहिशों के चलते अवसरवादी घटियापन भी बढ़ता चला गया था।
दरअसल बुर्ज़ुआ राष्‍ट्रीय जनवादी कार्यभारों के मूलत: और मुख्‍यत: पूरा होने के बाद,भारतीय मध्‍यवर्ग के लिए राष्‍ट्रवाद की अब सकारात्‍मक प्रासंगिकता नहीं रह गयी थी (1990 का दशक आते-आते उसका बड़ा हिस्‍सा राष्‍ट्रवाद के नाम पर या तो अंधराष्‍ट्रवाद का अनुयायी हो चुका था या ''स्‍वदेशी''टाइप पुनरुत्‍थानवाद का या फिर फासिस्‍ट हिन्‍दुत्‍ववादी ''राष्‍ट्रवाद''का)। जहाँ तक जनवाद का सवाल था,खाते-पीते मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों को आम मेहनतक़श आबादी की अपेक्षा वह काफी हासिल था और वह उतने से संतुष्‍ट था। मुख्‍य सामाजिक अन्‍तरविरोध अब पूँजी और श्रम के बीच था,और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुरूप,शहरी (ज्‍यादातर महानगरीय) मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का बहुलांश पूँजी के पाले में खड़ा हो गया था,यथास्थिति के पक्ष में खड़ा हो चुका था। ऊपर वर्णित राजनीतिक परिदृश्‍य के आत्‍मगत प्रभाव के अतिरिक्‍त इस वस्‍तुगत यथार्थ का भी यह नतीज़ा था कि वामपंथी दायरे में भी साहित्यिक सर्जना के स्‍तर पर नवरूपवाद और जीवन के स्‍तर पर घटिया अवसरवाद का घटाटोप छा गया।

नवउदारवाद के गुज़रे तेईस वर्षों में अकादमिक जगत,मीडिया,तकनी‍की क्षेत्र,प्रबंधन और वित्‍तीय क्षेत्र में कार्यरत खुशहाल मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों की सामाजिक परत का काफी विस्‍तार हुआ है। आप वामपंथी बुद्धिजीवियों-साहित्‍यकारों को ही लें। ज्‍़यादातर प्रोफेसर,नौकरशाह,मीडियाकर्मी और अच्‍छी आय वाले स्‍वतंत्र पेशेवर हैं। ये वामपंथी साहित्‍य रचते हैं,जनवादी अधिकार पर धरना-प्रदर्शन के अनुष्‍ठान भी करते हैं,पर ज़ि‍न्‍दगी पर कोई जोखि़म तो दूर,अपनी सुविधाओं की कटौती का रंचमात्र ख़तरा भी मोल लेने तक के लिए तैयार नहीं हैं। ये सभी बौद्धिक बनारसी गलियों के छुट्टे आवारा साँड़ हैं। इनकी ज़ि‍न्‍दगी ही ऐसी है कि इन्‍हें बौद्धिक धुरीविहीन आवारगी और सामाजिक सरोकार विहीन शब्‍द-चातुरी के उत्‍तरआधुनिक विचार (सबआल्‍टर्न इतिहासदृष्टि,आइडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स,उत्‍तर-मार्क्‍सवादी नारीवाद आदि-आदि भी इसी प्रवर्ग में आ जाते हैं) बहुत रास आते हैं। क्रान्तियों के ''महाख्‍यानों''को ख़ारिज करते हुए और विखण्डित सामाजिक आन्‍दोलनों तथा क्षुद्र विमर्शों का ''जश्‍न''मनाते हुए ये सभी लोग  पूँजीवाद के विचारधारात्‍मक मोर्चे के सेनानी की भूमिका निभाने के साथ ही पूँजीवादी तंत्र के सामाजिक अवलम्‍ब के रूप में अपनी भूमिका को भी 'जस्टिफाई'कर रहे होते हैं और अपनी ज़ि‍न्‍दगी की बर्बर जनविमुख खुशहाली को भी। इनमें सबसे घृणित और शातिर जमात उनकी है,जो सृजनकर्म में वाम के साथ उत्‍तरआधुनिक नवरूपवाद का समागम कराते हैं तथा जीवन में सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों में घुसकर चौधरियों की भूमिका निभाते हैं या पद-पीठ-पुरस्‍कारों की मलाई चाटते हैं। ये आपस में भी कभी साँप-नेवले की तरह घात लगाते हैं तो कभी कुत्‍तों की तरह लड़ते हैं,पर यदि आप कहीं से इनकी चादर उघाड़ने का काम करेंगे तो ये सभी एकजुट होकर आपके विरुद्ध खुले युद्ध,शीतयुद्ध या तरह-तरह की षड्यंत्रकारी दुरभिसंधियों में लिप्‍त हो जायेंगे। कुछ ऐसे भी हैं,जो साहित्‍य में घुस पाने की छोटी-सी चाहत,नासमझी या भोलेपन के कारण अनजाने ही इन षड्यंत्रकारी दुष्‍चक्रों के हिस्‍सा बन जाते हैं। 'जलसा' (सं. - असद ज़ैदी) के पहले अंक में प्रकाशित अपनी डायरी के अंश 'कल जो हमने बातें की थीं'में मनमोहनने एक बहुत ही सटीक बात लिखी है : ''किसी भी कुटिल परियोजना को सफल बनाने में बहुत सेप्रतिभाशाली,शरीफ़,भले और भोले लोगों का योगदान रहता है।''स्थिति सचमुच ही बहुत चिन्‍तापूर्ण है,और चुनौतीपूर्ण है,और चिन्‍तन योग्‍य भी। 

इक्‍कीसवीं सदी की सच्‍चाइयाँ और अक्‍टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

$
0
0
(सोवियत समाजवादी क्रान्ति की 96वीं वर्षगाँठ के अवसर पर)


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


96वर्ष का समय बीत चुका है जब विकसित पश्चिम और पिछड़े पूरब के पुल पर खड़े एक देश में, धरती के  अभागों ने स्‍वर्ग पर धावा बोला था। वे स्‍वर्ग से आग चुराकर धरती पर लाने नहीं गये थे। उनका उद्देश्‍य था जीयस के शाप से प्रोमेथियस को मुक्‍त करना और स्‍वर्ग पर कब्‍ज़ा जमाकर धरती और स्‍वर्ग को एक बना देना। देवताओं को उन्‍होंने पराजित किया और तेजी से अपने उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए आगे क़दम बढ़ाये। लेकिन उनकी वह पहली विजय स्‍थायी न बन सकी। धरती और स्‍वर्ग का फ़ासला अभी मिटाया ही जा रहा था कि देवताओं ने फिर से अपनी सत्‍ता पुनर्स्‍थापित कर ली। धरती के अभागों को फिर अंधकार में धकेल दिया गया। प्रोमेथियस को फिर चट्टान से जकड़ दिया गया। लेकिन स्‍वर्ग पर पहला धावा कोई अंतिम धावा नहीं था। प्रोमेथियस का अंत भी देवताओं के वश में नहीं है।
अक्‍टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्‍तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिख़र गयी हैं। उनकी हिरावल टुकडि़याँ तैयार नहीं है, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दीख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज़ कमज़ोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्‍दी समाजवादी क्रान्यिों के पहले प्रयोगों की और राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्‍दी थी। इक्‍कीसवीं शताब्‍दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्‍दी है।  विकल्‍प दो ही हैं -- या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्‍वी पर यदि पूँजी का  वर्चस्‍व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अंधी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्‍वी का पर्यावरण मनुष्‍य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लंबी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्‍तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्‍वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक- आर्थिक व्‍यवस्‍था भौतिक सम्‍पदा के साथ-साथ बहुसंख्‍यक जनों के लिए रौरव नर्क़ का जीवन, सांस्‍कृतिक-आत्मिक रिक्‍तता-रुग्‍णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्‍य रच रही है, उसे नष्‍ट करके एक न्‍यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्‍य के बीच के द्वंद्व को सही  ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्‍यवस्‍था स्‍थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण  एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्‍यवस्‍था के उस 'कण्‍ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्‍ड रेग्‍यूलेटिंग टॉवर'को, जिसे राज्‍यसत्‍ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्‍टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्‍करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

पूँजी और श्रम के बीच ऐतिहासिक विश्‍व महासमर डेढ़ सौ वर्षों से भी अधिक समय से जारी है। इस दीर्घकालिक युद्ध में सर्वहारा वर्ग ने कई  दमकते मील के पत्‍थरों के साथ तीन महान कीर्तिस्‍तम्‍भ स्‍थापित किये -- 1871 का पेरिस कम्‍यून, अक्‍टूबर 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति और 1966-76 की चीनी महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति।हर क्रान्ति अपने आप में महान, मौलिक और गौरवशाली होती है, लेकिन ये तीन क्रान्तियाँ प्रवृत्ति-निर्धारक और पथान्‍वेषी क्रान्तियाँ थीं।
1871 का पेरिस कम्‍यून वीर कम्‍यूनार्डों के नेतृत्‍व में हुई पहली सर्वहारा क्रान्ति थी। पेरिस में पहली मज़दूर सत्‍ता मात्र 72 दिनों तक ही क़ायम रह सकी, लेकिन इसका समाहार करते हुए मार्क्‍स-एंगेल्‍सने सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान में महत्‍वपूर्ण इज़ाफ़े किये। उन्‍होंने यह निष्‍कर्ष निकाला कि सर्वहारा वर्ग अपनी लक्ष्‍यपूर्ति के लिए राज्‍य की बनी-बनायी मशीनरी का इस्‍तेमाल नहीं कर सकता। उसे पुरानी राज्‍य मशीनरी का ध्‍वंस करके अपनी नयी राज्‍य मशीनरी -- सर्वहारा अधिनायकत्‍व स्‍थापित करनी होगी। पेरिस कम्‍यून की पराजय का एक मूल कारण यह भी था कि उसे नेतृत्‍व देने के लिए मार्क्‍सवादी विज्ञान से निर्देशित सर्वहारा वर्ग की कोई हरावल पार्टी उस समय मौज़ूद नहीं थी।
ऐसी हरावल पार्टी की, उसके निर्माण एवं गठन की तथा उसकी कार्यप्रणाली की अवधारणा सर्वप्रथम, सांगोपांग रूप मेंलेनिन ने विकसित की। लेनिन के नेतृत्‍व में बोल्‍शेविक पार्टी ने लगातार विविध संशोधनवादी-अर्थवादी-अंधराष्‍ट्रवादी विजातीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष किया। साम्राज्‍यवाद की सांगोपांग विवेचना करते हुए लेनिन ने बताया कि पूँजी की वैश्विक इजारेदारी की नयी अवस्‍था में क्रान्तियों के तूफ़ानों का केन्‍द्र विकसित पश्चिम से पिछड़े पूरब में स्‍थानांतरित हो चुका है और पिछड़े, औपनिवेशिक-अर्धऔपनिवेशिक देशों की राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्तियाँ भी अब विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की कड़ी बन चुकी हैं। लेनिन ने जनवादी क्रान्ति में कम्‍युनिस्‍ट भागीदारी के रणकौशलों को भी पहली बार सूत्रबद्ध किया। रूस में जनवादी क्रान्ति के तत्‍काल बाद अक्‍टूबर में बोल्‍शेविकों ने समाजवादी क्रान्ति सम्‍पन्‍न की और पेरिस कम्‍यून के वारिस के रूप में सोवियत सत्‍ता अस्तित्‍व में आयी।
गृहयुद्ध के संकट, साम्राज्‍यवादी आक्रमण, अकाल-भुखमरी आदि अकथनीय आपदाओं को  झेलते हुए भी सोवियत संघ में समाजवादी ने आगे डग भरे। भूमि और उद्योगों का राष्‍ट्रीकरण कर दिया गया। शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, आवास जैसी नागरिकों की बुनियादी ज़ि‍म्‍मेदारियों को पूरा करना राज्‍य का बुनियादी दायित्‍व हो गया। लेनिन अपनी आखिरी साँस तक समाजवादी संक्रमण के दीर्घकालिक, रणनीतिक, नीतिगत और वैचारिक प्रश्‍नों से जूझते रहे, सर्वहारा सत्‍तातंत्र और पार्टी तंत्र में पैदा हुई नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्ज़ुआ विरूपताओं को चिन्हित करते रहे तथा पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के ख़तरे के मूल स्रोतों की शिनाख्‍़त करते रहे। उन्‍होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि एक कठोर सर्वहारा अधिनायकत्‍व (जो इतिहास की सर्वाधिक जनवादी सत्‍ता भी थी) के बिना समाजवाद क़ायम नहीं रह सकता  और जनवादी केन्‍द्रीयता पर क़ायम एक सुगठित फ़ौलादी पार्टी के नेतृत्‍व के बिना सर्वहारा अधिनायकत्‍व का बने रहना भी असंभव होगा।
अक्‍टूबर क्रान्ति के तोपों के धमाकों ने दुनिया भर के राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों को भी नया संवेग दिया। साथ ही, एशिया, लातिन अमेरिका और अरब अफ्रीका के अधिकांश देशों में कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के गठन की प्रक्रिया तेज़ हो गयी। कम्‍युनिस्‍टों के अन्‍तरराष्‍ट्रीय मंच के रूप में तीसरा इण्‍टरनेशनल अस्तित्‍व में आया।
लेनिन की मृत्‍यु के बाद,स्‍तालिनकाल में, इतिहास में पहली बार, दुनिया स्‍वामित्‍व के रूपों के समाजवादी रूपांतरण की साक्षी बनी। इसी दौरान समाजवादी संक्रमण की समस्‍याओं के कुछ ऐसे ठोस रूप और नये आयाम सामने आये, जो लेनिन के जीवन काल में स्‍पष्‍ट नहीं हुए थे। स्‍वामित्‍व के रूपों में समाजवादी रूपां‍तरण के बाद समूचे उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों और अधिरचना के रूपांतरण की समस्‍याओं की समझ या तो आंशिक बनी या बन ही नहीं सकी। समाजवादी समाज में तीन अन्‍तरवैयक्तिक असमानताओं से पैदा होने वाले बुर्ज़ुआ अधिकारों , मूल्‍य के नियमों की मौजूदगी और अधिरचना के सतत् क्रान्तिकारीकरण के प्रश्‍न को यांत्रिक भौतिकवादी दार्शनिक विचलन के कारण पूरी तरह से समझा नहीं जा  सका और फलत: समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की प्रकृति एवं प्रक्रिया की सुसंगत सैद्धान्तिक समझदारी नहीं बन सकी। इसके चलते, पार्टी और राज्‍य के तंत्र में बुर्ज़ुआ तत्‍व पनपते रहे और समाज में उनका आधार विस्‍तारित होता रहा। इसी की चरम  परिणति स्‍तालिन की मृत्‍यु के  बाद, ख्रुश्‍चेव के नेतृत्‍व में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के रूप में सामने आयी। इस त्रासदी के बावजूद, यह इतिहास का तथ्‍य है कि स्‍तालिन के जीवन-काल में सोवियत संघ में उत्‍पादक शक्‍तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ और जनता के जीवनस्‍तर में चमत्‍कारी उठान देखने को मिली। फ़ासिज्‍़म को पराजित कर पूरी दुनिया को बर्बरता के प्रकोप से बचाने के साथ ही भूमण्‍डल के अधिकांश भाग पर क्रान्ति के प्रवाह को आगे बढ़ाने  में सोवियत संघ ने महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी।
माओ त्‍से-तुंगने अर्द्धसामन्‍ती-अर्द्धऔपनिवेशिक समाज में क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करते हुए दीर्घकालिक लोकयुद्ध की सामरिक रणनीति  तैयार की, जिसे सफलतापूर्वक लागू करते हुए 1949 में चीन की नवजनवादी क्रान्ति सम्‍पन्‍न हुई और फिर वहाँ भी समाजवाद  की संक्रमण-यात्रा की शुरुआत हुई। एक बेहद पिछड़ा देश और किसानी समाज होने के कारण चीन में समाजवादी संक्रमण की वि‍शिष्‍ट और गम्‍भीर समस्‍याएँ थीं। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बाद किसी भी तरह की बाहरी समाजवादी सहायता से वंचित चीन और भी गहन-गम्‍भीर समस्‍याओं से घिर गया। इन हालात में समाजवादी प्रयोगों को जारी रखते हुए, चीन की पार्टी से कई सैद्धान्तिक और व्‍यावहारिक चूकें हुईं, विजातीय प्रवृत्तियों की शिनाख्‍़त करने और उनके विरुद्ध खुला संघर्ष छेड़ने में (जैसे कि ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के विरुद्ध) कई बार देर भी हुई तथा कई मामलों में विश्‍व-परिस्थितियों के ग़लत मूल्‍यांकन से अन्‍तरराष्‍ट्रीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में विभ्रम भी फैले। पर महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि माओ के नेतृत्‍व में पार्टी अपनी ग़लतियों को प्राय: ठीक करते हुए, देर से ही सही, लेकिन सही नतीजों पर पहुँचती रही। सोवियत संघ और चीन के समाजवादी संक्रमण की समस्‍याओं का अध्‍ययन करते हुए तथा ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना की परिघटना को समझते हुए माओ ने इस सन्‍दर्भ में लेनिन के चिन्‍तन की छूटे हुए सिरे को पकड़ा और समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष के नियमों का सूत्रीकरण किया। उन्‍होंने स्‍पष्‍ट किया कि समाजवादी संक्रमण की लम्‍बी अवधि के दौरान वर्ग संघर्ष पूर्वापेक्षा अधिक जटिल और दुर्द्धर्ष रूप में जारी रहेगा और लम्‍बे समय तक पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का ख़तरा बना रहेगा। माओ ने बताया कि उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के सतत् उन्‍नत स्‍तर के समाजवादी रूपांतरण के साथ ही अधिरचना का भी सतत् क्रान्तिकारी रूपांतरण जारी रखना होगा। उत्‍पादन की प्रगति, वैज्ञानिक प्रयोग और वर्ग-संघर्ष -- समाजवादी के ये तीन बुनियादी कार्यभार होंगे, लेकिन इनमें से कुंजीभूत कड़ी की भूमिका वर्ग-संघर्ष की ही होगी। संक्षेप में, यही था सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्‍व के अन्‍तर्गत सतत् क्रान्ति का सिद्धान्‍त, विशेषकर अधिरचना में सतत् क्रान्ति का सिद्धान्‍त, जो 1966-76 की पहली महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति के दौरान अमल में आया। अपने ढंग की यह पहली क्रान्ति पथान्‍वेषी और प्रवृत्ति-निर्धारक क्रान्ति थी, अत: स्‍वभावत: इसमें अनगढ़ता थी, इसमें कई भूलें भी हुई, असंतुलन भी और अतिरेक भी।  परन्‍तु बुनियादी बात यह थी कि इसने समाजवादी संक्रमण की मूल गुत्‍थी को सुलझाने का तथा उसकी आम दिशा तय करने का काम किया। इसी अर्थ-सन्‍दर्भ में यह पेरिस कम्‍यून और अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की इतिहास यात्रा का तीसरा कीर्तिस्‍तम्‍भ थी।


उदात्‍त त्रासदियों का रचयिता महानतम कवि -- विश्‍व इतिहास अ‍त्‍यधिक द्वंद्ववादी है। सर्वहारा वर्ग जब अपनी वैचारिक समृद्धि के नये शिखर तक पहुँचा तो इसकी कीमत उसने अपने सभी मुक्‍त क्षेत्रों को खोकर चुकाई। समस्‍या की जड़ तक पहुँचने में चीन में जो समय लगा , उस समय तक वहाँ पूँजीवादी पथगामियों की जड़ें मजबूत हो चुकी थीं, वर्ग शक्ति-संतुलन बदल चुका था। 1976 में समाजवाद का अंतिम दुर्ग भी ढह गया।
आज दुनिया में न कोई समाजवादी देश है, न कोई अनुभवी पार्टी, न मान्‍य अन्‍तरराष्‍ट्रीय नेतृत्‍व और न  ही कम्‍युनिस्‍टों का कोई अन्‍तरराष्‍ट्रीय मंच। और ठीक यही वह काल रहा है जब विश्‍व पूँजीवाद की संरचना, कार्यप्रणाली और उसके संकट की प्रकृति में बुनियादी बदलाव आये हैं। वास्‍तविक अर्थव्‍यवस्‍था पर परजीवी, अनुत्‍पादक वित्‍तीय अल्‍पतंत्र की अभूतपूर्व निर्णायक जकड़बन्‍दी (लेनिन के समय से भी कई गुना अधिक) स्‍थापित हुई है। नये राष्‍ट्रपारीय (ट्रांसनेशनल) निगमों में पूँजी निर्यात, अधिशेष विनियोजन और विश्‍वबाजार  पर प्रभुत्‍व के नये-नये तौर-तरीके ईजाद किये हैं। उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों का दौर  बीत चुका है, संरक्षित बाजारों की जगह पूरी दुनिया साम्राज्‍यवादी पूँजी की पैठ और होड़ के लिए खुली पड़ी है। उत्‍पादक शक्तियों के विकास के स्‍तर के हिसाब से विश्‍व स्‍तर पर निचोड़े गये अधिशेष में अलग-अलग देशों की पूँजीपतियों की हिस्‍सेदारी तय हो रही है। इस संस्‍तरीकरण में सबसे नीचे तीसरी दुनिया के देशों पूँजीपति बैठे हैं। यह 'एंपायर विदाउट कालोनी'वाली दुनिया की नयी सच्‍चाई है। विश्‍व स्‍तर पर पूँजी का प्रवाह अधिकतम  सम्‍भव निर्बन्‍ध हो चला है। राष्‍ट्र-राज्‍यों की भूमिका बदल गयी है। विश्‍व बाजार में देश विशेष की पूँजी का हित साधन करने के अतिरिक्‍त राज्‍य का मुख्‍य काम श्रम को नियोजित-नियंत्रित करना हो गया है। 'फोर्डिस्‍ट असेम्‍बली लाइन'और 'टेलर सिस्‍टम मैनेजमेण्‍ट'का समय मुख्‍यत: बीत चुका है। स्‍वचालन की नयी प्रविधियों ने असेम्‍बली लाइन को विखंडित करके सिर्फ एक देश के भीतर ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में छोटे-छोटे वर्कशापों में बिखेर देना सम्भव बना दिया है। इस तरह एक 'अदृश्‍य'भूमण्‍डलीय असेम्‍बली लाइन'अस्तित्‍व में आयी है। इससे बिखरी हुई सर्वहारा आबादी की संगठित शक्ति को तोड़कर, उसका अनौपचारिकीकरण करके, उससे ज्‍यादा से ज्‍यादा अधिशेष निचोड़ना सम्‍भव हो गया है। दुनिया के अधिकांश उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में, सत्‍तारूढ़ होने के बाद वहाँ के देशी बुर्ज़ुआ वर्ग का चरित्र बदला है। अब वह समेकित होकर विश्‍वपूँजीवादी तंत्र में साम्राज्‍यवादी शक्तियों का 'जूनियर पार्टनर'बन गया है। साम्राज्‍यवादी देशों से सौदेबाजी में वह तरह-तरह से उनके अन्‍तरविरोधों का लाभ उठाता है, लेकिन सम्‍पूर्णता में उसने सभी साम्राज्‍यवादी शक्तियों के कनिष्‍ठ साझीदार और मातहतों की भूमिका के वस्‍तुगत यथार्थ को स्‍वीकार कर लिया है। कमोबेश, सभी उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में विगत करीब आधी सदी के दौरान विकास की क्रमिक मंथर प्रक्रिया ('प्रशियाई मार्ग') से प्राक्पूँजीवादी भूमि-सम्‍बन्‍ध मूलत: और मुख्‍यत: बदलकर पूँजीवादी हो गये हैं। पहली बार एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के सापेक्ष्‍ात: विकसित उत्‍पादक शक्तियों वाले देश साम्राज्‍यवाद विरोधी, पूँजीवाद विरोधी -- यानी एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति के दौर में प्रविष्‍ट हो चुके हैं।
चूँकि दुनिया भर में मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी संगठन और ग्रुप आज गतिरोध और विपर्यय के इस अभूतपूर्व दौर में बिखरे हुए हैं, अपरिपक्‍व हैं तथा विचारधारात्‍मक रूप से कमजोर और अनुभवहीन हैं, इसलिए आज की दुनिया की इन नयी सच्‍चाइयों को समझने की जगह वे कोमिण्‍टर्न से  लेकर आधी सदी पहले 1963 में चीन की पार्टी द्वारा विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा विषयक उस सूत्रीकरण पर ही अडिग हैं कि तीसरी दुनिया के सभी देश अभी भी नवउपनिवेश या अर्द्धउपनिवेश हैं और यहाँ अगर होगी तो नवजनवादी क्रान्ति ही होगी। उनके लिए दुनिया आधी सदी पहले से ठहरी खड़ी है। वे उपनिवेशों-नवउपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों की मौजूदगी को साम्राज्‍यवादी की बुनियादी अभिलाक्षणिकता मानते हैं। यह सूत्रीकरण लेनिन के बजाय साम्राज्‍यवाद-विषयक काउत्‍सकी और रोज़ा लक्‍ज़ेमबर्ग के सूत्रीकरण के निकट है।
बीसवीं शताब्‍दी की सर्वहारा क्रान्तियों की पीठ पर इतिहास के छूटे हुए कार्यभार -- राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति  को पूरा करने का अवांक्षित ऐतिहासिक कार्यभार लदा  हुआ था। यह कार्यभार पूरा करते-करते विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट कतारों में जैसे यह जड़ धारणा घर कर गयी कि जबतक साम्राज्‍यवाद रहेगा, उपनिवेश-अर्द्धउपनिवेश या नवउपनिवेश बने ही रहेंगे ('प्रशियाई मार्ग'से क्रमिक पूँजीवादी रूपांतरण को वे समझते ही नहीं) और विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति के 'हॉट स्‍पॉट्स'में सर्वहारा क्रान्तियों को अनिवार्यत: दो मंजिलों से (पहले राष्‍ट्रीय जनवादी क्रान्ति, फिर समाजवादी क्रान्ति) गुज़रना ही होगा।
समस्‍या यह है कि मार्क्‍सवादी विज्ञान का यदि गहन अध्‍ययन न हो तो ठोस परिस्थितियों का विश्‍लेषण कर पाने की अक्षमता के चलते व्‍यक्ति या संगठन बने-बनाये फार्मूलों को ही ध्रुवसत्‍य मानकार बने-बनाये कार्यक्रम-प्रारूप के साँचे में जिन्‍दगी की नयी सच्‍चाइयों को ठूँस-ठाँसकर फिट करने की कोशिश करते रहते हैं। यही जड़सूत्रवाद है। आज दुनिया के और हमारे देश के ज्‍यादातर कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी 1963 में माओ की पार्टी द्वारा विश्‍व-परिस्थितियों का जो विश्‍लेषण किया, उसे ही आज की दुनिया पर लागू करना चाहते हैं और थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ 1949 की चीनी नवजनवादी क्रान्ति जैसी ही क्रान्ति करना चाहते हैं। इस जड़ समझ को लिए हुए वे प्राय: कुछ रुटीनी कार्यवाइयाँ करते रहते हैं, ग़लत वर्ग-संश्रय को लागू करने की कोशिश में (विशेषकर किसानी के सवाल पर) वस्‍तुगत तौर पर सर्वहारा हितों के विरोध में जा खड़े होते रहे हैं, या फिर, छापामार युद्ध और मुक्‍त क्षेत्र बनाने की लाइन लागू करने की कोशिश में देश के कुछ पिछड़े आदिवासी क्षेत्रों में जाकर ''वाम''दुस्‍साहसवादी लाइन को लागू करने की कोशिश करते रहते हैं। परिस्थितियों के आकलन विषयक माओ त्‍से-तुंग  की समझ को ये सभी लोग  विचारधारात्‍मक महत्‍व का दर्जा देते हैं, जबकि महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के रूप में जो उनका विचारधारात्‍मक अवदान है, उसे निहायत सतही ढंग से समझते हैं।
इस जड़सूत्रवादी धारा के दूसरे ध्रुवांत पर ''मुक्‍त चिन्‍तन''का एक ज्‍यादा ख़तरनाक भटकाव हमारे देश और पूरी दुनिया के कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी शिविर में पैदा हुआ है। कुछ लोग समाजवादी के पराजय के वस्‍तुगत और आत्‍मगत कारणों को गम्‍भीरता से समझे बिना अतीत की क्रान्तियों की बुनियादी शिक्षाओं को ही सिरे से खारिज करके नये-नये सूत्रीकरण देने में लग गये हैं। बुनियादी तौर पर वे सर्वहारा वर्ग की पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा और सर्वहारा अधिनायकत्‍व की लेनिन द्वारा प्रस्‍तुत तथा माओकाल तक विकसित समझ को ही निहायत सतही तरीकेसे ढीला कर रहे हैं और खारिज कर रहे हैं। अकादमिक मार्क्‍सवाद के प्रभाव में ऐसे लोग वर्ग, पार्टी और  राज्‍य के अन्‍तर्सम्‍बन्‍धों के बारे में अक्‍टूबर क्रान्ति की सारी शिक्षाओं पर लीपापोती कर रहे हैं और लेनिन के बजाय 'वर्कर्स अपोजीशन', मात्तिक, पान्‍नेकोएक आदि 'काउंसिल कम्‍युनिस्‍टों'की अवस्थिति अपना रहे हैं। निहायत हेगेलियन  ढंग से, आत्‍मगत पहलू पर अतिशय बल देते हुए इनमें से कई यह सवाल उठाते हैं कि सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति ने यदि समाजवादी की समस्‍याओं को हल प्रस्‍तुत किया तो फिर चीन में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना क्‍यों हो गयी? और फिर वे उस  प्रयोग के दौरान हुई ग़लतियों-विचलनों की गणना में प्रोफेसरों के समान तल्‍लीन  हो जाते हैं। दरअसल, ऐसे लोग कुछ राजनीतिक नौदौलतिये हैं जो माओ के ''उत्‍तराधिकारी''के स्‍थान ग्रहण करने के लिए व्‍यग्र हैं। नेपाल में प्रचण्‍ड और भट्टराई जैसे लोग हवाई अतिमौलिक ''अवदानों''से मार्क्‍सवाद को समृद्ध करने  की कोशिश में संशोधनावादी सीवर में जा गिरे। अमेरिका के क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी  के बड़बोले नेता बॉब अवॉकिएन विश्‍व क्रान्ति का सिद्धान्‍तकार बनने के चक्‍कर में जोकर और अर्द्धविक्षिप्‍त प्रलापी की स्थिति में जा पहुँचे हैं। भारत में भी 'मार्क्‍िसस्‍ट इंटेलेक्‍शन'पत्रिका निकालने वाली एक धारा है जो बोल्‍शेविक पार्टी, सर्वहारा अधिनायकत्‍व आदि की लेनिनवादी अवधारणाओं को ठीक करने के चक्‍कर में एक ख़तरनाक विसर्जनवादी अंधी घाटी की ओर बौद्धिक स्‍कीइंग कर रही है। लंबे समय की जड़सूत्रवादी समझ और रुटीनी अमल  से थके-हारे पराजय-बोध से ग्रस्‍त कुछ कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी ग्रुपों और व्‍यक्तियों को ये ''मुक्‍त चिन्‍तक''सम्‍मोहित या आ‍कर्षित भी कर रहे हैं।
सारी स्थिति का समाहार करते हुए कहा जा सकता है कि असाध्‍य ढाँचागत संकट से ग्रस्‍त पूँजीवाद पृथ्‍वी पर यहाँ-वहाँ लगातातर क्रान्तिकारी परिस्थितियों को जन्‍म दे रहा है, लेकिन अपनी विचारधारात्‍मक कमजोरी और नयी वस्‍तुगत परिस्थितियाँ को नहीं समझ पाने के कारण चूँकि सर्वहारा वर्ग की हरावल शक्ति कहीं भी संगठित नहीं है, इसलिए क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ क्रा‍न्तियों में रूपांतरित नहीं हो पा रही हैं (और आने वाले दिनों में जल्‍दी इसकी सम्‍भावना भी नहीं है)। क्रान्तिकारी वस्‍तुगत परिस्थितियों के साथ क्रान्तिकारी आत्‍मगत शक्तियाँ तैयार हों तभी क्रान्ति की सम्‍भावनाएँ उत्‍पन्‍न हो सकती हैं, लेनिन ने बार-बार इस बात पर बल दिया था और अक्‍टूबर क्रान्ति की यह बुनियादी शिक्षा है।  


अक्‍टूबर क्रान्ति से शुरू होने वाली बीसवीं शताब्‍दी की सर्वहारा क्रान्तियों की लहर 'ट्रेण्‍डसेटर'और 'पाथब्रेकिंग'क्रान्तियों की लहर थी, लेकिन यह अपने दिक्-काल की ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकी। अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद स्‍थापित समाजवाद  विशिष्‍ट, आपातस्थितियों में क़ायम समाजवाद था जो दो महायुद्धों, गृहयुद्ध, भुखमरी आदि को झेलकर कामयाब रहा और  समाजवाद की व्‍यावहारिकता का प्रायोगिक सत्‍यापन करने में सफल रहा। पर वह कम्‍युनिज्‍़म की ओर अग्रवर्ती संक्रमण का दिशा-संधान करने में विफल  रहा। वह पूँजीवाद पर विश्‍व ऐतिहासिक प्रहार नहीं कर सका। अक्‍टूबर क्रान्ति की उत्‍तराधिकारी सर्वहारा क्रान्तियाँ पिछड़े, किसानी समाजों की जटिल समस्‍याग्रस्‍त क्रान्तियाँ थीं जिन्‍हें पहले राष्‍ट्रीय जनवाद का कार्यभार पूरा करना पड़ा। इससे इनके रंगमंचों पर वर्ग संघर्ष जटिल हो गया। आज की दुनिया में ज्‍यादातर पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी वस्‍तुगत तौर पर अक्‍टूबर क्रान्ति से उन्‍नत समाजवादी क्रान्ति की ज़मीन तैयार है। पूँजी और श्रम की शक्तियाँ आमने-सामने खड़ी हैं। ध्रुवीकरण तीखा होता जा रहा है। प्राक्पूँजीवादी अवशेषों की चौहद्दी सि‍कुड़ती जा रही है। अक्‍टूबर क्रान्ति और उसके बाद के समाजवादी निर्माण के अनुभवों का वैभव हमारी विरासत है। पेरिस कम्‍यून से लेकर सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति तक के अनुभवों की सम्‍पदा हमारी धरोहर है।   इस अनुभव सम्‍पदा का आलोचनात्‍मक अध्‍ययन करके, उसका आसवन (डिस्टिलेशन) करके श्रम और पूँजी के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक महासमर के दूसरे चक्र के लिए ज़रूरी सबक़ हासिल करने होंगे और सामने मौजूद नयी ठोस परिस्थितियों के विश्‍लेषण के लिए अपनी दृष्टि कुशाग्र बनानी होगी।
आज के समय में पार्टी-निर्माण के काम को नये सिरे से हाथ में लेते हुए अक्‍टूबर क्रान्ति की जिस सर्वप्रमुख शिक्षा पर बल देना होगा वह यह है कि जनवादी केन्‍द्रीयता की कार्यविधि पर काम करने वाली, इस्‍पाती साँचे-खाँचे में ढली सर्वहारा वर्ग की हरावल पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा और मज़दूर वर्ग के संघर्षों के नेता, शिक्षक,  मार्गदर्शक की उसकी भूमिका विषयक लेनिनवादी समझ पर अडिग रहने की आज सर्वोपरि आवश्‍यकता है। जो ऐसा नहीं करता वह विसर्जनवादी के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है। साथ ही, जो भी व्‍यक्ति सर्वहारा अधिनायकत्‍व के सोवियत समाजवादी जनवाद वाले स्‍वरूप को किसी भी रूप में तनु(डाइल्‍यूट) करता है, वह बुर्ज़ुआ जनवादी विभ्रमों का शिकार निम्‍नपूँजीवादी फिलिस्‍टाइन है। ऐसे लोग सच्‍चे लेनिनवादी कतार कत्‍तई नहीं तैयार कर सकते। इक्‍कीसवीं शताब्‍दी की नयी सर्वहारा क्रान्ति अक्‍टूबर क्रान्ति के महाकाव्‍य का पुनर्मुद्रण मात्र नहीं होंगी। वे उनका संशोधित एवं परिवर्द्धित नया संस्‍करण होंगी। लेकिन आधार तो हमेशा वह मूल संस्‍करण ही होगा, जिसके बिना किसी नये संशोधित-परिवर्द्धित संस्‍करण की कल्‍पना तक नहीं की जा सकती है।

पूँजीवाद के चाक़ दामन के रफूगरों के बारे में कुछ बातें

$
0
0

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


अन्‍य संसदीय पार्टियों के साथ ही, अब केजरीवाल का घोषणापत्र आ गया है। पंद्रह दिनों में जनलोकपाल, मुफ्त पानी, आधी कीमत पर बिजली -- शहरी मध्‍यवर्ग के लिए ढेरों लोकलुभावन वायदे! मगर ऊपर से नीचे तक नेताशाही और नौकरशाही पर निगरानी रखने वाले जनलोकपाल का विराट नौकरशाही तंत्र भला भ्रष्‍ट क्‍यों नहीं हो सकता। नौकरशाही तंत्र को नेताशाही से स्‍वायत्‍त करने का मतलब यह हुआ कि अफसर नेताओं से कम भ्रष्‍ट है (या दबाव  उनसे भ्रष्‍टाचार कराता है)। यहाँ केजरीवाल का वर्ग-भाईचारा बोल रहा है। उच्‍च मध्‍यवर्ग के अफसर नेताओं से कम भ्रष्‍ट और जनविरोधी नहीं है। नौकरशाही राज्‍यसत्‍ता की रीढ़ है, नेता तो आते-जाते रहते हैं। नेता और अफसर मिलकर पूँजी की सेवा करते हैं और लूट एवं शोषण के तंत्र में भ्रष्‍टाचार की जो रक़म उनकी जेबों में जाती है, वह मज़दूरों से निचोड़े गये अधिशेष का ही एक भाग होता है। नेताओं को बुरा बताकर जो नौकरशाही को खुले हाथ देने की बात करता है, वह रहे-सहे बुर्ज़ुआ जनवाद को भी नगण्‍य बनाकर पूँजी के नग्‍न-निरंकुश सर्वसत्‍तावाद का पैरोकार है।
केजरीवाल  नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर कुछ नहीं बोलते। वे साम्राज्‍यवादी लूट, भारतीय पूँजीपतियों की अंधेरगर्दी पर, राष्‍ट्रीयताओं के संघर्षों के तथा जनसंघर्षों के दमन पर कुछ नहीं बोलते। वे श्रम कानूनों की निरर्थकता और मज़दूरों के उन जनवादी अधिकारों के अपहरण पर भी नहीं बोलते, जो संविधान और क़ानून की किताबों से बाहर ही नहीं आ पाते। केजरीवाल यह क्‍यों नहीं बोलते कि सभी लोगों को समान स्‍तर की शिक्षा और समान स्‍तर की स्‍वास्‍थ्‍य सेवा मुहैया कराने के लिए सभी प्राइवेट स्‍वास्‍थ्‍य संस्‍‍थानों और शिक्षा संस्‍थानों का राष्‍ट्रीयकरण कर दिया जाना चाहिए? केजरीवाल जैसे लोकलुभावन नारों के फेरीवाले इसी व्‍यवस्‍था के चाक़ दामन को सिलने वाले रफूगर हैं, उसके चोंगे पर लगे ख़ून और गंदगी के धब्‍बों को साफ करने वाले ड्राई-क्‍लीनर हैं। इन्‍हें पूँजीवाद का नाश नहीं, ''भ्रष्‍टाचार मुक्‍त पूँजीवाद''चाहिए जो ग्‍यारह टाँग वाले घोड़े जैसा ही एक अजूबा है।
भ्रष्‍टाचार मुक्‍त पूँजीवाद असंभव है। पूँजीवाद स्‍वयं में ही भ्रष्‍टाचार है। सफेद धन के साथ काला धन भी पैदा होगा ही। पूँजीपति कर-चोरी करेंगे ही, आपसी होड़ के चलते वे नेताओं-अफसरों को घूस देंगे ही। और जहाँ तक नेताओं-अफसरों की बात है, तो लुटेरों के वेतनभोगी कर्मचारियों से सदाचारी होने की उम्‍मीद भला कैसे की जा सकती है?
सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है। नौकरशाही पूँजीवादी उत्‍पादन एवं विनिमय की मशीनरी के सुचारु संचालन की देख-रेख करती है। संसद मात्र बहसबाजी का अड्डा है। न्‍यायपालिका धन‍पतियों के आपसी विवादों में पंच की भूमिका निभाती है और अमीरों-ग़रीबों या  लुटेरों-कमेंरों के बीच के विवादों में संविधान क़ानून के प्राधिकार की धौंस दिखाकर अमीरों-लुटेरों का हितसाधन करती है। अपनी छवि बनाये रखने के लिए कुछ मामलों में वह मालिक वर्गों को भी नियंत्रित करती है। वह पूँजीवादी दुर्ग का 'नाइट वाचमैन'है। सशस्‍त्र बल असली चीज़ है जो कभी-कभी दमन और ज्‍़यादातर आतंक के दम पर उत्‍पीड़ि‍तों को नियंत्रित करता है और पूँजी के तंत्र की हिफ़ाजत करता है। पूँजीपतियों और उनकी राज्‍यसत्‍ता के स्‍वामित्‍व एवं नियंत्रण वाला बुर्ज़ुआ मीडिया जन समुदाय पर बुर्ज़ुआ वर्ग का वैचारिक-राजनीतिक-सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व स्‍थापित करता है, उसके दिमाग़ को अनुकूलित करता है कि वह बुर्ज़ुआ शासन को स्‍वीकार कर ले, क्‍योंकि उसके पास दूसरा कोई भी व्‍यावहारिक या बेहतर विकल्‍प नहीं है।
मूल बात पूरी व्‍यवस्‍था के ढाँचे और कार्यप्रणाली को समझने-समझाने की है, साम्राज्‍यवादी-पूँजीवादी शोषण के तौर-तरीक़ों को समझने-समझाने की है और इसके क्रान्तिकारी विकल्‍प के बारे में समझने-समझाने की है। सुधारवाद के चिप्‍पड़ों-पैबन्‍दों से कुछ नहीं होगा। नाँगनाथ-साँपनाथ में से किसी एक को चुनने के पाँच साला खेल से कुछ नहीं होगा। आप कहेंगे, यह तो दूर की बात है, व्‍यवस्‍था अभी इतनी जल्‍दी कहाँ बदलने जा रही है? यानी यदि सही, न्‍यायोचित लक्ष्‍य तक पहुँचने का रास्‍ता लम्‍बा और कठिन हो, तो आप ग़लत के खेल में साझीदार बने रहेंगे, या निष्क्रिय मूकदर्शक बने रहेंगे। याद रखिये, दूरियाँ तय करने से ही घटती हैं और सौ मील लम्‍बी यात्रा की शुरुआत भी एक डग भरकर ही की जाती है।

कला-दीर्घा : गैली कोर्झेव की पेंटिंग 'रेज़िंग द बैनर

$
0
0
कला-दीर्घा
..................................



'रेज़िंग द बैनर'नाम की यह प्रसिद्ध पेंटिंग रूसी चित्रकार गैली कोर्झेव ने 1957-60 के दरमियान बनायी गयी थी और यह कोर्झेव के त्रिफलक चित्र'क्‍म्‍युनिस्‍ट्स'का हिस्‍सा है। 

कॉमरेड दोन किहोते

$
0
0



मनबहकी लाल

(मनबहकी लाल की एक और राजनीतिक व्‍यंग्‍य कविता पढ़ि‍ये और राजनीतिक नौदोलतिये शेखचिल्लियों पर जी खोलकर हँसिए। यह कविता भी मज़दूर अख़बार 'बिगुल'में दस-बारह वर्षों पहले छपी थी। -कविता कृष्‍णपल्‍लवी)

दोन किहोते उतर पड़ा है पॉलिमिक्‍स के मैदान में।
गत्‍ते की तलवार भाँजता, शत्रु-दलन-अभियान में।

सिर पुरखों का जूता मानो नेपोलियन टोप है।
गोले हों फुसफुसे भले ही, क्‍या चंगेज़ी तोप है।
लिल्‍ली घोड़ी पर सवार, फूला अकड़ा है शान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...

'क्‍या न करें', 'क्‍या करें' -- बताता लेनिन के अन्‍दाज़ में।
नये-नये मुल्‍ले को मिलता खूब स्‍वाद है प्‍याज़ में।
भले आँख में पानी आवे, सन-सन होवे कान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...

ऐसे-ऐसे नारे देगा ऐसे मंत्र उचारेगा।
अबतक जो न हुआ वो सबकुछ छनभर में कर डालेगा।
चुटिया बाँध के पिला हुआ है गहरे अनुसन्‍धान में।
दोन किहोते उतर पड़ा हैं...

चिन्‍ता है दिन-रात की नाम आवे कैसे इतिहास में।
सर्टिफिकेट भी परम्‍परा के वारिस का हो पास में।
लोहा माने दुनिया फिर साष्‍टांग करे सम्‍मान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...

बोधिज्ञान कुछ देर से मिला इसीलिए हड़बड़ में है।
'ये कर डालें; वो कर डाले' -- दिल-दिमाग़ गड़बड़ में है।
इन्‍क़लाब का केन्‍द्र बने तो जान आवे फिर जान में।
दोन किहोते उतर पड़ा है...

ज्ञान-धुरी जो समझ रहा वो कठमुल्‍लों का खूँटा है।
हाथी समझे है खुद को, लेकिन बौराया च्‍यूँटा है।
परम सत्‍य का महकउवा तम्‍बाकू डाले पान में
दोन किहोते उतर पड़ा है...






राजधानी के शापित जन और उनकी कविता

$
0
0

बेहद थोड़े सामानों, ढेरों आशंकाओं
और लगभग नाउम्‍मीदियों जितनी उम्‍मीदों के  साथ,
पूरब से आने वाली रेलगाडि़यों में लदे-फदे आते हैं
दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले लोग
राजधानी के स्‍वर्ग में,
अपनी उजड़ी हुई दुनिया पीछे छोड़कर।
अपनी थोड़ी-सी ज़रूरतों के बारे में ही सोचते हैं वे
और थोड़ी-सी ज़रूरत की चीज़ों के साथ
थोड़ी-सी जगह कहीं पाते हैं
कचरे के ढेरों, दौड़ते सुअरों, गँधाते नालों, गड्ढों, दलदलों और
रेल पटरियों के आसपास आबाद इंसानी बस्तियों में कहीं
जहाँ नेताओं और संतों के कुछ होर्डिंग्‍स
रंगों की उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं
और एन.जी.ओ के कुछ बोर्ड बताते हैं
कि दयालु धनवानों के पास उनके लिए भी हैं
कुछ सिक्‍के, कुछ जूठन, कुछ पैबन्‍द और कुछ सांत्‍वनाएँ।



दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले लोगों को
पता नहीं होता कि मंडी हाउस और इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर
और कॉफी हाउस में कुछ लोग कभी-कभार
उनकी भी बातें करते हैं, उनपर भी नाटक खेलते हैं, कविताएँ रचते हैं
और उनकी परेशानियों के आँकड़े गिनाते-गिनाते सेमिनारों में
पसीना-पसीना हो जाते हैं।
फिर आराम करने घर चले जाते हैं कि
कल फिर उनकी चिन्‍ता-फिक्र में जी हलकान कर सकें।
वे न्‍यूनतम मज़दूरी, काम के घण्‍टों और सेवा शर्तों के बारे में
जाने बिना, रोज़ दिहाड़ी पर या ठेके पर
दुनिया और उसकी ज़रूरत की चीज़े बनाते हैं
और मुआवज़े के क़ानूनों को जाने बिना
कारख़ाना दुर्घटनाओं में मर जाते हैं, आग की लपटों में फँसकर राख हो जाते हैं
या मेट्रो पिलर के लिए खोदे गये किसी गड्ढे में धँस जाते हैं।
राजधानी के लकदक इलाकों में
चमचमाते रहते हैं राष्‍ट्रीय ट्रेडयूनियनों के बोर्ड
जिनसे निकलते हैं समय-समय पर कुछ सौदागर गाड़ि‍यों में
टी.वी. पर किसी बहस में
राष्‍ट्रीय श्रम सम्‍मेलन में, या सौदेबाजी की किसी मीटिंग में हिस्‍सा लेने के लिए,
या सफेद कॉलरों की भीड़ में 'मज़दूर एकता ज़ि‍न्‍दाबाद'के नारों के बीच
माला पहन मंचासीन होने के लिए।
मार्क्‍स और लेनिन की तस्‍वीरें लटकाये
घूमते हैं बर्नस्‍टीन और काउत्‍सी के वंशज
और कुछ नौदौलतिये क्रान्तिकारी घोषणा कर देते हैं
कि मज़दूर बिना हिरावल के
ख़ुद ही अपनी मुक्ति का रास्‍ता निकाल लेंगे।
कुछ उतावले क्रान्तिकारी
विज्ञान को छुट्टी पर भेजकर,
करोड़ों उजरती ग़ुलामों को इंतजार करने के लिए कहकर
मालिक किसानों को लाभकारी मूल्‍य दिलवाने चले जाते हैं।
कुछ को बहुत जल्‍दी कर लेनी होती है
अपने हिस्‍से की क्रान्ति,
वे जंगलों की ओर प्रस्‍थान कर जाते हैं बंदूक लेकर
दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में ''मुक्‍त क्षेत्र''बनाने के लिए।



दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़े बनाने वाले लोग
नहीं जानते चिदम्‍बरम और मोंटेक सिंह आहलूवालिया के बारे में
वे नहीं जानते अन्‍तरराष्‍ट्रीय श्रम सम्‍मेलन की सिफ़ारिशों और सैकड़ों श्रम क़ा‍नूनों के बारे में।
वे बस इतना समझते हैं कि
जगमग स्‍वर्ग के तलघर में जो अँधेरा है
वह कुछ फुलझडि़याँ फ़ेंकने से दूर नहीं होगा।
उन्‍हें नहीं पता कि 'आप'पार्टी जैसी कोई पार्टी या कोई मसीहा भ्रष्‍टाचार कैसे मिटा देगा
और यदि मिटा भी दे किसी जादुई करतब से
तो पूँजी के राज्‍य का ख़ात्‍मा तो दूर,
क्‍या उन्‍हें मिल पायेंगे उनके बुनियादी अधिकार भी?
इसलिए हम कहना चाहते हैं संस्‍कृति के ठेकेदारों और दलालों से दो टूक की
विधाओं के शिल्‍प पर अन्‍तहीन बहसों से पहले
कला से पहली अपेक्षा मानवीय सरोकार की होनी चाहिए
कलाजगत के सट्टेबाज़ों, एक दिन आयेगा जब
तुम्‍हारे सट्टाबाज़ार पर ही ताला लटक जायेगा
और तुम्‍हें रेवड़ों की तरह हाँक दिया जायेगा
दुनिया की ज़रूरत की कुछ चीज़े बनाते हुए
ज़ि‍न्‍दगी और कला की तमीज़ सीखने के लिए।
लेकिन वह समय अभी दूर है
इसलिए अभी मस्‍त रहो
अपनी अन्‍तहीन बकवासों, आवारागर्दियों और  शराब की महफिलों में।
जितना हो सके कीचड़ उछालो उनपर
जो दुनिया और उसकी ज़रूरत की सारी चीज़ें बनाने वाले
लोगों की दुनिया को रौशन करने के बारे में
सोचते हैं और चींटियों-मधुमक्खियों की तरह सतत् उद्यमरत रहते हैं।




दुनिया और उसकी जुरूरत की सारी चीज़े बनाने वाले
जिन लोगों से छीन ली गयी  हैं पूरी तरह से
मानवीय जीवन-परिस्थितियाँ,
जिनका जीवन है मानवता की सादृश्‍यता तक से पूर्ण पृथक्‍करण,
जीवन की सारी परिस्थितियों का सर्वाधिक अमानवीय समाहार,
विद्रोह उनके जीने की शर्त है
और जिस ऐतिहासिक क्षति ने उन्‍हें स्‍वर्ग के अँधेरे तलघर का
शापित जीवन दिया है,
उसकी सैद्धान्तिक चेतना देना ही हो सकता है
कला और विचारों की दुनिया का सर्वोपरि फ़ौरी कार्यभार।
इससे अलग, सौन्‍दर्य शास्‍त्र की सारी चर्चाएँ
घोड़े की लीद हैं।
रवीन्‍द्र भवन, इण्डिया हैबिटेट सेण्‍टर, इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर, श्रीराम सेण्‍टर...
राजधानी के ये सारे भव्‍य सांस्‍कृतिक केन्‍द्र
कुत्‍तों के गू की ढेरी पर खड़े हैं।




दुनिया और उसकी ज़रूरत की तमाम चीज़े  बनाने वाले लोगों को, कम से कम आज,
ऐसी कविताओं की ज़रूरत है
जो धरती के अँधेरे गर्भ से
खनिजों को ढोकर लाने वाले वाहक पट्टे के डोलों के समान
वास्‍तविक जीवन के तमाम रहस्‍यों को
रोशनी में उलीच दें।
उन्‍हें गन्‍दी, मटमैली और
ज़‍न्‍िदगी की रुखड़ी सतह से रगड़ खाती, ताप पैदा करती
कविताओं की ज़रूरत है।
उन्‍हें झूठी उम्‍मीदों के झुनझुने बजाती कविताएँ
या लोकगीतों जैसे अतीत को शरण्‍य बनाती कविताएँ
या हर शेर की दो लाइनों में चौंक की फुलझड़ी छोड़ती ग़ज़लें नहीं चाहिए।
उन्‍हें विश्‍वासघातों, पराजयों, मायूसियों, संदेहों
आग्रहों, आघातों के बीच से लड़ती हुई आगे बढ़ती
ज़ि‍न्‍दगी जैसी कविताएँ चाहिए,
और साथ ही उन्‍हें अपने तरह-तरह की पेशों की हुनरमन्दियों जैसी
बारीक़ि‍यों और सुन्‍दरता की कविताएँ चाहिए
उन्‍हें ऐसी कविताएँ चाहिए
जो उनकी बस्तियों में
दांको के जलते हुए हृदय के समान दौड़ें
और जब गिरें भी तो
रोशनी के सैकड़ों टुकड़ों में बिख़र जाये,
उन्‍हें प्रोमेथियस द्वारा स्‍वर्ग से चुराकर
लाई गयी आग जैसी कविताएँ चाहिए
जो वही लिख सकता है
जो देवताओं का विकट कोप झेलने को तैयार हो।

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

डोर टू टुमॉरो

डयू ड्रॉप्‍स


Article 3

$
0
0




'क्रान्ति ज़ि‍न्‍दाबाद'! सारी सत्‍ता सोवियतों को!


                                  इराक्‍ली तोइद्जे की पेण्टिंग 'द काल ऑफ द लीडर' (1947)


पतन की पराकाष्‍ठा है!

$
0
0

पतन की पराकाष्‍ठा है! डोमाजी उस्‍ताद के साथ तमाम कविजनों-कलाविदों को मुक्तिबोध के काव्‍यनायक ने रात के अँधेरे में एक जुलूस में शामिल देख लिया था। आज दिनदहाड़े डोमाजी उस्‍ताद के साथ कथित प्रगतिशील सुधीजनों की महफिलें सज रही हैं।

कल दिल्‍ली कांस्‍टीट्यूशन क्‍लब में कुख्‍यात बाहुबली नेता पप्‍पू यादव उर्फ राजीव रंजन की आत्‍मकथा 'द्रोहकाल का पथिक'के विमोचन के अवसर पर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान और सपा नेता मुलायम सिंह यादव के साथ वामपंथी चिंतक-आलोचक नामवर सिंह भी मौजूद थे। सेक्‍युलर फिल्‍मकार मुजफ्फर अली भी मौजूद थे। सभागार में तो कई वामपंथी लेखक पत्रकार उपस्थित थे।

नामवर ने फरमाया कि 'पप्‍पू यादव जिगर वाले आदमी हैं जो चींटियों के डर से फूँक-फूँक कर कदम नहीं रखते।'दिवंगत राजेन्‍द्र यादव का संदेश उनकी सुपुत्री ने पढ़ा। पप्‍पू यादव ने अपने स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से एक बात कही जो काफी हद तक विरोधी स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से भी सही है। उन्‍होंने कहा, ''ये इण्‍टेलेक्‍चुअल देश को बर्बाद कर रहे हैं।''

ये पप्‍पू यादव बिहार के सीमांचल के पुराने बाहुबली हैं। माफिया सरदार से नेता बनने की इनकी पूरी कहानी उस इलाके के जन-जन को पता है। पूर्णिया के माकपा नेता अजित सरकार की हत्‍या के अभियुक्‍त रह चुके हैं। कभी ये लालू यादव के साथ थे। फिर अपनी पार्टी आइ.एफ.पी.डी. बनाई। इन दिनों कांग्रेस के साथ हैं। ये गुण्‍डे ही अब सेक्‍युलर राजनीति के ''मसीहा''हैं और राजनीति में पिछड़ों के उभार के ''प्रतीकपुरुष''हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कोई उनकी आत्‍मकथा को रूसो  की कृति 'कंफेशंस'जैसी महान ऐतिहासिक कृति घोषित कर दे।

साहित्‍य-कला में रीढ़वि‍हीन केंचुओं-कृमियों की बेशर्म मौक़ापरस्‍ती अपने सारे कीर्तिमान तोड़ रही है। अभी पिछले दिनों कवि केदार नाथ सिंह (नामवर के समधी भी हैं वे) मुलायम सिंह की सैफ़ई महोत्‍सव में जाकर उनकी शान में कसीदे पढ़ आये। उग्र हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ से सम्‍मानित होकर भी उदय प्रकाश कई सारे प्रगतिशीलों के घनिष्‍ठ बने हुए हैं। जो तत्‍काल विरोध करते हैं, वे भी बाद में हमप्‍याला-हमनिवाला हो जाते हैं। लीलाधर जुगाड़ी कभी उत्‍तराखण्‍ड के भाजपाई मुख्‍यमंत्री को पितातुल्‍य बता रहे थे, अब बहुगुणा सरकार की बाँध नीति के सबसे मुखर बौद्धिक पैरोकार बन बैठे हैं। शोध छात्रा के यौन उत्‍पीड़न के आरोपी अजय तिवारी (जिन्‍हें बचाने में उत्‍तरआधुनिकतावादी शब्‍दचपल चपड़चूँ सुधीश पचौरी की अहम भूमिका थी) अभी भी कुछ प्रगतिशील-वामपंथी आयोजनों और साहित्यिक पत्रिकाओं के पृष्‍ठों पर विराजमान दीखते  हैं। दशकों पहले केदारनाथ सिंह ने गुहा नियोगी की हत्‍या का षड्यंत्र रचने वाले पूँजीपतियों के संस्‍थान से पुरस्‍कार लिया था और वह बात लगभग भुलाई जा चुकी है। अभी पिछले दिनों प्रकाशित जे.एन.यू. विषयक अपने संस्‍मरण में उर्मिलेश ने नामवर और केदारनाथ सिंह के जातिवाद और विभागीय तिकड़मी राजनीति की चर्चा की है। कहाँ तक बयान किया जाये! 'हरि अनंत  हरिकथा अनंता।'

ये ग़लीज़ मौक़ापरस्‍त लोग प्रगतिशील साहित्‍य के शलाका पुरुष हैं। बहुतेरे युवा कवि-लेख़क इनसे आशीर्वाद लेने को आतुर रहते हैं। यही वे लोग हैं जो प्रगतिशीलता को कलंकित लांछित करते हैं और नवोदितों को भी भ्रष्‍टाचार और अवसरवाद के मलकुण्‍ड में घसीटकर सत्‍ताश्रयी बनाते रहने का काला धंधा करते हैं। 

सागर जैसा हृदय, आलोकित शिखरों जैसी मेधा, तूफ़ानों जैसा जीवन

$
0
0












कविता कृष्‍णपल्‍लवी


फ्रेडरिक एंगेल्‍स की स्‍मृति में (जन्‍मतिथि:28 नवम्‍बर,1820)


आज कार्ल मार्क्‍स के अनन्‍य मित्र फ्रे‍डरिक एंगेल्‍स का जन्‍मदिन है। वैज्ञानिक कम्‍युनिज्‍़म के सिद्धान्‍त -- द्वंद्वात्‍मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का प्रणयन करने में वे कार्ल मार्क्‍स के अनन्‍य सहयोगी थे। आधुनिक सर्वहारा के महान शिक्षकों में कार्ल मार्क्‍स के बाद उनका ही नाम आता है।

फ्रेडरिक एंगेल्‍स का जब 5 अगस्‍त 1895 को लंदन में देहान्‍त हुआ था तो लेनिन ने उन्‍हें श्रद्धांजलि देते हुए कवि नेक्रासोव की ये पंक्तियाँ उद्धृत की थीं: ''तर्क की कैसी मशाल बुझ गयी, कैसा हृदय हो गया स्‍पन्‍दनहीन!''  लेनिन के ही शब्‍दों में, ''कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स को जिस समय नियति ने साथ ला दिया उसके बाद से इन दोनों मित्रों ने अपना सारा जीवन एक ही सामान्‍य उद्देश्‍य की प्राप्ति के लिए अर्पित कर दिया।''

28 नवम्‍बर, 1838 को एंगेल्‍स जर्मनी के राइन प्रदेश के बार्मेन नगर में एक कारख़ानेदार के घर पैदा हुए। मार्क्‍स की ही भाँति युवावस्‍था में एंगेल्‍स भी हेगेल की दर्शन की ओर आकृष्‍ट हुए और फिर तरुण हेगेलपंथियों के वामपक्ष में शामिल हुए। उस ज़माने के सबसे विकसित पूँजीवादी देश इंग्‍लैण्‍ड में मतभेदी पिता की फ़र्म  में मुलाज़मत करते हुए एंगेल्‍स वहाँ के मज़दूर वर्ग के जीवन के निकट सम्‍पर्क में आये और पूँजीवादी उद्योगों की कार्यविधि का अध्‍ययन करने का उन्‍हें अवसर मिला। सुप्रसिद्ध चार्टिस्‍ट आंदोलन के भी निकट सम्‍पर्क में रहे।  इस अनुभव का परिणाम दो कृतियों के रूप में सामने आया: 'राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की समीक्षा का एक प्रयास'(1844) और 'इंगलैण्‍ड में मज़दूर वर्ग की दशा'(1845)। इन कृतियों में वैज्ञानिक भौतिकवादी आर्थिक विश्‍लेषण और सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन की सैद्धान्तिक नींव फ्रेडरिक एंगेल्‍स रखने लगे थे। तबतक मार्क्‍स भी अपने प्रारम्भिक अध्‍ययन और लेखन में हेगेलीय भाववाद और फ़ायरबाख़ीय यांत्रिक भौतिकवाद से टकराते हुए तथा पूँजीवादी समाज की गतिकी का अध्‍ययन करते हुए '1844 की दार्शनिक-आर्थिक पाण्‍डुलिपियाँ' के मुकाम तक पहुँच चुके थे। 1844 में पेरिस में मार्क्‍स और एंगेल्‍स की मुलाकात हुई। यह दो युगप्रवर्तक व्‍यक्तित्‍वों का ऐतिहासिक, अनन्‍य मित्रता की शुरुआत थी, इसकी नींव में उनके एकसमान विचार थे और पूँजीवादी दासता से सर्वहारा मुक्ति का वैचारिक संघर्ष था। इस महान मैत्री के बारे में लेनिन ने लिखा है: ''प्राचीन इतिहास में मित्रता के कितने ही हृदयस्‍पर्शी उदाहरण मिलते हैं। यूरोपीय सर्वहारा वर्ग कह सकता है कि उसके विज्ञान की रचना दो ऐसे विद्वानों और योद्धाओं ने की है जिनके पारस्‍परिक सम्‍बन्‍धों ने प्राचीन लोगों की मानवीय मैत्री की सर्वाधिक हृदयस्‍पर्शी गाथाओं को भी पीछे छोड़ दिया है।'' एंगेल्‍स की गहन भावप्रवणता और सहृदयता के बारे में लेनिन ने लिखा है: ''एंगेल्‍स सदा ही -- और आम तौर से, बिल्‍कुल सही ही -- अपने को मार्क्‍स के बाद रखते थे। अपने एक पुराने मित्र को उन्‍हानें लिखा था, 'मार्क्‍स के जीवनकाल में मैं हमेशा पूरक की भूमिका अदा करता था,'जीवित मार्क्‍स के प्रति उनका प्रेम और मृत मार्क्‍स के प्रति उनका सम्‍मान-भाव निस्‍सीम था। इस दृढ़ योद्धा और कठोर विचारक के अन्‍दर एक अत्‍यन्‍त प्रेमी आत्‍मा निवास करती थी।''  

1844-46 के बीच मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने एक साथ मिलकर 'पवित्र परिवार' और 'जर्मन विचारधारा' शीर्षक कृतियाँ लिखीं, जिनमें हेगेल और फ़ायरबाख़ के दार्शनिक विचारों की आलोचनात्‍मक पुनर्व्‍याख्‍या करते हुए द्ंवद्वात्‍मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के विकास के प्रा‍रम्भिक मंज़ि‍ल पूरी की गयी थीं। 1847 में एंगेल्‍स ने कम्‍युनिस्‍ट लीग के कार्यक्रम का एक मसौदा 'कम्‍युनिज्‍़म के सिद्धान्‍त' के रूप में तैयार किया। इसी आधार पर आगे चलकर मार्क्‍स ने और उन्‍होंने 'कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का घोषणपत्र' (1848) लिखा। 1848-49 में एंगेल्‍स ने जर्मनी में क्रान्तिकारी सैनिकों की ओर से युद्ध में प्रत्‍यक्षत: हिस्‍सा लिया। इसके बाद के प्रवासकाल के वर्षों में 'जर्मनी में किसान युद्ध' और 'जर्मनी में क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति' नामक पुस्‍तकें लिखकर जर्मन क्रान्ति के अनुभवों का सामान्‍यीकरण करते हुए बुर्ज़ुआ जनवादी क्रान्ति में मज़दूर किसान संश्रय की अवधारणा रखी तथा बुर्ज़ुआ वर्ग की गद्दारी को उजागर किया। इस समय तक मार्क्‍स इगलैण्‍ड में बस गये थे। एंगेल्‍स भी वहीं पहुँच गये। वहाँ दोनों ने पहले इण्‍टरनेशनल की स्‍थापना में अग्रणी भूमिका निभाई तथा मज़दूर आन्‍दोलन में व्‍याप्‍त निम्‍नपूँजीवादी अवसरवादी और अराजकतावादी विचारों के विरुद्ध तीखा संघर्ष चलाया।
1850 के दशक से लेकर 1870 तक एंगेल्‍स मैंचेस्‍टर में अपनी पहले वाली व्‍यावसायिक फ़र्म में ही नौकरी करते हुए लंदन में लगातार अभावों में जी रहे मार्क्‍स के परिवार को आर्थिक मदद भेजते रहे। हर रोज़ लिखे जाने वाले लम्‍बे पत्रों द्वारा दोनों मित्र आपस में जीवंत बौद्धिक सम्‍बन्‍ध बनाये रहे। यह एंगेल्‍स की बेमिसाल क़ुर्बानी भरी आर्थिक मदद थी, जिसके चलते मार्क्‍स और उनका परिवार जीवित रहा और 'पूँजी' के लेखन का महाउद्यम सम्‍पन्‍न होना सम्‍भव हो सका। 1870 तक एंगेल्‍स लंदन आ गये और फिर दोनों मित्रों का बेहद श्रमसाध्‍य संयुक्‍त बौद्धिक जीवन 1883 में मार्क्‍स का निधन होने तक लगातार चलता रहा। इस दौरान मार्क्‍स की 'पूँजी'खण्‍ड-एक की तैयारी, प्रकाशन और उसपर होने वाली बहसों में भागीदारी के अतिरिक्‍त एंगेल्‍स की भी कई छोटी-बड़ी रचनाएँ प्रकाशित हुईं। मार्क्‍स ने मुख्‍यत: अपना समय पूँजीवादी अर्थतंत्र की जटिल संरचना एवं कार्यविधि को समझने में लगाया। एंगेल्‍स ने प्राय: अपना ज्‍यादा समय खण्‍डन-मण्‍डनात्‍मक शैली या सीधी-सादी भाषा में अतीत और वर्तमान के विविध प्रश्‍नों पर ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रस्‍तुत करने और मार्क्‍स के आर्थिक सिद्धान्‍तों को व्‍याख्‍यायित करने में लगाया।

मार्क्‍स की मृत्‍यु ने 'पूँजी'की महाकाय परियोजना को अन्तिम रूप नहीं लेने दिया। मार्क्‍स अपने पीछे पूँजी खण्‍ड-2, खण्‍ड-3 और खण्‍ड-4 (जो चार खण्‍डों में 'थियरीज़ ऑफ सरप्‍लस वैल्‍यू'नाम से प्रकाशित है) की पाण्‍डुलिपियों का अम्‍बार छोड़ गये। एंगेल्‍स ने अपने मित्र की अमूल्‍य धरोहर के सम्‍पादन-प्रकाशन में अपना जीवन झोंक दिया। अंतिम साँस तक बिस्‍तर पर लेटे हुए भी वे यह काम करते रहे। 1885 में 'पूँजी'का दूसरा खण्‍ड और 1894 में तीसरा खण्‍ड प्रकाशित हुआ। आस्ट्रियाई सामाजिक जनवादी नेता एडलर ने बिलकल ठीक कहा था कि पूँजी के दूसरे-तीसरे खण्‍ड को प्रकाशित करके उस महान प्रतिभाशाली व्‍यक्ति की याद में, जो उनका मित्र था, एंगेल्‍स ने एक भव्‍य स्‍मारक खड़ा कर दिया था, एक ऐसा स्‍मारक जिसपर न चाहते हुए भी अपना नाम भी अमिट रूप से अंकित कर दिया है। सच पूछें तो 'पूँजी'के बाद के दो खण्‍ड मार्क्‍स और एंगेल्‍स दोनों की रचना है। चौथे खण्‍ड की पाण्‍डुलिपियों का सम्‍पादन एंगेल्‍स के निधन के कारण रुक गया। उनका सम्‍पादन कार्ल काउत्‍स्‍की ने किया, जिसमें कुछ त्रुटियाँ-कमियाँ और अवांक्षित व्‍याख्‍याएँ भी थीं। इन्‍हेंडेविड रियाज़ानोव के निदेशक रहते मास्‍को स्थित 'मार्क्‍स-एंगेल्‍स अध्‍ययन संस्‍थान'ने पुनरसम्‍पादित किया और प्रकाशित किया।

मार्क्‍सवादी दर्शन में एंगेल्‍स का अपना योगदान विशाल है। 'लुडविग फायरबाख़ और क्‍लासिकी जर्मन का अंत', 'ड्यूहरिंग मत-खण्‍डन', 'प्रकृति की द्वंद्वात्‍मकता' तथा '‍परिवार, निजी सम्‍पत्ति और राज्‍यसत्‍ता की उत्‍पत्ति' जैसी कृतियाँ मार्क्‍सवादी दर्शन के सार एवं महत्‍व की क्‍लासिकी प्रस्‍तुतियाँ हैं। एंगेल्‍स का बहुत बड़ा योगदान यह था कि द्वंद्वात्‍मक भौतिकवाद को उन्‍होंने प्राकृतिक विज्ञानों पर लागू किया। वर्ग, शोषण और जेण्‍डर-विभेद के नृतत्‍वशास्‍त्रीय मूल की उनकी विवेचना अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है। उनके सर्वतोमुखी ज्ञान ने उनके लिए पदार्थ की गति के वस्‍तुगत रूपों को विद्याओं के विभेदीकरण का आधार बनाते हुए विज्ञानों के वर्गीकरण की सामंजस्‍यपूर्ण प्रणाली का विशदीकरण करना सम्‍भव बनाया। दार्शनिक वाद-विवादों में, वैज्ञानिक और आर्थिक नियतत्‍ववाद तथा अज्ञेयवाद की आलोचना करते हुए एंगेल्‍स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की आधारभूत प्रस्‍थापनाओं का विकास किया।

मार्क्‍स की मृत्‍यु के बाद एंगेल्‍स अंतिम साँस तक यूरोप के समाजवादियों के शिक्षक, नेता और सलाहकार की भूमिका निभाते रहे। उल्‍लेखनीय है कि रूसी समाज और क्रान्तिकारी आंदोलन के गहन अध्‍येता एंगेल्‍स ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आसन्‍न रूसी क्रान्ति की भविष्‍यवाणी कर दी थी। उनका मानना था कि इस क्रान्ति से यूरोप की मज़दूर क्रान्तियों को भी नया संवेग मिलेगा। एक बात और महत्‍वपूर्ण है। फ्रेडरिक एंगेल्‍स बढ़ती इजारेदारी की प्रवृत्ति और वित्‍तीय पूँजी (बैंकिंग एवं सट्टाबाज़ार) की बढ़ती भूमिका को अपने अंतिम वर्षों में विश्‍वपूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आ रहे एक अहम बदलाव के रूप में देखने लगे थे। इसी प्रवृत्ति को आगे चलकर लेनिन ने अपनी अमर कृति 'साम्राज्‍यवाद -- पूँजीवाद की चरम अवस्‍था' में सूत्रबद्ध किया।

अपने मित्र कार्ल मार्क्‍स के गम्‍भीर और प्राय: अपने अध्‍ययनकक्ष और परिवार तक सिमटे रहने वाले स्‍वभाव के उलट, एंगेल्‍स ज़िंदादिल, हँसोड़ और गप्‍पबाज़ थे। उन्‍हें पार्टियाँ भी पसन्‍द थीं और लोमडि़यों का शिकार भी। सामरिक मामलों में उनकी विशेषज्ञताओं के चलते उनके दोस्‍त उनको 'जनरल'कहकर बुलाया करते थे। मैंचेस्‍टर में अपने प्रथम प्रवास के दौरान ही एंगेल्‍स का एक आयरिश मज़दूर लड़की मेरी बार्न्‍स से प्रेम हो गया था। एंगेल्‍स का यह प्रेम 1854 तक गुप्‍त रहा। फिर 1854 से खुले तौर पर वे मेरी के साथ 'लिव इन रिलेशन'में रहने लगे। मेरी बाद में अपनी बहन लिज्‍़जी के साथ मैंचेस्‍टर में बोर्डिंग हाउस चलाने का काम करने लगी थी। 1863 में मेरी की अचानक मृत्‍यु हो गयी। कुछ समय बाद एंगेल्‍स और लिज्‍़जी परस्‍पर प्रेम सम्‍बन्‍धों में बँध गये। 1870 में एंगेल्‍स लिज्‍़जी के साथ मैंचेस्‍टर से लंदन आ गये। वहाँ सितम्‍बर 1878 में लिज्‍़जी की मृत्‍यु तक दोनों जीवन साथी के रूप में साथ रहे। 5 अगस्‍त 1895 को एंगेल्‍स का लंदन में निधन हुआ। उनकी इच्‍छा के मुताबिक उनकी अस्थियाँ समुद्र में बिखेर दी गयीं।

दुनिया का मज़दूर वर्ग एंगेल्‍स के उदात्‍त शौर्यपूर्ण जीवन, मार्क्‍स के साथ  उनकी ग्रीक मिथकों जैसी मित्रता और उनके महान वैचारिक अवदानों पर हमेशा गर्व करता रहेगा। हम अपने 'जनरल'को कभी भुला नहीं सकते।

भगतसिंह की वैचारिक विरासत और हमारा समय

$
0
0











- यह पूरा लेख, भगतसिंह की तस्‍वीर और इस टिप्‍पणी के साथ- यह लेख 'भग‍तसिंह और उनके साथियों के सम्‍पूर्ण उपलब्‍ध दस्‍तावेज़(राहुल फाउण्‍डेशन,लखनऊ, सं. सत्‍यम वर्मा) के प्रथम संस्‍करण की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ था। -कविता कृष्‍णपल्‍लवी



''भगतसिंह पर ही इतना ज़ोर क्यों?'' - इतिहास के एक प्रतिष्ठित विद्वान ने पिछले दिनों पूछा। उनका कहना था कि देश के हालात आज इतने बदल चुके हैं कि भगतसिंह ने जो कुछ भी लिखा-सोचा और बयान दिया, वे आज हमारे लिए मार्गदर्शक नहीं हो सकते। फिर क्या यह महज़ भावनाओं, भावुकता या उत्तेजना के सहारे इतिहास-निर्माण का प्रयास नहीं है, क्या यह भी नायक-पूजा का एक उपक्रम नहीं है?
प्रश्न को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता था। अन्य प्रकाशनों और क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठनों को जाने दें, विगत एक दशक के दौरान भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण लेखों-वक्तव्यों-पत्रों को अलग-अलग, और संकलनों के रूप में, हम लोग लगातार छापते रहे हैं और भगतसिंह की दुर्लभ जेल नोटबुक को पहली बार हिन्दी में छापने और अब तक उसके कई संस्करण निकालने का काम भी हम लोगों ने ही किया। और अब यह पुस्तक - भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़। कहीं उक्त प्रोफेसर साहब का प्रश्न सही तो नहीं था? हम समझते हैं, उसी प्रश्न के उत्तर में इस पुस्तक के प्रकाशन का औचित्य-प्रतिपादन - इसके ऐतिहासिक महत्त्व और अनन्य उपयोगिता का तर्क निहित है।
यह सही है कि भगतसिंह और उनके साथियों के (और निस्सन्देह उनमें अग्रणी विचारक क्रान्तिकारी भगतसिंह ही थे) विचार-पक्ष के बारे में, देश के शिक्षित लोगों और युवा पीढ़ी के बीच अपरिचय-अज्ञान की एकदम वैसी स्थिति नहीं है जैसी आज से पच्चीस-तीस वर्षों पहले थी। भगतसिंह एक बेहद प्रतिभाशाली और अध्ययनशील क्रान्तिकारी थे, यह जानकारी तो उन्हें भी थी जिन लोगों ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशनमें भगतसिंह के साथ काम कर चुके क्रान्तिकारी जितेन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक भगतसिंहऔर शिव वर्मा, अजय घोष, भगवानदास माहौर, सदाशिव मलकापुरकर, यशपाल आदि साथियों के तथा सोहन सिंह जोश, राजाराम शास्त्री आदि समकालीनों के भगतसिंह विषयक संस्मरण पढ़े थे। गोपाल ठाकुर की एक छोटी-सी पुस्तिका भी पचास के दशक में ही प्रकाशित हो चुकी थी, जिसमें एच.एस.आर.ए. और नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र तथा अदालत में दिये गये बयानों के आधार पर भगतसिंह के गहन वैचारिक पक्ष और वैज्ञानिक समाजवाद की ओर उनके झुकाव के बारे में लिखा गया था। लेकिन उस समय भी नीचे से लेकर ऊपरी कक्षाओं तक की पाठ्यपुस्तकों और स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की सबसे स्थापित पुस्तकों में एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह व उनकी पीढ़ी के क्रान्तिकारियों का उल्लेख अति संक्षेप में, मात्र राष्ट्रवादी सशस्त्र क्रान्तिकारी धारा की एक कड़ी के रूप में ही होता था। एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारी और विशेषकर भगतसिंह किस प्रकार समाजवाद को आदर्श मानने के बाद वैज्ञानिक समाजवाद का गहन अध्ययन कर रहे थे और किसानों-मज़दूरों के व्यापक जन-संगठन खड़े करने के बारे में सोच रहे थे, इसका अकादमिक इतिहासकारों की पुस्तकों में उल्लेख तक नहीं होता था और चन्द-एक शोध-पत्रों और शोध-प्रबन्धों के अपवादों को छोड़ दें तो यही स्थिति कमोबेश आज भी बनी हुई है।
पहली बार, शताब्दी के आठवें दशक के प्रारम्भ में भगतसिंह की भतीजी वीरेन्द्र सिन्धु द्वारा सम्पादित भगतसिंह के पत्रों और दस्तावेज़ों का एक संकलन प्रकाशित हुआ, जिसने मात्र तेईस वर्ष की उम्र में शहीद हो जाने वाले उस वीर युवा के अपार सम्भावनासम्पन्न विचारक-पक्ष की एक झलक प्रस्तुत की। इसी के आसपास वीरेन्द्र सिन्धु द्वारा लिखी गयी भगतसिंह की एक महत्त्वपूर्ण जीवनी युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखेनाम से प्रकाशित हुई। आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही दिल्ली के कुछ युवा क्रान्तिकारी वामपन्थियों ने भगतसिंह के लेखों, बयानों, उद्धरणों का एक छोटा-सा संकलन निकालकर उनके द्वारा मार्क्‍सवाद को स्वीकार करने और उसका गहन अध्ययन करने का तथ्य रेखांकित किया। अब धीरे-धीरे मात्र एक वीर क्रान्तिकारीसे अलग भगतसिंह की छवि एक मेधावी, युवा क्रान्तिकारी विचारक के रूप में बनने लगी थी। जब इतिहासकार बिपनचन्द्र ने आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में भगतसिंह का तब तक अनुपलब्ध निबन्ध मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ अपनी भूमिका के साथ प्रकाशित किया तो उनके गहन और अकुण्ठ भौतिकवादी चिन्तन के नये आयाम और नयी गहराई की पहली बार लोगों को जानकारी मिली। भगतसिंह का एक और लेख ड्रीमलैण्ड की भूमिकापहले वीरेन्द्र सिन्धु सम्पादित दस्तावेज़ों के संकलन में प्रकाशित हो चुका था, लेकिन मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ के साथ यह निबन्ध दुबारा बिपनचन्द्र की परिचयात्मक टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ, तो विशेषतौर पर इतिहास और साहित्य के अध्येताओं का ध्यान भगतसिंह की कुशाग्र आलोचनात्मक दृष्टि और उसमें अन्तरनिहित द्वन्द्वात्मकता की ओर आकृष्ट हुआ। इन दो लेखों ने स्पष्ट कर दिया कि अपने छोटे से जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों के दौरान भगतसिंह की वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति जो प्रतिबद्धता विकसित हुई थी, वह महज भावनात्मक या अनुभवसंगत नहीं थी, बल्कि उसके पीछे गहन-गम्भीर अध्ययन से उपजी, सतत विकासमान वैचारिक समझ मौजूद थी। बिपनचन्द्र के अतिरिक्त सुमित सरकार, इरफान हबीब और हरबंस मुखिया आदि कई प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने और क्रान्तिकारी वामधारा से जुड़े कई बुद्धिजीवियों ने भगतसिंह के वैचारिक पक्ष को रेखांकित किया।
विगत शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान भगतसिंह और उनकी पीढ़ी के भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, विजयकुमार सिन्हा, बटुकेश्वर दत्त जैसे अन्य क्रान्तिकारियों की, क्रान्तिकारी आन्दोलन के वैचारिक विकास में भूमिका और उसके ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करने वाली महत्त्वपूर्ण शोध-कृतियों, जीवनियों और अब तक अनुपलब्ध दस्तावेज़ों का बड़े पैमाने पर प्रकाशन हुआ। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनसे जुड़े वरिष्ठ क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त (जो क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास पर पहले भी कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके थे) की पुस्तक भगतसिंह एण्ड हिज़ टाइम्सनवें दशक के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुई। फिर इस दिशा में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काम हुआ, और वह था जगमोहन सिंह और चमनलाल द्वारा सम्पादित भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़का 1986 में प्रकाशन, जिसमें कुल 105 दस्तावेज़ शामिल थे। फिर 1986 में अंग्रेज़ी में और 1987 में हिन्दी में भगतसिंह के साथी क्रान्तिकारी शिव वर्मा के सम्पादन में भगतसिंह की चुनी हुई रचनाओं का एक और संकलन प्रकाशित हुआ जिसमें 28 दस्तावेज़ भगतसिंह के अपने नाम से तथा परिशिष्ट के रूप में अन्य साथियों के कुछ दस्तावेज़ और कुछ सरकारी दस्तावेज़ (कुल दस) शामिल थे। 1986 में प्रकाशित जगमोहन सिंह और चमनलाल द्वारा सम्पादित दस्तावेज़ों के संकलन में कुल 105 दस्तावेज़ शामिल थे जिनमें बहत्तर भगतसिंह का लेखन हैं और शेष तैंतीस भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, महावीर सिंह आदि साथियों का लेखन हैं। बम का दर्शनशीर्षक दस्तावेज़ का पहला मसौदा भगतसिंह ने जेल से लिखकर बाहर भिजवाया था जिसे छपवाने से पहले अन्तिम रूप देने का काम भगवतीचरण वोहरा ने किया था। उल्लेखनीय है कि यह दस्तावेज़ गाँधी के लेख कल्ट ऑफ दि बमके उत्तर में लिखा गया था।
भगतसिंह और साथियों के दस्तावेज़के प्रकाशन के अतिरिक्त, भगतसिंह की दुर्लभ जेल नोटबुक का प्रकाशन पिछली शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस बहुमूल्य और इतिहास के विद्वानों तक के लिए अज्ञात दस्तावेज़ का प्रकाशन सबसे पहले भूपेन्द्र हूजा ने 1991में अपनी पत्रिका इण्डियन बुक क्राॅनिकलमें क़िस्तों में शुरू किया और फिर 1994में इसका (अंग्रेज़ी में) पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। फिर अप्रैल, 1999में इसका हिन्दी अनुवाद (अनुवादक विश्वनाथ मिश्र और सम्पादक सत्यम वर्मा) नयी भूमिका और नोटबुक की खोज-विषयक नये तथ्यों सहित लिखे गये दो लम्बे निबन्धों (आलोक रंजन और एल.वी. मित्रोखिन) के साथ तथा नयी सन्दर्भ-टिप्पणियों के साथ, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से (अब इस नोटबुक का नया हिन्दी संस्करण राहुल फाउण्डेशन से प्रकाशित हुआ है) प्रकाशित हुआ। इस नोटबुक के इस हिन्दी संस्करण को हम दोनों प्रस्तावनामूलक निबन्धों के साथ इस संकलन में भी शामिल कर रहे हैं। आलोक रंजन के लेख से पाठकों को भगतसिंह की जेल नोटबुक के प्रकाश में आने की पूरी कहानी का पता चल जायेगा। पहली बार इस जेल नोटबुक की चर्चा जी. देवल ने 1968में पीपुल्स पाथनामक पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख में की थी। इसे उन्होंने फरीदाबाद में रह रहे भगतसिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह के पास देखा था और अध्ययन करके आवश्यक नोट्स लिये थे। पुनः 1977में रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन भारत आये और कुलबीर सिंह के पास मौजूद नोटबुक के बारे में एक लेख लिखा जो उनकी पुस्तकलेनिन एण्ड इण्डियाका एक अध्याय बना। सम्भवतः आठवें दशक के अन्त में कभी नोटबुक की एक फोटो प्रतिलिपि कुलबीर सिंह के परिवार ने दिल्ली में नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम लाइब्रेरी (तीन मूर्ति भवन) को प्रकाशित नहीं करने की शर्त के साथ दी। 1979के बाद इतिहास के कई शोधार्थियों ने इसे वहाँ देखा था और अध्ययन किया था।
1986 में प्रकाशित भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़के दूसरे संस्करण (1991) की भूमिका में जगमोहन सिंह और चमनलाल ने भी इसका उल्लेख किया है। इसी जेल नोटबुक की एक और फोटो प्रतिलिपि डाॅ. प्रकाश चतुर्वेदी मास्को अभिलेखागार से फोटो-प्रति कराकर लाये थे। नोटबुक की जिस प्रतिलिपि को पहली बार भूपेन्द्र हूजा ने 1991 में प्रकाशित किया, वह गुरुकुल कांगड़ी के तत्कालीन कुलपति जी.बी. कुमार हूजा को 1981 में संस्था के मुख्य अधिष्ठाता स्वामी शक्तिवेश से प्राप्त हुई थी। नोटबुक की अभी तक प्राप्त सभी प्रतिलिपियाँ एक-दूसरे से शब्दशः मेल खाती हैं, जिनसे इसकी आधिकारिकता की ही पुष्टि होती है। परिकल्पना प्रकाशनसे प्रकाशित भगतसिंह की जेल नोटबुक के हिन्दी अनुवाद का पहला संस्करण अब तक छह बार पुनर्मुद्रित हो चुका है, और बहुत कम करके आकलन करने के बावजूद कहा जा सकता है कि पचास हज़ार से अधिक हिन्दी पाठकों तक तो यह पुस्तक पहुँच ही चुकी है।
इस महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ के अतिरिक्त गत शताब्दी के अन्तिम दशक में भगतसिंह और उनके साथियों पर काफी कुछ प्रकाशित हुआ जिसमें हंसराज रहबर और विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गयी दो जीवनियाँ भी शामिल हैं। भगतसिंह और उनके साथियों के चुने हुए तेरह दस्तावेज़ों और उनके पत्रों-परचों के कुछ उद्धरणों का एक संकलन 1998में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ, जिसके अब तक पाँच संस्करण आ चुके हैं। ऐसे प्रकाशनों का सिलसिला नयी शताब्दी में भी जारी रहा। हाल के वर्षों में दो ऐसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। पहली, कुलदीप नैयर की पुस्तक, डंतजलत ठींहंज ैपदही रू म्गचमतपउमदजे पद त्मअवसनजपवदए और दूसरी ए.जी. नूरानी की पुस्तक, श्ज्ीम ज्तपंस व िठींहंज ैपदही। सन्दर्भ-स्रोतों और व्याख्या की दृष्टि से कुलदीप नैयर की पुस्तक में तो कोई नयी बात नहीं है, लेकिन सरकारी दस्तावेज़ों की विस्तृत एवं गहन पड़ताल ए.जी. नूरानी की पुस्तक की विशिष्टता है। साथ ही, अपनी वस्तुपरकता के कारण भी यह पुस्तक विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
भगतसिंह और उनके साथियों की राजनीतिक गतिविधियों के अतिरिक्त उनके वैचारिक पक्ष के बारे में विगत पच्चीस वर्षों के दौरान इतना सबकुछ प्रकाशित होने के बावजूद, अब भी भगतसिंह पर हमारा इतना ज़ोर क्यों? - इतिहास के उन प्रतिष्ठित विद्वान महोदय के उसी प्रश्न पर हम वापस लौटते हैं, जहाँ से हमने अपनी बात की शुरुआत की थी। हमारी यह स्पष्ट और दृढ़ सोच है कि हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं को मिलाकर, तमाम पुस्तकों और लेखों के बावजूद, अभी भारत के तमाम शिक्षित नागरिकों में से कुछ लाख भी ऐसे लोग शायद मुश्किल से ही मिलेंगे, जो फाँसी के तख़्ते पर सहर्ष चढ़ने वाले वीर युवा क्रान्तिकारी की छवि से अलग, उस मेधावी युवा के युग-प्रवर्तक और प्रतिभाशाली चिन्तन से परिचित हों। हमारे देश में इतिहास के शोध-ग्रन्थ और शोध-पत्र विश्वविद्यालयों-शोध संस्थानों के पुस्तकालयों में बन्द रहने और उन विद्वानों के अध्ययन के लिए होते हैं, जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता और जो सिर्फ अपने कैरियर और प्रतिष्ठा को सम£पत होते हैं। ऐसे विषयों पर आम पाठकों के लिए लिखी गयी पुस्तकों, जीवनियों, संस्मरणों और लेखों की भी पहुँच वास्तव में बहुत सीमित लोगों तक ही होती है। इसके कई कारण हैं। ज़्यादातर प्रकाशकों का एकमात्र या सर्वोपरि लक्ष्य पुस्तकालय आपू£त करके पैसे कमाना होता है। न तो उनके प्रकाशनों की क़ीमत पाठकों की जेब के अनुकूल होती है, न ही उनके पास आमजनों तक ऐसी सामग्री पहुँचाने लायक विक्रय-वितरण का नेटवर्क ही होता है। पूँजीवादी प्रकाशकों के अतिरिक्त पूँजीवादी पत्र-पत्रिकाओं का भी आज जो स्वरूप है, उसे देखते हुए यह सम्भव नहीं कि उनके माध्यम से भगतसिंह के विचारों की वास्तविक अन्तर्वस्तु जन-समुदाय तक पहुँच सके। सच तो यह है कि पूँजी-केन्द्रित प्रकाशन-तन्त्र या व्यक्तिगत उपक्रम के द्वारा यह सम्भव ही नहीं है। क्रान्तिकारी विचारों की ऐतिहासिक विरासत और नये-नये आयामों को व्यापक जनगण के अलग-अलग संस्तरों तक अलग-अलग रूपों में पहुँचाने का काम एक वैकल्पिक जन-मीडिया के द्वारा, एक ऐसे क्रान्तिकारी प्रकाशन-तन्त्र के द्वारा ही सम्भव है, जो लोभ- लाभ के उद्देश्य से या पूँजी और सत्ता प्रतिष्ठान की सहायता से नहीं, बल्कि क्रान्तिकारी परिवर्तन के लक्ष्य से निर्देशित और अकुण्ठ जन-सरोकारों से संचालित हो, जिनके पीछे जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलन की शक्ति और समर्थन का आधार हो। राष्ट्रीय आन्दोलनकालीन पत्रकारिता और प्रकाशन के इतिहास का यदि अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। अपने अनुभव की विनम्रतापूर्वक चर्चा करते हुए हम कहना चाहेंगे कि भगतसिंह, राहुल, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि से लेकर क्रान्तिकारी साहित्य की वैश्विक विरासत तक का प्रकाशन अनेक बुर्जुआ प्रकाशकों ने किया है, लेकिन जन-संसाधनों, कार्यकर्ता- आधारित प्रकाशन-वितरण तन्त्र और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यों के समर्थन-आधार के आधार पर पुस्तकों-पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं-परचों आदि के रूप में, राहुल फाउण्डेशन-परिकल्पना-जनचेतना के सम्मिलित तन्त्र ने विगत दस वर्षों के दौरान आबादी के जितने बड़े हिस्से तक क्रान्तिकारी साहित्य की पहुँच और पैठ को सम्भव बनाया है, वह किसी बुर्जुआ प्रकाशक या मुट्ठीभर महत्त्वाकांक्षी बुद्धिजीवियों के किसी साझा उपक्रम के लिए न तो सम्भव है, न ही हो सकता है। और यह स्थिति तब है जबकि यह कोई आन्दोलनात्मक उभार का दौर नहीं है। जनता के आन्दोलन की लहरों पर सवार होकर यह धारा और तेज़ गति से आगे बढ़ती है, लेकिन ठहराव के कालखण्डों में, एकदम प्रतिकूल स्थितियों में, ऐसे वैचारिक-सांस्कृतिक उपक्रमों की आवश्यकता एक ज़रूरी तैयारी के रूप में होती है। इसी सोच के तहत अपने देश और पूरी दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य की ऐतिहासिक विरासत को प्रस्तुत करने के क्रम में भगतसिंह और उनके साथियों के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को हमने बड़े पैमाने पर जागरूक नागरिकों और प्रगतिकामी युवाओं तक पहुँचाया है और इसी सोच के तहत, अब भगतसिंह और उनके साथियों के अब तक उपलब्ध सभी दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित कर रहे हैं।
यह सन्तोष एक शुतुर्मुर्गी हरक़त होगी कि भगतसिंह और उनके साथियों के चिन्तन और उसके ऐतिहासिक महत्त्व से, अब इतने सारे प्रकाशनों के बाद, इस देश के लोग परिचित हो चुके हैं। अभी भी उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और इतिहास के युवा विद्यार्थियों में कितने ऐसे लोग मिलेंगे, जो यह जानते हैं कि अपने जीवन के अन्तिम वर्षों, विशेषकर जेल-जीवन के दौरान किये गये अध्ययन के बाद भगतसिंह समाजवाद के प्रति रूमानी प्रतिबद्धता से आगे बढ़कर एक प्रखर मार्क्‍सवादी बन चुके थे? कितने ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि जेल से लिखे गये अपने अन्तिम दस्तावेज़ों में भगतसिंह ने क्रान्ति के लिए पेशेवर क्रान्तिकारियों पर आधारित एक कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेतृत्व वाली जन-सेना तथा किसानों-मज़दूरों के जन-संगठन बनाने की बात लिखी थी, कांग्रेसी नेतृत्व के बुर्जुआ चरित्र का कुशाग्र विश्लेषण किया था और कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी मिलने की स्थिति में पैदा होने वाली परिस्थितियों का प्रतिभाशाली पूर्वानुमान प्रस्तुत किया था? बहुत कम लोग जानते हैं कि भगतसिंह अपनी विचारयात्रा के अन्तिम चरण तक एक कट्टर नास्तिक और अकुण्ठ द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी बन चुके थे। बहुत लोग जानते हैं कि उन्होंने जेल में मार्क्‍स, एंगेल्स, लेनिन आदि की प्रतिनिधि क्लासिकी कृतियों के अतिरिक्त जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, गोर्की, अप्टन सिंक्लेयर, जैक लण्डन आदि की रचनाओं तथा फ्रांसीसी क्रान्ति से लेकर रूसी क्रान्ति तक के इतिहास का विशद अध्ययन किया था और इस अध्ययन से निर्मित इतिहास-दृष्टि के सहारे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के बारे में आवश्यक एवं बहुमूल्य निष्कर्ष निकाले थे। बहुत कम लोग अभी भी इस तथ्य से परिचित हैं कि भगतसिंह का लक्ष्य साम्राज्यवाद और सामन्तवाद से मुक्ति-मात्र नहीं था। राष्ट्रीय जनवाद के संघर्ष को वह समाजवादी क्रान्ति की दिशा में यात्रा का एक मुकाम मानते थे और अपने चिन्तन के अन्तिम चरण में राष्ट्रीय जनवाद के संघर्ष में भी मज़दूरों-किसानों की लामबन्दी तथा सर्वहारा वर्ग के विचारधारात्मक-राजनीतिक वर्चस्व को सर्वोपरि महत्त्व देने लगे थे। क्या यह निहायत ज़रूरी नहीं है कि इन सच्चाइयों से इस देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावना-सम्पन्न युवाओं को परिचित कराया जाये, जिनके कन्धों पर भविष्य-निर्माण का कठिन ऐतिहासिक दायित्व है? यदि भगतसिंह और उनके साथियों के वैचारिक पक्ष से पढ़े-लिखे लोगों का बहुलांश भी परिचित होता तो यह कदापि सम्भव नहीं होता कि भाजपा और आर.एस.एस. के धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्ट भी उन्हें अपने नायक के रूप में प्रस्तुत करने की कुटिल कोशिश करते!
जनता के इतिहास की इस गौरवशाली विरासत को जन-जन तक पहुँचाने का काम जन-मुक्ति संघर्ष के वैचारिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर सन्नद्ध सेनानी ही कर सकते हैं। सरकारी इतिहासकारों और अकादमिक प्रतिष्ठानों से यह अपेक्षा की ही नहीं जा सकती। इस वर्ष भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु और चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के पचहत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। 2007-2008 भगतसिंह का जन्म शताब्दी वर्ष होगा। इन तीन वर्षों के दौरान देश के कुछ छात्र-युवा संगठनों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने देशभर में स्मृति-संकल्प यात्रा निकालकर भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों और उनकी प्रासंगिकता से देश के जन-जन को परिचित कराने का, भगतसिंह की जनमुक्ति की अवधारणा को साकार करने का तथा उनकी स्मृति से प्रेरणा व विचारों से दिशा लेकर नयी समाजवादी क्रान्ति का सन्देश पूरे देश में फैलाने का संकल्प लिया है। राहुल फाउण्डेशन भी इस संकल्प का सहभागी है और इसीलिए हम भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ों का यह संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस संकलन में वे सभी दस्तावेज़ शामिल हैं जो 1986में जगमोहन सिंह और चमनलाल सम्पादित संकलन के पहले संस्करण में हैं। वे तीन दस्तावेज़ भी इसमें हैं जिन्हें सम्पादक-द्वय ने 1991में प्रकाशित संकलन के दूसरे संस्करण में शामिल किया था। इनके अतिरिक्त इसमें एक और पत्र शामिल किया गया है जो महारथीपत्रिका (दिल्ली) के सम्पादक के नाम भगतसिंह ने लाहौर से 27फरवरी 1928को लिखा था। यह पत्र भगतसिंह के सबसे छोटे भाई कुलतार सिंह के सौजन्य से कुछ ही वर्षों पहले प्रकाश में आया है। इसे चमनलाल द्वारा सम्पादित और 2004में प्रकाशित भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़में शामिल किया गया है। चमनलाल द्वारा सम्पादित इस नये संकलन में जेल नोटबुक और डॉन ब्रीन की आयरिश स्वतन्त्रता संग्राम विषयक पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद के अतिरिक्त भगतसिंह के कुल 72दस्तावेज़ों को शामिल किया गया है, लेकिन उनके साथियों के शेष सैंतीस दस्तावेज़ों को इनमें नहीं रखा गया है। हाँ, परिशिष्ट के रूप में दो दस्तावेज़ अवश्य दिये गये हैं - पहला, नौजवान भारत सभा का घोषणापत्र और दूसरा एच.एस.आर.ए. का घोषणापत्र। अब इस संकलन में हम डॉन ब्रीन की पुस्तक के भगतसिंह द्वारा किये गये अनुवाद और उनकी जेल नोटबुक के (विश्वनाथ मिश्र द्वारा किये गये और सत्यम वर्मा द्वारा सम्पादित) हिन्दी अनुवाद के साथ ही, भगतसिंह और उनके साथियों के सभी 108उपलब्ध दस्तावेज़ों को पहली बार एक साथ प्रकाशित कर रहे हैं। संकलन को एक सन्दर्भ-ग्रन्थ के रूप में सापेक्षिक सम्पूर्णता प्रदान करने के लिए जेल नोटबुक के बारे में सम्पादक सत्यम वर्मा की भूमिका तथा आलोक रंजन और मित्रोखिन के उन लेखों को भी (क्रमशः प्रस्तावना और परिशिष्ट के रूप में) हमने इस संकलन में शामिल कर लिया है, जो जेल नोटबुक के हिन्दी अनुवाद के साथ 1999में परिकल्पना से प्रकाशित हुए थे। इस भूमिका के अतिरिक्त इस संकलन की प्रस्तावना के रूप में भगतसिंह के साथी क्रान्तिकारी शिव वर्मा के सुप्रसिद्ध लेख क्रान्तिकारी आन्दोलन का वैचारिक विकासहम यहाँ एक बार फिर प्रकाशित कर रहे हैं। यह कई बार, कई जगह प्रकाशित हो चुका है, लेकिन यहाँ फिर इसे देने का कारण इसके ऐतिहासिक मूल्यांकन की वस्तुपरकता के अतिरिक्त यह भी है कि इसे भगतसिंह के एक साथी ने लिखा है जो आजीवन कम्युनिस्ट आन्दोलन में सक्रिय रहा और जिसने पश्चदृष्टि से देखकर क्रान्तिकारी आन्दोलन का मूल्यांकन करते हुए अपने अनुभवों के अतिरिक्त अन्य आवश्यक ऐतिहासिक सन्दर्भ-स्रोतों की भी सहायता ली है। क्रान्तिकारी आन्दोलन का मूल्यांकन करने वाले लेखों में आज भी इसे सर्वाधिक वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न माना जाता है। दूसरे स्थान पर, इसी विषय पर केन्द्रित प्रो. बिपनचन्द्र के एक शोध-निबन्ध ‘1920के दशक में उत्तर भारत में क्रान्तिकारी आतंकवादियों की विचारधारा का विकासको रखा जा सकता है।
पुस्तक के पहले खण्ड में भगतसिंह और उनके साथियों के सभी उपलब्ध पत्रों-दस्तावेज़ों के विषयानुसार, और कालक्रमानुसार दस उपखण्डों में बाँटकर प्रस्तुत किया गया है। इस खण्ड के अन्त के ग्यारह परिशिष्टों में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के वैचारिक विकास को सही पृष्ठभूमि में समझने के लिए उसके पूर्ववर्ती संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के दो दस्तावेज़ और उसके शीर्ष नेताओं के कुछ पत्रों को भी शामिल कर लिया है। इनके अतिरिक्त इन परिशिष्टों में ग़दर पार्टी के क्रान्तिकारी नेता व सिद्धान्तकार लाला हरदयाल का लेख वर्ग रुचि का आन्दोलनों पर असरभी शामिल कर लिया गया है जो सितम्बर 1928में किरतीमें एक निर्वासित, एम.ए.के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस लेख में सामाजिक आन्दोलनों के वर्ग विश्लेषण की जो पद्धति अपनायी गयी है, उसमें उस योजक सूत्र को ढूँढ़ा जा सकता है जो ग़दर पार्टी की परम्परा से एच.एस.आर.ए. को जोड़ता है और जिसके चलते ग़दर पार्टी की धारा के क्रान्तिकारियों का बहुलांश आगे चलकर भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हो गया। उल्लेखनीय है कि लाला हरदयाल के इस लेख पर भगतसिंह और उनके साथियों ने गहराई से विचार किया था। जब यह लेख किरतीमें प्रकाशित हुआ था, उस समय भगतसिंह भी उसके सम्पादक-मण्डल में शामिल थे।
अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि भगतसिंह और उनके साथियों का सम्पूर्ण कृतित्व प्रकाश में आ चुका है। घर से भागकर कानपुर आने और पत्रकार के रूप में प्रतापमें काम करने के समय से लेकर जेल जाने के समय तक प्रताप’ (कानपुर), ‘महारथी’ (दिल्ली), ‘चाँद’ (इलाहाबाद), ‘अर्जुन’ (दिल्ली) और मतवालाआदि कई हिन्दी पत्रिकाओं में भगतसिंह कई छद्म नामों से लिखा करते थे। किरतीमें वह विद्रोहीउपनाम से पंजाबी में लिखते थे और कई सम्पादकीय भी मुख्यतः उन्होंने ही लिखे थे। उर्दू में भी वह अच्छा लिखते थे। इनमें से जो कुछ भी अब तक ढूँढ़ा जा सका है, उसके अतिरिक्त भी काफी कुछ बचे होने की सम्भावना है क्योंकि हिन्दी, उर्दू, पंजाबी पत्रिकाओं का इतिहास-लेखन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने की दिशा में अभी भी न के बराबर काम हुआ है, राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रतिबन्धित साहित्य के प्रभाग और सरकारी दस्तावेज़ों को भी व्यवस्थित ढंग से खँगालने का काम अभी पूरा नहीं हो सका है। ब्रिटिश अभिलेखागार और इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी तथा पाकिस्तान के अभिलेखागार को भी अभी पूरी तरह से छाना नहीं गया है। भगतसिंह और उनके साथियों के लेखों-पत्रों की खोजबीन जब कुछ गम्भीरता से शुरू हुई, तब तक उस युग के अधिकांश सम्पादक, प्रकाशक और लेखक जीवित नहीं बचे थे।
मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसे कई महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों और जेल नोटबुक का जिस तरह आठवें-नवें दशक में पता चला, उसे देखते हुए, अभी भी कुछ सामग्री यहाँ-वहाँ पड़ी होगी, यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। इसीलिए इस संकलन को हमने सम्पूर्ण दस्तावेज़के बजाय सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़नाम दिया है।
शिव वर्मा और भगतसिंह के कई साथियों तथा कई इतिहासकारों द्वारा उल्लिखित इस तथ्य की भी चर्चा यहाँ ज़रूरी है कि भगतसिंह ने जेल में सतत गहन अध्ययन करने, मुक़दमे की कार्रवाई में हिस्सा लेने तथा पत्रों, सन्देशों और विविध दस्तावेज़ों के लेखन के अतिरिक्त चार पुस्तकें और लिखी थीं:
(1) ‘आत्मकथा’ (2) ‘समाजवाद का आदर्श’ (3) ‘भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनऔर (4) ‘मृत्यु के द्वार पर। इन पुस्तकों की पाण्डुलिपियों के ग़ायब होने की कई रहस्यमय कहानियाँ चलन में रही हैं और माना यही जाता है कि वे नष्ट हो चुकी हैं। लेकिन इस बात से अभी भी पूरी तरह से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जेल नोटबुक की तरह किसी के व्यक्तिगत संग्रह से या किसी अभिलेखागार से सहसा ये पाण्डुलिपियाँ भी बरामद हो जायें। भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़’ (2004) के अपने सम्पादकीय निबन्ध में चमनलाल ने बिना किसी तथ्य के और निहायत लचर तर्क के आधार पर एक विचित्र अटकल प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि हो सकता है कि इन चार पाण्डुलिपियों का कोई अस्तित्व ही न हो। वह अटकल लगाते हैं कि आत्मकथाऔर मृत्यु के द्वार परशीर्षक पाण्डुलिपियाँ डाॅन ब्रीन की आत्मकथा का ही प्रारूप हो सकती हैं। भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहासउनके अनुसार जेल में रहते हुए लिख पाना असम्भवप्राय था। साथ ही, वह यह भी कहते हैं कि ता£कक स्तर पर जेल प्रवास के दो साल में चार पुस्तकों का लेखन असम्भव है। यह अटकल विचित्र ही नहीं, बचकानी ओर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना भी है, जिसकी अपेक्षा कम से कम ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का सम्पादन करने वाले किसी व्यक्ति से नहीं की जानी चाहिए। पहली बात तो यह कि भगतसिंह को जब 12सितम्बर 1929से लिखने के लिए नोटबुक और पढ़ने के लिए किताबों की सुविधा मिलने लगी थी, तो भला यह सम्भव क्यों नहीं है कि वे जेल में रहकर भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास लिख सकें? बल्कि सम्भावना तो इसी बात की ज़्यादा है कि सशस्त्र क्रान्ति की मध्यवर्गीय सोच से आगे किसानों-मज़दूरों के जन-संगठन बनाने तथा साथ ही गुप्त क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की मार्क्‍सवादी अवस्थिति तक पहुँचने के बाद समाहारमूलक दृष्टि से भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास लिखने का विचार भगतसिंह के मस्तिष्क में आया हो। जहाँ तक जेल-जीवन के दो वर्षों के जेल-जीवन के दौरान चार पुस्तकों के लेखन को तार्किक दृष्टि से असम्भव मानने की बात है, तो यह तो और अधिक हास्यास्पद है। चमनलाल को साइबेरिया-प्रवास में गये लेखकों-क्रान्तिकारियों से लेकर पूरी दुनिया के इतिहास से दर्जनों ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं, जबकि कई प्रतिभाशाली और लक्ष्य के प्रति एकाग्र व्यक्तियों ने चार नहीं बल्कि दर्जनों जिल्दों में समा पाने वाली गम्भीर और वैविध्यपूर्ण सामग्री का लेखन किया। भगतसिंह जैसे प्रतिभाशाली युवा के लिए यह कदापि असम्भव नहीं था। ख़ासतौर पर तब जबकि जेल-जीवन के दौरान के अध्ययन और अनुभव-विश्लेषण एवं समाहार के द्वारा उनका दृष्टिकोण सुनिश्चित हो चुका था, मुक्ति के रास्ते के बारे में विचार सुनिश्चित शक्ल अख़्तियार करने लगे थे और वह जानते थे कि उनके पास समय बहुत कम है। भगतसिंह की जेल नोटबुक से उनके गहन अध्ययन का जो आभास मिलता है, उसे देखते हुए भी चार पुस्तकों का लेखन अस्वाभाविक नहीं बल्कि इसके विपरीत अत्यन्त स्वाभाविक लगता है। इस तरह की अटकलबाज़ी के बजाय बेहतर यही होगा कि हम उन तथ्यों पर भरोसा करें जो शिव वर्मा और कुछ अन्य साथियों ने इस सन्दर्भ में बयान किये हैं। इसी सोच के तहत हम यह नहीं मानते कि भगतसिंह और उनके साथियों के जो दस्तावेज़ अभी तक उपलब्ध हो सके हैं, उनके अतिरिक्त कुछ छूट नहीं गया होगा। हमारा इस बात पर पर्याप्त ज़ोर है कि आगे भी इस दिशा में खोज का काम सतत जारी रहना चाहिए।
भगतसिंह और उनके साथियों के वैचारिक पक्ष को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प गलदश्रु भावुकता या क्रान्तिकारी परम्परा के प्रति श्रद्धालुता के नाते तो ख़ैर क़तई नहीं जन्मा है, इसका उद्देश्य इतिहास की अज्ञात, अल्पज्ञात या विस्मृत परम्परा और वैचारिक विरासत को उद्घाटित करना-मात्र भी नहीं है। भगतसिंह और उनके साथियों का चिन्तन सुदूर अतीत की चीज़ नहीं है। यह राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष के उस निकट अतीत की विरासत है, जिसके गर्भ से बाहर आकर आज के भारत का विकास हुआ है।
भगतसिंह ने अपने समय के राष्ट्रीय आन्दोलन पर जो आलोचनात्मक और समाहारमूलक टिप्पणियाँ की थीं, अपने देशकाल की ज़मीन पर खड़े होकर उन्होंने भविष्य की सम्भावनाओं के बारे में जो आकलन प्रस्तुत किये थे, कांग्रेसी नेतृत्व का उन्होंने जो वर्ग-विश्लेषण किया था, देश की मेहनतवफश जनता के सामने, छात्रों-युवाओं के सामने, और सहयोद्धा क्रान्तिकारियों के सामने क्रान्ति की तैयारी और मार्ग की उन्होंने जो नयी परियोजना प्रस्तुत की थी, उसका आज के संकटपूर्ण समय में बहुत अधिक महत्त्व है जब पूरा देश देशी-विदेशी पूँजी की निर्बन्ध लूट और निरंकुश वर्चस्व तले रौंदा जा रहा है, जब श्रम और पूँजी के बीच धु्रवीकरण ज़्यादा से ज़्यादा तीखा होता जा रहा है, जब साम्राज्यवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष (जिसकी भगतसिंह ने भविष्यवाणी की थी) विश्व-स्तर पर ज़्यादा से ज़्यादा अवश्यम्भावी बनता प्रतीत हो रहा है, जब कांग्रेस ही नहीं सभी संसदीय पार्टियों और नक़ली वामपन्थियों का चेहरा और पूरी सत्ता का चरित्र एकदम नंगा हो चुका है, जब भगतसिंह की आशंकाएँ एकदम सही साबित हो चुकी हैं और जब, भारत की मेहनतकश जनता व क्रान्तिकारी युवाओं को साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध एक नयी क्रान्ति की तैयारी के जटिल कार्य में नये सिरे से सन्नद्ध हो जाने का समय आ चुका है।
भगतसिंह के समय के भारत से आज का भारत काफी बदल चुका है। उत्पादन-प्रणाली से लेकर राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक सम्बन्ध और संस्कृति तक के स्तर पर चीज़ें काफी बदल चुकी हैं। साम्राज्यवादी शोषण-उत्पीड़न आज भी मौजूद है, लेकिन प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के दौर से आज इसका स्वरूप काफी बदल चुका है। वर्ग-संघर्ष, विगत सर्वहारा क्रान्तियों और राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों के दबाव के चलते तथा अपने भीतर के आन्तरिक दबावों के फलस्वरूप साम्राज्यवाद के तौर-तरीक़ों में काफी बदलाव आये हैं। राष्ट्रीय-औपनिवेशिक प्रश्न आज हल हो चुका है और राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों में कहीं भागीदार और कहीं नेता की भूमिका निभाने वाला, भूतपूर्व औपनिवेशिक देशों का बुर्जुआ वर्ग आज पूरी तरह से पाला बदलकर साम्राज्यवादी शक्तियों का जूनियर पार्टनरबन चुका है। गाँवों में भी बुर्जुआ भूमि-सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया ने भूमि-सम्बन्धों को मूलतः बदल दिया है और नये पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों के अन्तर्गत, पूँजीवादी भूस्वामी बन चुके भूतपूर्व सामन्ती भूस्वामी तथा पूँजीवादी फार्मर बन चुके भूतपूर्व धनी काश्तकार आज गाँव के मेहनतवफशों और छोटे-मँझोले किसानों के शोषक की भूमिका में हैं। मँझोले किसानों की भूमिका उसी प्रकार दोहरी है जैसे शहरों में आज मध्यवर्ग की भूमिका दोहरी बन चुकी है - यानी इन वर्गों के ऊपरी संस्तर शासकों के साथ नाभिनालबद्ध हैं जबकि निचले संस्तर मेहनतकशों के क़रीबी बन रहे हैं। साथ ही गाँव के ग़रीबों को लूटने में देशी-विदेशी वित्तीय एवं औद्योगिक पूँजी की प्रत्यक्ष भूमिका बन रही है। निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि भारत जैसे अगली क़तारों के भूतपूर्व औपनिवेशिक देश आज पिछड़े पूँजीवादी देश बन चुके हैं। अब इन देशों के इतिहास के एजेण्डे पर राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष नहीं बल्कि समाजवाद के लिए संघर्ष है।
लेकिन इन महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के बावजूद, साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध अभी जारी है। और जैसाकि फाँसी से तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को फाँसी के बजाय गोली से उड़ाये जाने की माँग करते हुए लिखे गये अपने पत्र में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने लिखा था: ”...यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक अथवा सर्वथा भारतीय ही हों। उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई फवऱ्फ नहीं पड़ता।इस पत्र के अन्त में विश्वासपूर्वक यह घोषणा की गयी है कि, ”निकट भविष्य में यह युद्ध अन्तिम रूप में लड़ा जायेगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा। साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद कुछ समय के मेहमान हैं।यहाँ भगतसिंह की उस प्रखर इतिहास-दृष्टि से हमारा साक्षात्कार होता है जो राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष को जन-मुक्ति-संघर्ष की इतिहास-यात्रा के दौरान बीच का एक पड़ाव-मात्र मानती थी और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष को ही अन्तिम निर्णायक संघर्ष मानती थी। भगतसिंह ने कई स्थानों पर इस बात पर बल दिया है कि इस निर्णायक विश्व-ऐतिहासिक महासमर का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और पूँजीवाद का एकमात्र विकल्प समाजवाद ही हो सकता है। इस मायने में भगतसिंह और एच.एस.आर.ए. के नेतृत्व के युवा क्रान्तिकारी न केवल अपने पूर्ववर्ती सशस्त्र क्रान्तिकारियों से बल्कि अपने समकालीनों से भी काफी आगे थे। आज जब विश्व-स्तर पर पूँजी और श्रम की शक्तियाँ एक नये, निर्णायक ऐतिहासिक युद्ध के लिए आमने-सामने लामबन्द हो रही हैं तो भारत के युवाओं और मेहनतकशों के लिए साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के भविष्य के बारे में भगतसिंह के इस आकलन और भविष्यवाणी का विशेष महत्त्व हो जाता है।
भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा और एच.एस.आर.ए. के अन्य अग्रणी क्रान्तिकारियों का दृष्टिकोण भारतीय पूँजीपति वर्ग के बारे में भी एकदम स्पष्ट था। कांग्रेस के नेतृत्व को वे इन्हीं पूँजीपतियों-व्यापारियों का प्रतिनिधि मानते थे और उनकी यह स्पष्ट धारणा थी कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व यदि कांग्रेस के हाथों में रहा तो उसका अन्त एक समझौते के रूप में ही होगा। और इसीलिए वह यह स्पष्ट सन्देश देते हैं कि क्रान्तिकारियों के लिए आज़ादी का मतलब सत्ता पर बहुसंख्यक मेहनतवफश जनता का क़ाबिज होना है, न कि लाॅर्ड री¯डग और लाॅर्ड इ£वन की जगह पुरुषोत्तम दास, ठाकुरदास का अथवा गोरे अंग्रेज़ों की जगह काले अंग्रेज़ों का सत्तासीन हो जाना। उनकी स्पष्ट घोषणा थी कि यदि देशी शोषक भी किसानों-मज़दूरों का ख़ून चूसते रहेंगे तो हमारी लड़ाई जारी रहेगी। यहाँ ग़ौरतलब यह भी है कि गाँधी और कांग्रेस की राजनीति का विरोध करते हुए भगतसिंह की पहुँच और पद्धति नितान्त द्वन्द्वात्मक है। वह मानते हैं कि व्यापक जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को कांग्रेस के नेतृत्व वाला जनान्दोलन एक मंच दे रहा है। वे इसकी जन-कार्रवाइयों के कायल हैं पर यह भी मानते हैं कि कांग्रेसी नेतृत्व की राजनीति जन-विरोधी है और इसकी जन-कार्रवाइयों का उद्देश्य जनता की मुक्ति नहीं बल्कि मुट्ठीभर पूँजीपतियों और अभिजातों को सत्तारूढ़ बनाना है तथा यह भी कि कांग्रेस साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं कर सकती। गाँधी और गाँधीवाद का ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करते हुए वह लिखते हैं, ”गाँधी एक दयालु मानवतावादी व्यक्ति हैं। लेकिन ऐसी दयालुता से सामाजिक तब्दीली नहीं आती, उसके लिए वैज्ञानिक और गतिशील सामाजिक शक्ति की ज़रूरत है।“ 2 फरवरी, 1931 के अपने लम्बे लेख में उन्होंने फिर लिखा, ”हमें कांग्रेस आन्दोलन की सम्भावनाओं, पराजयों व उपलब्धियों सम्बन्धी किसी क़िस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए। आज के इस आन्दोलन को गाँधीवाद कहना ठीक है...इसका तरीक़ा अनूठा है, लेकिन इसके विचार बेचारे लोगों के किसी काम के नहीं हैं। गाँधीवाद साबरमती के सन्त को कोई स्थायी शिष्य नहीं दे पायेगा।लेकिन साथ ही व्यापक जनता को लामबन्द कर लेने में गाँधी की सफलता का वे वस्तुपरक मूल्यांकन भी करते हैं, ”इस तरह गाँधीवाद अपने भाग्यवादी मत के बावजूद क्रान्तिकारी विचारों के क़रीब पहुँचने की कोशिश करता है, क्योंकि वह जन-कार्रवाई पर निर्भर करता है, चाहे यह कार्रवाई जनता के लिए नहीं है।
एक ओर जहाँ एच.एस.आर.ए. ने जनता को जगाने और अपने उद्देश्यों के प्रचार के लिए कुछ व्यक्तिगत आतंक की कार्रवाइयों को पूर्ववर्ती क्रान्तिकारी संगठनों की ही भाँति अंजाम दिया, वहीं मज़दूर क्रान्तियों और जन-संघर्षों के इतिहास और क्रान्तिकारी आन्दोलनों के अनुभवों के समाहार के आधार पर भगतसिंह और उनके साथी ज़्यादा से ज़्यादा इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे थे कि क्रान्ति अपनी निर्णायक मंज़िल में अनिवार्यतः सशस्त्र और ¯हसात्मक होगी, लेकिन मज़दूरों-किसानों- छात्रों-युवाओं के खुले जन-संगठन बनाये बिना और व्यापक जनान्दोलनों के बिना क्रान्ति की तैयारियों को निर्णायक मंज़िल तक पहुँचाया ही नहीं जा सकता। इस सोच की शुरुआती अभिव्यक्ति हमें नौजवान भारत सभाके गठन में देखने को मिलती है और जेल-जीवन के अन्तिम वर्ष तक मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के गहन अध्ययन (जिसका प्रमाण भगतसिंह की जेल नोटबुक के नोट्स हैंद्ध के बाद भगतसिंह इस सोच पर एकदम दृढ़ हो चुके थे। 19अक्टूबर 1929को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन को भेजे गये अपने सन्देश में भगतसिंह ने लिखा था: इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है।...नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने तक पहुँचाना है, फैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।फरवरी, 1931के अपने ऐतिहासिक मसविदा दस्तावेज़ में भगतसिंह ने स्पष्ट कहा था: आतंकवाद हमारे समाज में क्रान्तिकारी चिन्तन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति हैऋ या एक पछतावा। इसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है।...आतंकवाद अधिक से अधिक साम्राज्यवादी ताक़त को समझौते के लिए मजबूर कर सकता है। ऐसे समझौते, हमारे उद्देश्य - पूर्ण आज़ादी - से हमेशा ही कहीं दूर रहेंगे। इस प्रकार आतंकवाद, एक समझौता, सुधारों की एक क़िस्त निचोड़कर निकाल सकता है और इसे ही हासिल करने के लिए गाँधीवाद ज़ोर लगा रहा है। वह चाहता है कि दिल्ली का शासन गोरे हाथों से भूरे हाथों में आ जाये। ये लोगों के जीवन से दूर हैं और इनके गद्दी पर बैठते ही ज़ालिम बन जाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं।ज़ाहिर है कि अपनी विचार-यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते भगतसिंह कांग्रेस और गाँधीवाद के असली चरित्र की पहचान करने के साथ-साथ क्रान्तिकारी आतंकवाद की सीमाओं को भी समझने लगे थे और जैसाकि फरवरी 1931के मसविदा दस्तावेज़ से स्पष्ट हो जाता है, वह महान मस्तिष्क अपने अवसान की पूर्वबेला में एक जन-क्रान्ति की तैयारी और पूर्वाधार के प्रश्नों से गहन रूप से जूझ रहा था।
भगतसिंह राष्ट्रीय आन्दोलन में पूँजीपति वर्ग की भागीदारी को जहाँ ढुलमुलपन से भरा हुआ और अन्ततः समझौते की परिणति तक पहुँचने वाला मानते थे, वहीं अध्ययन और अनुभव ने उन्हें मज़दूर-किसान संश्रय विषयक इस लेनिनवादी निष्पत्ति के निकट पहुँचा दिया था कि राष्ट्रीय अथवा समाजवादी क्रान्तियों में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व और उसके निकटतम संश्रयकारी के रूप में किसानों की मौजूदगी ही उनकी सफलता की गारण्टी हो सकती है। उन्होंने यह स्पष्ट लिखा था, ”क्रान्ति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं, वे हैं किसान और मज़दूर।
अपने उपरोक्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ में भगतसिंह ने युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सलाह दी है कि वे मार्क्‍स और लेनिन का अध्ययन करें, उनकी शिक्षा को अपना मार्गदर्शक बनायें, जनता के बीच जायें, मज़दूरों-किसानों और शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें वर्ग-चेतना उत्पन्न करें, उन्हें संगठित करें, आदि। महत्त्वपूर्ण बात है कि इस दस्तावेज़ में एक कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की ज़रूरत पर बल दिया है जो मुख्यतः पेशेवर क्रान्तिकारियों - ऐसे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हो जिनकी क्रान्ति के सिवा न कोई दूसरी आकांक्षा हो, न ही जीवन का कोई दूसरा लक्ष्य।
भगतसिंह और उनके साथी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को समाजवाद के लिए संघर्ष के लक्ष्य की दिशा में यात्रा के दौरान बीच की एक मंज़िल मानते थे, वे सर्वहारा क्रान्ति के पक्षधर थे और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष को साम्राज्यवाद की विश्व-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का एक अंग मानते थे। वे राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी-मात्र न होकर उत्कट अन्तरराष्ट्रीयतावादी थे। भाषाई-जातिगत-धार्मिक संकीर्णता से वे पूरी तरह से मुक्त थे तथा रहस्यवाद और भाग्यवाद की दिमाग़ी ग़ुलामी से छुटकारा पा चुके थे। भगतसिंह की नास्तिकता एक सच्चे वैज्ञानिक भौतिकवादी की नास्तिकता थी।
इस पूरी चर्चा का उद्देश्य भगतसिंह के चिन्तन के उन पक्षों को रेखांकित करना है, जो आज के समय में भी हमारे लिए प्रासंगिक हंै। हम यह नहीं कहते कि भगतसिंह द्वारा सुझाया गया क्रान्ति का रास्ता आज हमारे लिए पूरी तरह से प्रासंगिक है। तबसे अब तक देश के उत्पादन-सम्बन्धों, सामाजिक-आर्थिक संरचना, राज्यसत्ता के चरित्र एवं कार्यप्रणाली तथा साम्राज्यवाद के चरित्र एवं कार्यप्रणाली में महत्त्वपूर्ण बदलाव आये हैं, लेकिन आज की क्रान्ति के युवा हरावलों के लिए भी भगतसिंह के चिन्तन के कुछ पक्ष नितान्त प्रासंगिक हैं। इन्हें यदि सूत्रवत बताना हो तो इस रूप में गिनाया जा सकता है: (1) भगतसिंह और उनके साथियों की निरन्तर विकासमान भौतिकवादी जीवनदृष्टि और द्वन्द्वात्मक विश्लेषण पद्धति (2) साम्राज्यवाद के विरुद्ध जारी विश्व-ऐतिहासिक युद्ध के प्रति उनका नज़रिया (3) राष्ट्रीय मुक्ति-युद्ध को साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष का अंग मानने तथा समाजवादी क्रान्ति की पूर्ववर्ती मंज़िल मानने का उनका नज़रिया (4) कांग्रेस और गाँधी के वर्ग-चरित्र का द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन और कांग्रेसी नेतृत्व वाली राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा की ता£कक परिणति का प्रतिभाशाली पूर्वानुमान (5) क्रान्तिकारी आतंकवाद का विश्लेषण के बाद उससे आगे बढ़कर क्रान्तिकारी जन-दिशा पर बल देना, मज़दूरों-किसानों को क्रान्ति की मुख्य शक्ति मानते हुए उन्हें संगठित करने पर बल देना तथा एक सर्वहारा क्रान्ति को अपरिहार्य बताना (6) एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को स्वीकारना और उसके निर्माण को ज़रूरी बताना (7) धार्मिक-जातिगत-भाषाई कट्टरता का विरोध करना, आदि।
इन्हीं कारणों से हमारा मानना है कि इक्कीसवीं शताब्दी में भगतसिंह को याद करना और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम एक विस्मृत क्रान्तिकारी परम्परा का पुनःस्मरण-मात्र ही नहीं है। भगतसिंह का चिन्तन परम्परा और परिवर्तन के द्वन्द्व का जीवन्त रूप है और आज, जब नयी क्रान्तिकारी शक्तियों को एक बार फिर संगठित होकर साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की दिशा और मार्ग का सन्धान करना है, जब एक बार फिर नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल विकसित करने का कार्यभार हमारे सामने है तो भगतसिंह की विचार-प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों से हमें कुछ बहुमूल्य चीज़ें सीखने को मिलेंगी।
परम्परा कभी भी उँगली पकड़कर भविष्य तक नहीं पहँुचाती। वह एक दिशा देती है, बशर्ते कि हम आलोचनात्मक विवेक के साथ इतिहास का अध्ययन करें और अपनी परम्परा की पहचान करें। प्राचीनकालीन लोकायत दर्शन, बौद्ध दर्शन और सांख्य आदि की भौतिकवादी चिन्तन परम्परा हमारी परम्परा है। मध्यकालीन निर्गुण भक्ति आन्दोलन की परम्परा हमारी परम्परा है। आधुनिक काल में राधामोहन गोकुलजी, राहुल सांकृत्यायन और भगतसिंह की विकासमान वैज्ञानिक भौतिकवादी चिन्तन-परम्परा भी हमारी परम्परा है। और यह परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। हम तो यहाँ मात्र कुछ सर्वाधिक आलोकमय शिखरों का नामोल्लेख कर रहे हैं। पूरी दुनिया के साथ ही, अपने देश की इस क्रान्तिकारी विरासत का पुनःस्मरण आज के नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का आवश्यक कार्यभार है। इतिहास कोई जड़वस्तु नहीं होती। जब भी भविष्य-सन्धान का नया कार्यभार सामने आता है, जब भी नये सिरे से मुक्ति-परियोजनाओं का निर्माण करना होता है तो एक बार फिर इतिहास का अन्वेषण करना होता है। भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण कृतित्व का अध्ययन इसीलिए आज उनके लिए बहुत ज़रूरी है जो जन-मुक्ति की नयी परियोजना तैयार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए संकल्पबद्ध हैं।
इन पत्रों-दस्तावेज़ों का अध्ययन करते हुए एक बात का ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है। इनका अध्ययन इनके कालक्रम को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। भगतसिंह को समय ने अपने विचारों को सुस्थिर-सुनिश्चित करने का समय ही नहीं दिया। उनका पूरा चिन्तन एक तूफानी गति वाली विचार-यात्रा है, जिसमें क्रान्तिकारी जीवन के अनुभवों के समाहार तथा दर्शन, साहित्य, क्रान्तियों के इतिहास आदि के धुआँधार अध्ययन के बाद, लगातार, बहुत तेज़ी से परिवर्तन आते गये हैं। लगातार वह ज़्यादा से ज़्यादा वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्नता की दिशा में आगे बढ़ते गये हैं, उनका चिन्तन ज़्यादा से ज़्यादा अन्तरविरोध-मुक्त होता गया है तथा उनकी विश्लेषण पद्धति ज़्यादा से ज़्यादा द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी होती गयी है।
भगतसिंह ने अपना पहला लेख पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या पर सत्रह वर्ष की अवस्था में लिखा। तब उनका क्रान्तिकारी जीवन शुरू हो चुका था और वह कानपुर में प्रतापमें काम कर रहे थे। 1928 में एच.एस.आर.ए. के गठन के समय तक उनकी और उनके साथियों की समाजवाद के प्रति रूमानी प्रतिबद्धता उत्पन्न हो चुकी थी और सशस्त्र कार्रवाइयों के साथ-साथ युवाओं के खुले जन-संगठन और जनान्दोलन को भी वे ज़रूरी मानने लगे थे। क्रान्तिकारी जीवन के अनुभवों, गहन अध्ययन तथा सोहन सिंह जोश और लाला छबील दास के साथ लगातार सम्पर्क-संवाद ने धीरे-धीरे वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति उनकी समझदारी को और गहरा बनाने का काम किया। कानपुर-प्रवास के दौरान राधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त आदि के विचारों ने तथा वहाँ के मज़दूर आन्दोलन ने भी मध्यवर्गीय सशस्त्र क्रान्तिवाद को सर्वहारा क्रान्ति की समझ की दिशा में मोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जेल में काफी संघर्ष के बाद लिखने-पढ़ने की सुविधा भगतसिंह को सितम्बर 1929 को मिली। उसके बाद, मुक़दमे के बयानों की तैयारियों, जेल के बाहर के साथियों से सम्पर्क-संवाद और लम्बी भूख-हड़ताल के अतिरिक्त भगतसिंह ने अपना सारा समय गहन अध्ययन और लेखन में ख़र्च किया। जेल नोटबुक के प्रकाश में आने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इस अध्ययन का दायरा आश्चर्यजनक रूप से व्यापक था, लेकिन इसमें भी क्रान्तियों के इतिहास, महत्त्वपूर्ण मार्क्‍सवादी क्लासिक्स और दर्शन का उन्होंने सर्वाधिक गहन अध्ययन किया। नोटबुक के नोट्स बताते हैं कि यह अध्ययन कितना डूबकर किया गया था। ग़ौरतलब है कि 23 मार्च 1931 तक जारी गहन अध्ययन इस सिलसिले की अवधि मात्र डेढ़ वर्ष की ही थी। इस छोटे से समय में गहन अध्ययन के जरिये भगतसिंह ने जो वैचारिक परिपक्वता अर्जित की, वह किसी युगान्तरकारी महान ऐतिहासिक प्रतिभा के ही बूते की बात थी। मात्र 17 से 23 वर्ष की उम्र के बीच फैली यह अल्पावधि विचार-यात्रा इतिहास की एक मिसाल है। औपनिवेशिक भारत के पिछड़े सांस्कृतिक-शैक्षिक परिवेश की सीमाओं को देखते हुए, भगतसिंह की इस युगद्रष्टा प्रतिभा की तुलना यदि युवा लेनिन की प्रतिभा से की जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चमनलाल ने भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़की प्रस्तावना में उनकी तुलना मात्र चैबीस वर्ष की आयु जीने वाले रूस के क्रान्तिकारी जनवादी चिन्तक दोब्रोल्यूबोव से ठीक ही की है।
अध्ययन और चिन्तन की इस अतिसंक्षिप्त, सघन-सान्द्र और तीव्र वेगवाही अवधि को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है कि भगतसिंह के चिन्तन में प्रायः कुछ अन्तरविरोध और चिन्तन की हर अग्रवर्ती मंज़िल में पूर्ववर्ती मंज़िल की कुछ प्रभाव-छायाएँ देखने को मिलती हैं। इसलिए इन दस्तावेज़ों का अध्ययन करते समय चिन्तन की मुख्य दिशा, मूल निष्पत्तियों और विश्लेषण-पद्धति पर ध्यान देना सबसे ज़रूरी है। भगतसिंह को अपनी स्थापनाओं को सुव्यवस्थित और विस्तारित करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन साम्राज्यवाद के बारे में, भारतीय पूँजीपति वर्ग और कांग्रेस के बारे में, सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण की आवश्यकता के बारे में और क्रान्ति की तैयारी के बारे में उनके जो निष्कर्ष थे, उन्हें इतिहास ने सही सिद्ध किया। जीवन के अन्तिम काल में लिखे गये लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ (अक्टूबर 1930) और अन्तिम ऐतिहासिक दस्तावेज़ क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ (2फरवरी 1931) में भगतसिंह का चिन्तन अपनी परिपक्वता के शिखर-बिन्दु पर पहुँचा हुआ दिखायी देता है।
एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों के अब तक प्रकाशित कुल 105दस्तावेज़ों में से 72भगतसिंह का लेखन हैं और शेष 33भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, महावीर सिंह आदि का लेखन हैं। इससे भी यह स्पष्ट है कि एक विचारक और सिद्धान्तकार के रूप में, अपने साथियों के बीच भगतसिंह की ही भूमिका नेतृत्वकारी थी। यूँ तो सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा आदि भी मेधावी और अध्ययनशील युवा थे, लेकिन चिन्तन के क्षेत्र में भगवतीचरण वोहरा भगतसिंह के सर्वाधिक क़रीबी थे। उल्लेखनीय
है कि भगतसिंह से गहन विचार-विमर्श के बाद नौजवान भारत सभा और एच.एस.आर.ए. का घोषणापत्र भगवतीचरण वोहरा ने ही तैयार किया था। वह भगतसिंह की विचार-यात्रा के अनन्य सहयात्री थे।
भगतसिंह और उनके साथियों की राजनीतिक-वैचारिक समझ 1917की रूसी सर्वहारा क्रान्ति के प्रखर रक्तिम आलोक से आलोकित हुई थी। युगान्तरऔर अनुशीलनसे लेकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनतक के मध्यवर्गीय अराजकतावादी क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकासक्रम की गहराई से जाँच-पड़ताल करने, मज़दूरों-किसानों को संगठित करने की महत्ता को समझने और फिर वैज्ञानिक समाजवाद को स्वीकारने की मंज़िल तक पहुँचने के पीछे भगतसिंह और भगवतीचरण वोहरा की महान प्रतिभा का योगदान तो था ही, लेकिन साथ ही, इसके कुछ सुनिश्चित वस्तुगत ऐतिहासिक कारण भी थे। इस वैचारिक विकास के पीछे ग़दर पार्टी के निकट अतीत की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। ग़दर पार्टी वह पहली क्रान्तिकारी पार्टी थी जिसमें किसानों और मज़दूरों की भूमिका और जनान्दोलनों की भूमिका को सशस्त्र क्रान्ति से जोड़ने की सोच मौजूद थी और जो एक जनवादी गणतन्त्र की स्थापना की सुनिश्चित अवधारणा प्रस्तुत कर रही थी। यह अनायास नहीं था कि आगे चलकर ग़दर पार्टी के अधिकांश क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल हो गये। ग़दर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल की विश्लेषण पद्धति में काफी हद तक जुझारू भौतिकवादी वर्ग-विश्लेषण के तत्त्व समाहित थे। भगतसिंह और उनके साथियों ने अजीत सिंह, लाला हरदयाल और कर्तार सिंह सराभा की क्रान्तिकारी जनवादी परम्परा को आगे विस्तार दिया और उसे मार्क्‍सवाद की मंज़िल तक उसी तरह आगे बढ़ाया जिस तरह रूस में प्लेख़ानोव और वेरा ज़ासूलिच आदि की पीढ़ी नरोदवाद की क्रान्तिकारी जनवादी विरासत से आगे बढ़कर मार्क्‍सवाद तक पहुँची। अन्तर सिर्फ यह था कि भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि को अपने मार्क्‍सवादी चिन्तन को सुव्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाने और उसे अमल में लाने का अवसर ही नहीं मिला।
भगतसिंह की मार्क्‍सवाद तक की यात्रा एम.एन. राय और अन्य विलायतपलट भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं से भिन्न थी। उन्होंने मार्क्‍सवादी क्लासिक्स का अध्ययन किया और इस प्रक्रिया में विकसित होती हुई दृष्टि से भारतीय समाज और राजनीति का मौलिक विश्लेषण करने की कोशिश की। यह कोशिश चाहे जितनी भी छोटी और अनगढ़ रही हो, पर इसकी मौलिकता और इसके विकास की तीव्र गति सर्वाधिक उल्लेखनीय थी। भगतसिंह और उनके साथियों ने भारत के प्रारम्भिक कम्युनिस्ट नेतृत्व की तरह सोवियत संघ और ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के दस्तावेज़ों में प्रस्तुत विश्लेषणों-निष्कर्षों को आधार बनाकर भारतीय परिस्थितियों को देखने और कार्यभार तय करने के बजाय स्वयं अपनी दृष्टि और अध्ययन के आधार पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद, कांग्रेस, गाँधी आदि के बारे में मूल्यांकन बनाये। अप्रोच की यह मौलिकता विशेष रूप से हमारे देश में उल्लेखनीय है जहाँ बड़ी पार्टियों और अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का अन्धानुकरण लगातार एक गम्भीर बीमारी के रूप में मौजूद रहा है। इस मायने में भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा आदि की विकास-प्रक्रिया माओ त्से-तुघ और हो ची मिन्ह के अधिक निकट जान पड़ती है जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व से सीखते हुए भी, अपने-अपने देशों की ठोस परिस्थितियों का स्वयं अध्ययन किया और क्रान्ति की रणनीति, आम रणकौशल और मार्ग का निर्धारण किया। ऐसा सोचने का वस्तुगत आधार है कि यदि भगतसिंह जीवित रहे होते और उन्हें अपनी सोच के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी बनाने या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर उसे अपनी सोच के हिसाब से दिशा देने का अवसर मिला होता तो शायद इस देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास, या शायद इस देश का ही इतिहास किसी और ढंग से लिखा जाता।
बहरहाल, आज ऐसा सोचने की एकमात्र प्रासंगिकता यही हो सकती है कि क्रान्तिकारी विचार और कर्म की उस अधूरी यात्रा को एक बार फिर आगे बढ़ाने और अंजाम तक पहुँचाने की बेचैनी से हर प्रगतिकामी भारतीय युवा के दिल को लबरेज़ कर दिया जाये। भगतसिंह के ही सन्देश को आधार बनाकर जन-जन तक इस सन्देश को पहुँचाना होगा कि यही साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का वह ऐतिहासिक काल है जिसकी भविष्यवाणी भगतसिंह ने की थी। कांग्रेसी नेतृत्व ने राष्ट्रीय आन्दोलन को आधी सदी पहले एक ऐसे मुकाम तक पहुँचाया, जब पूँजीवादी शासन के रूप में हमें अधूरी, खण्डित और विकलांग आज़ादी मिली और तबसे लेकर आज तक इतिहास एक अँधेरी सुरंग का दुखदायी सफरनामा बनकर रह गया। अब एक बार फिर, जैसाकि भगतसिंह ने कहा था, हमें क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़करनी होगी और साम्राज्यवाद- पूँजीवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति का सन्देश कल-कारख़ानों-झोंपड़ियों तक, मेहनतवफशों के अँधेरे संसार तक, हर जीवित हृदय तक लेकर जाना होगा। भगतसिंह का नाम आज इसी संकल्प का प्रतीक चिह्न है और उनका चिन्तन क्षितिज पर अनवरत जलती मशाल की तरह हमें प्रेरित कर रहा है और दिशा दिखला रहा है।

- सत्यम

10 जनवरी, 2006

एक कविता-संवाद

$
0
0

 सत्ता


उदय प्रकाश


जो करेगा लगातार अपराध का विरोध
अपराधी सिद्ध कर दिया जायेगा

जो सोना चाहेगा वर्षों के बाद सिर्फ़ एक बार थक कर
उसे जगाये रखा जायेगा भविष्य भर

जो अपने रोग के लिए खोज़ने निकलेगा दवाई की दूकान
उसे लगा दी जायेगी किसी और रोग की सुई 

जो चाहेगा हंसना बहुत सारे दुखों के बीच
उसके जीवन में भर दिये जायेंगे आंसू और आह

जो मांगेगा दुआ,
दिया जायेगा उसे शाप
सबसे सभ्य शब्दों को मिलेगी
सबसे असभ्य गालियां

जो करना चाहेगा प्यार
दी जायेंगी उसे नींद की गोलियां

जो बोलेगा सच
अफ़वाहों से घेर दिया जायेगा
जो होगा सबसे कमज़ोर और वध्य
बना दिया जायेगा संदिग्ध और डरावना

जो देखना चाहेगा काल का सारा प्रपंच
उसकी आंखें छीन ली जायेंगी
हुनरमंदों के हाथ
काट देंगी मशीनें


जो चाहेगा स्वतंत्रता
दिया जायेगा उसे आजीवन कारावास !
एक दिन लगेगा हर किसी को
नहीं है कोई अपना, कहीं आसपास !


----------------------------------------------------------------------------------------


एक उत्‍तरआधुनिक अरण्‍य-रोदन

(उदय प्रकाश की 'सत्‍ता'कविता का निष्‍कर्ष एक कविता के रूप में)

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


जिसने भी किया अपराध का विरोध
जिसने भी करना चाहा प्‍यार
जिसने देखने चाहे काल के सारे प्रपंच
जिसने बोलना चाहा सच
जिसने चाही स्‍वतंत्रता और सबके लिए सुख
वह रहा हमेशा ही अकेला,
उसी की छीन ली गयी आँखें,
उसी को मिला आजीवन कारावास।

न्‍याय, सत्‍य और मानवता का हर मसीहा
अंतत: रह जाता है अकेला
विचार उसे अकेला कर देता है

जिसे जनता कहते हैं वह है एक अंधी भीड़
क्रान्तियों के सभी महाख्‍यान मिथक थे जो ध्‍वस्‍त हो गये
मुक्ति भाषा का एक खेल है
जीवन स्‍वयं एक रूपक मात्र है अज्ञात रहस्‍यों का,
इतिहास अतीत का महज एक पाठ है

अत: मित्र जनो!
यदि कुछ बचा है तो अकेलापन और शाश्‍वत संशय
और अछोर करुणा की गुहार
और कुछ कविताएँ और फेसबुक-चर्चाएँ
और कुछ पुरस्‍कार
और कुछ विदेश यात्राएँ और कुछ घरेलू सुविधाएँ
और कुछ पारिवारिक निश्चिंतताएँ
स्‍वप्‍न में कुछ देवदूतों से मुलाक़ात
और जीवन में ईश्‍वर के प्रतिनिधि
दुर्दान्‍त रौद्र राग के साधक योगी से
प्राप्‍त सम्‍मान!


Viewing all 1786 articles
Browse latest View live