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धर्म और विज्ञान

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

(फेसबुक पर डाले गये राहुल सांकृत्‍यायन के उद्धरण पर सुरेश काण्‍टक ने एक टिप्‍पणी की थी, उस टिप्‍पणी के जवाब में यह टिप्‍पणी लिखी गयी है।ज्‍यादा साथियों तक पहुँचाने के लिए इसे ब्‍लॉग पर दे रही हूँ)


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अपने प्राचीन काल के गर्व के कारण हम अपने भूत के स्‍नेह में कड़ाई के साथ बँध जाते हैं और इससे हमें उत्‍तेजना मिलती है कि अपने पूर्वजों की धार्मिक बातों को आँख मूँदकर मानने के लिए तैयार हो जाएं। बारूद और उड़नखटोला में तो झूठ-साँच पकड़ने की गुंजाइश है, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में तो अँधेरे में काली बिल्‍ली देखने के लिए हरेक आदमी स्‍वतंत्र है। न यहाँ सोलहों आना बत्‍तीसों रत्‍ती ठीक-ठीक तोलने के लिए कोई तुला है और न झूठ-साँच की कोई पक्‍की कसौटी।

-राहुल सांकृत्‍यायन



धर्म वह मानव निर्मित नियमावली है जिसका सम्बंध तत्कालीन समस्याओ के समाधान से होता है , इसे रूढ् नहीँ विकाशमान स्थितियो मेँ समझना होगा । हर युग का धर्म परिवर्तनशील है ,पूर्व निर्धारित नहीँ ।
-सुरेश काण्‍टक
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 धर्म एक सुनिश्चित ऐतिहासिक  प्रवर्ग है, जिसकी हम मनमानी व्‍याख्‍या नहीं कर सकते । एक मानवेतर सत्‍ता द्वारा हमारी नियति तय किया जाना या हमारे कर्मफलों पर न्‍याय-निर्णय दिया जाना और नैतिकता के नियमों का निर्धारण किया जाना, एक पारलौकिक जगत का अस्तित्‍व में होना, आत्‍मा का गमनागमन आदि -- ये धार्मिक विश्‍व‍दृष्टिकोण के मूल तत्‍व हैं। धार्मिक विश्‍वदृष्टिकोण के पहले प्राकृतिक शक्तियों की पूजा, 'प्रोटो-टाइप'धर्म या जादुई विश्‍वदृष्टिकोण का कालखण्‍ड था। निश्‍चय ही उन युगों में पिछड़े हुए मनुष्‍य को अज्ञात प्रा‍कृतिक शक्तियों के विरुद्ध टिके रहने में, तथा आगे चलकर सामाजिक अन्‍याय के विरुद्ध लड़ने में भी धर्म ने मदद की थी। पर उसकी मुख्‍य भूमिका राजा की सत्‍ता को मानवेतर स्‍वीकृति प्रदान करने की ही थी। धर्म पिछड़ी, अवैज्ञानिक चेतना में सामाजिक यथार्थ के परावर्तन का ही एक रूप था। पुनर्जागरण के साथ 'थियोसेण्ट्रिक सोसाइटी''एन्‍थ्रोपोसेण्‍ट्रिक सोसाइटी'बनी, प्रबोधन काल ने वैज्ञानिक तर्कणा के धरातल को और ऊँचा किया और धार्मिक विश्‍वदृष्टिकोण के बरक्‍स वैज्ञानिक विश्‍वदृष्टिकोण स्‍थापित हुआ। फिर भी आज समाज में धर्म और ईश्‍वर का अस्तित्‍व प्रभावी रूप में क़ायम है और आगे भी लम्‍बे समय तक बचा रहेगा। इसका मूल  कारण है कि जीवन को चलाने वाली आज जो मूल ताक़त है -- माल-उत्‍पादन और पूँजी संचय की गतिकी -- वह आम आदमी के लिए अभी भी रहस्‍य है। इसी रहस्‍यात्‍मकता का परावर्तन ईश्‍वर की अदृश्‍य छवि में होता है। दूसरा कारण यह है कि सत्‍तासीन होने के बाद पूँजीपति वर्ग ने धर्म से ''पवित्र गठबंधन''कर लिया, उसे उत्‍पादन प्रक्रिया के लिए तो विज्ञान की ज़रूरत थी, पर जनता को नियतिवादी और निष्क्रिय बनाये रखने के लिए धर्म की ।
धर्म चाहे जितने नये-नये पैदा हों, उनकी मूल अन्‍तर्वस्‍तु वही रहेगी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रकृति और जीवन के सतत् बदलाव के साथ जीवन मूल्‍यों, नैतिक नियम-विधानों, सामाजिक-राजनीतिक ढाँचों के परिवर्तन की बात करता है। बेहतर है कि धर्म और विज्ञान  की अवधारणाओं में पूर्वानुमानों के आधार पर  घालमेल करने की जगह धर्म के इतिहास को नृतत्‍वशास्‍त्र और प्राचीन इतिहास के पुस्‍तकों से पढ़ा जाये, दिदरो, वाल्‍तेयर, टॉमस पेन के लेखन और धर्म विषयक मार्क्‍स-एंगेल्‍स और लेनिन की दार्शनिक विवेचनाओं को पढ़ा जाये और फिर एक धारणा बनायी जाये। धर्म ईश्‍वर निर्दिष्‍ट नियमों के नाम पर मानवनिर्मित नियमावली ही  होती है, पर इसकी सार्विक स्‍वीकृति मध्‍ययुग तक ही थी। हालाँकि यह नियमावली बनाने वाले उससमय भी शासक वर्ग के हितों को ही ध्‍यान में रखकर बनाते थे(कुछ सत्‍ता विरोधी विद्रोही जन-धर्मान्‍दोलनों को छोड़कर)। आज भी धर्म ''मानवनिर्मित नियमावली''है, पर उसको बनाने वाले लोग और उनका विराट तंत्र पूँजी की सेवा में सन्‍नद्ध मानव हैं, समस्‍त मानव नहीं। मुक्तिकामी शोषित-उत्‍पीडि़तों जनों को विज्ञान का नेतृत्‍व चाहिए क्‍योंकि विज्ञान प्रकृति और समाज की गति का सामान्‍यीकरण करता हुआ उसे यह विश्‍वास दिलाता है कि सामाजिक बदलाव 'चांस'का खेल या महानायकों का चमत्‍कार नहीं है, उसका एक सुनिश्चित विज्ञान है। धर्म का सार है -- रहस्‍यीकरण और अंधानुकरण। विज्ञान का सार है -- कारण-कार्य-सम्‍बन्‍धों की खोज द्वारा रहस्‍यभेदन और स्‍वतंत्र तार्किक विवेक द्वारा मार्ग चयन। विश्‍वसनीयता हासिल करने के लिए आधुनिक युग के धर्म कई बार विज्ञान का सहारा लेने का तर्काडम्‍बर करते हैं (जो विज्ञान के हाथों उसकी पराजय भी है), पर धर्म कभी विज्ञान नहीं हो सकता और वैज्ञानिक नियमों को कभी जड़-रूढ़ धर्मादेश नहीं बनाया जा सकता।






तरुण तेजपाल प्रकरण: एक विश्‍लेषण

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


अपने प्रतिष्‍ठान की मुलाजिम स्‍त्री पत्रकार के साथ तरुण तेजपाल द्वारा यौन-हिंसा के कुकृत्‍य ने तहलका-ब्राण्‍ड पत्रकारिता के चरित्र और भूमिका पर भी गम्‍भीर चर्चा की ज़रूरत पैदा कर दी है। 

यौन हिंसा प्रकरण पर मीडियाई बाज़ारू शोरगुल और सनसनीखेज रहस्‍योद्घाटन का सिलसिला अब कुछ मद्धम पड़ रहा है। अब संज़ीदगी से इसपर कुछ बातें हो सकती हैं।

तरुण तेजपाल कोई क्रान्तिकारी पत्रकार नहीं थे। उनकी खोजी पत्रकारिता यदि मात्र नेताओं और पार्टियों का भण्‍डाफोड़ करने के चलते प्रगतिशील मान ली जाये तो उन सारी बम्‍बइया मसाला फिल्‍मों को भी पक्षधर मानना पड़ेगा, जो नेताओं-गुण्‍डों के गठजोड़ को और नेताओं के भ्रष्‍टाचार को आये दिन अपना विषय बनाया करती हैं। तरुण की खोजी पत्रकारिता का रैडिकल तेवर 'मार्केटिंग स्‍ट्रैटेजी'का एक हिस्‍सा था। इस प्रकार का रैडिकल तेवर पाठक/दर्शक के लिए एक सनसनीखेज मनोरंजन मात्र होता है। वह वही देखता है जो उसे पता है। उसका प्रमाण पाकर वह संतुष्‍ट होता है और उसका निष्क्रिय गुस्‍सा थोड़ा शान्‍त होता है। ऐसी रैडिकल बुर्ज़ुआ पत्रकारिता व्‍यक्तियों या चन्‍द पार्टियों को टारगेट करती है, पूरी व्‍यवस्‍था को नहीं। भाजपा के लोगों के दंगा भड़काने की कार्रवाइयाँ या उनके नेताओं के दुरंगे भष्‍टाचार को टारगेट करती हैं, उनकी पूरी फासीवादी परियोजना को नहीं। बुर्ज़ुआ जनवाद मीडिया के दायरे में हर ऐसे विरोधी स्‍वर या आलोचनात्‍मक स्‍वर की सहर्ष अनुमति देता है, या कम से कम, उसे बर्दाश्‍त करता है जो पूरी व्‍यवस्‍था को ही कठघरे में नहीं खड़ा करता, उसकी वैधता पर ही प्रश्‍न नहीं उठाता। यह याद रखना होगा कि पूँजीवादी व्‍यवस्‍था का मीडिया केवल 'कंसेण्‍ट मैन्‍यूफैक्‍चरिंग'का ही काम नही करता, बल्कि व्‍यवस्‍था के चौहद्दी के भीतर 'डिस्‍सेण्‍ट मैन्‍युफैक्‍चरिंग'का भी काम करता है। तेजपाली पत्रकारिता भी अपने तमाम रैडिकल तेवरों के साथ इसी व्‍यवस्‍था के चाक दामन के रफूगरी का ही काम करती है।महज भाजपाई राजनीति का विरोध  किसी को प्रगतिशील नहीं बना देता। बहुत सारे बुर्ज़ुआ जनवादी सुधारवादी और बुर्ज़ुआ बौद्धिक प्रतिष्‍ठानों के सिरमौर हैं जो भाजपा या किसी भी प्रकार के फासीवाद के विरोधी हैं। कुछ चैनल और पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिन्‍होंने अपनी सामग्री के 'टारगेट कन्‍ज्‍यूमर'के रूप में समाज के उस सुधारेच्‍छुक, व्‍यवस्‍था से क्षुब्‍ध (पर आमूल बदलाव के प्रति निराश या असहमत) और कुछ सेक्‍युलर-प्रबुद्ध नागरिक को चुना है, जो या तो सामाजिक रूप से निष्क्रिय होता है या भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध जंतर-मंतर पहुँचकर, 16दिसम्‍बर की घटना पर इण्डिया गेट पर मोमबत्तियाँ जलाकर या फेसबुक पर सरकार को कोसकर अपनी कर्तव्‍य-पूर्ति के प्रति आश्‍वस्‍त हो जाता है। समाज के ऐसे ही लोगों को 'तहलका'की पत्रकारिता में प्रगतिशीलता दिखती है। 

तरुण तेजपाल पहले एक पत्रकार थे, जिन्‍होंने फिर 'तहलका'को स्‍वतंत्र प्रतिष्‍ठान बनाया। अख़बार मालिकों के अंकुश से मुक्ति के लिए यदि कोई पत्रकार स्‍वयं एक व्‍यावसायिक प्रतिष्‍ठान 'कम्‍पनी'बनाकर अपना अख़बार निकालेगा तो वह वैकल्पिक जन-मीडिया का हिस्‍सा नहीं बनेगा, बल्कि कालांतर में पूँजी और बाज़ार का तर्क़ खुद उसी को अपना ग़ुलाम बना लेगा। आज से डेढ़ सौ वर्षों पहले पत्र-पत्रिकाओं की स्‍वंतत्रता पर ब्रिटेन में जारी वाद-विवाद में हिस्‍सा लेते हुए मार्क्‍स ने यह विचार रखा था कि पूँजीवादी समाज में पत्र-पत्रिकाओं की स्‍वतंत्रता व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता से अधिक कुछ भी नहीं रह जाती। ''व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता, सम्‍पत्ति, अन्‍त:करण, पत्र-पत्रिकाओं, न्‍यायालयों की स्‍वतंत्रता -- ये सब एक ही जाति के, यानी नामरहित सामान्‍य स्‍वतंत्रता के विभिन्‍न रूप हैं।'' ...''व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता ठीक व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता है, और कोई स्‍वतंत्रता नहीं, इसलिए कि उसके अन्‍तर्गत व्‍यवसाय का स्‍वरूप अपने जीवन के आन्‍तरिक सिद्धान्‍त के अनुसार निर्बाध रूप से विकसित होता है।''-(कार्ल मार्क्‍स)

तरुण तेजपाल के सामने दो रास्‍ते थे। या तो किसी पत्र-पत्रिका के मुलाजिम बने रहते या कम्‍पनी बनाकर, शेयर जुटाकर, ठोस 'मार्केटिंग स्‍ट्रैटेजी'बनाकर खुद ही पत्र-पत्रिका के मालिक बन जाते। पहली स्थिति में वे एक बौद्धिक उजरती गुलाम होते और दूसरी स्थिति में एक पूँजी प्रतिष्‍ठान के स्‍वामी। उन्‍होंने दूसरा रास्‍ता चुना और उस स्थिति में उनका पेशेवर और व्‍यक्तिगत जीवन मीडिया व्‍यवसाय के आन्‍तरिक नियमों से अनुकूलित-संचालित होने लगा। और कुछ हो भी नहीं सकता था। अब वे पहले एक कारोबारी थे, पत्रकार नहीं। खोजी पत्रकारिता उनका कारोबार था। तथाकथित रैडिकलिज्‍़म उनका मुखौटा था। बेशक़ 'तहलका'में ऐसे विभ्रमग्रस्‍त युवा पत्रकार भी हैं, जो समझते हैं कि वे किसी बड़े सामाजिक मिशन को अंजाम दे रहे हैं। उनके बारे में बस कवि मनमोहन की डायरी के ये शब्‍द ही पर्याप्‍त है: ''किसी भी कुटिल परियोजना को सफल बनाने में बहुत से प्रतिभाशाली, शरीफ, भले और भोले लोगों का योगदान रहता है।''

कार्ल मार्क्‍स ने स्‍पष्‍ट लिखा है: ''पत्र-पत्रिकाओं की मुख्‍य स्‍वतंत्रता व्‍यवसाय न होने में निहित है।''यानी बाज़ार के तर्क़ से अलग जनता से संसाधन जुटाकर, सुनिश्चित साझा प्रतिबद्धता वाले लोगों द्वारा, मालिक या वेतनभोगी के रूप में नहीं, बल्कि प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में की जाने वाली पत्रकारिता ही पूँजी और बाज़ार के तर्क से वास्‍तव में स्‍वतंत्र हो सकती है। तेजपाल का न तो यह मक़सद था, न ही उनके पास ऐसा विचार था और न ही उन जैसे चन्‍द लोगों के बूते की यह बात थी।

एक मीडिया प्रतिष्‍ठान के मालिक के रूप में तेजपाल जब एक व्‍यवसायी बन गये तो खोजी पत्रकारिता के जिस ब्राण्‍ड ने उन्‍हें स्‍थापित किया था, उसे बनाये रखने के लिए बाज़ार की प्रतिस्‍पर्धा में उन्‍हें वह स‍ब करना था जो एक पूँजी प्रतिष्‍ठान का मालिक करता है। शेयर लगाने के लिए, विज्ञापन जुटाने के लिए, बाज़ार की 'कुत्‍ता खाये कुत्‍ता'वाली होड़ में टिके रहने के लिए एक पूँजीपति जो-जो करता है, तेजपाल को वह सब करना ही था। बाज़ार का एक ही तर्क होता है: या तो किसी तरह से प्रतिस्‍पर्धी को पीछे छोड़कर आगे बढ़ो या समाप्‍त हो जाओ। वहाँ नैतिकता और उसूल की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। मीडिया जगत में उग्र हो चुकी इजारेदारी की प्रवृत्ति के इस दौर में छोटे प्रतिष्‍ठान तरह-तरह की बाज़ारू तिकड़मों, राजनीतिक मिलीभगत और पूँजी-बाज़ार के तमाम कपट-प्रबंधों में शामिल होकर ही टिके रह सकते हैं। तरुण तेजपाल कुशलतापूर्वक यह खेल रहे थे, पर एक सफल व्‍यवसायी के अतिआत्‍मविश्‍वास, ग्‍लैमर से पैदा हुए गुरूर और उन जैसे तमाम धनपतियों के जीवन में अन्‍तर्व्‍याप्‍त आत्मिक रुग्‍णता (जो अनिवार्यत: पुरुषवर्चस्‍ववाद और यौन निरंकुशता से भरी होती है) के उफान में उन्‍होंने गोवा में अपनी महिला सहकर्मी के साथ जो किया और लीक से हटकर उस महिला सहकर्मी ने जो हिम्‍मत दिखायी, उससे तरुण तेजपाल का पूरा मीडिया-व्‍यवसाय हिल गया। 'तहलका'के ब्राण्‍ड की चमक धूमिल हो गयी। बाज़ार में ब्राण्‍ड पर बहु‍त कुछ निर्भर करता है। अब तरुण की कम्‍पनी को आगे छोटे-बड़े शेयरधारक मिलने मुश्किल होंगे, प्रचार के लिए आमिर खान जैसे स्‍टार मिलने मुश्किल होंगे,गोवा का थिंकफेस्‍ट यदि होगा भी तो उसमें सिनेमा, समाज और राजनीति की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आने से कतरायेंगी।

अभी तक यह तहलका की हनक और तेजपाल द्वारा पत्रकारिता के इस्‍तेमाल का ही नतीज़ा था कि तरुण तेजपाल के कई वेंचर्स के घाटे में होने के बावजूद निवेशक उनमें पैसा लगा रहे थे। यह बात अब सामने आ चुकी है कि तहलका निकालने वाली प्राइवेट कम्‍पनी 'अनंत इण्डिया प्राइवेट कम्‍पनी'में पूँजीपति और राज्‍यसभा सांसद के.डी.सिंह की फर्म 'अलकेमिस्‍ट'की 65.75  फीसदी हिस्‍सेदारी है। अनंत मीडिया को 2011-12 में कुल 13करोड़ का घाटा हुआ था। लेकिन कम्‍पनी के इस घाटे से तेजपाल के व्‍यापार साम्राज्‍य के विस्‍तार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उत्‍तराखण्‍ड और हिमाचल में उन्‍होंने काफी भूसम्‍पत्ति खरीदी है, जिनमें अधिकांश का व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल किया जाना है। उनकी 'थिंकवर्क्‍स प्राइवेट लि.'नाम की जो कम्‍पनी गोवा में हर वर्ष 'थिंकफेस्‍ट'इवेण्‍ट कराती है, उसे पिछले वित्‍तीय वर्ष में 1.99 करोड़ का मुनाफा हुआ। तेजपाल की पत्रकारिता की नैतिकता समझने के लिए यह तथ्‍य काफी है कि 'थिंकफेस्‍ट'को उन्‍हीं कुख्‍यात खनन कारपोरेशनों की स्‍पांसरशिप मिली हुई थी, जिनमें  से कुछ के काले कारनामों का 'तहलका'ने कभी भण्‍उाफोड़ भी किया था। यही नहीं, तेजपाल की एक और कम्‍पनी 'थ्राइविंग आर्टस प्रा.लि.'ग्रेटर कैलाश-2 में 'प्रूफराक'नाम से एक एक्‍सक्‍लूसिव इलीट क्‍लब बना रही है, जिसमें उसी कुख्‍यात शराब ब्‍यापारी पोंटी चड्ढा के घराने का काफी पैसा लगा हुआ है, जिसकी पिछले वर्षों हत्‍या हो गयी थी। बात साफ है। तरुण तेजपाल अब मात्र एक व्‍यवसायी हैं जिनके लिए पत्रकारिता अपने आप में तो एक व्‍यवसाय है ही, अन्‍य व्‍यवसायों को आगे बढ़ाने का एक साधन भी है।

गोवा के 'थिंकफेस्‍ट'में अपनी कनिष्‍ठ सहयोगी स्‍त्री पत्रकार पर उन्‍होंने जो यौन-हमला किया, वह आज के भारतीय बुर्ज़ुआ समाज के पूँजीपति, किसी उच्‍च कुलीन बुर्ज़ुआ बुद्धिजीवी या किसी उच्‍चपदस्‍थ बुर्ज़ुआ पत्रकार के आम व्‍यवहार की ही कोटि में आता है। कौन नहीं जानता कि आज मीडिया प्रतिष्‍ठानों में स्‍त्रीकर्मियों को कितने रूपों मे यौन-प्रताड़ना, यौन-दुर्व्‍यवहार और भयादोहनों का सामना करना पड़ता है। कुछ रोज़गार की मज़बूरी या कैरियर के लोभ  में इसे बर्दाश्‍त करती हैं और समझौते करती हैं, कुछ ताक़तवरों का खुलकर प्रतिरोध करने से डरती हैं और प्रतिष्‍ठान बदल लेती हैं या नौकरी छोड़ देती हैं। अपवादस्‍वरूप कुछ होती हैं जो आवाज़ उठाती हैं। कार्यस्‍थलों पर स्त्रियों को उत्‍पीड़न  के जिन रूपों का सामना करना पड़ता है, उनसे मीडिया प्रतिष्‍ठान अछूते कत्‍तई नहीं हैं। पत्रकारों के संगठनों के क्षरण-विघटन, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया कर्मियों के संगठन के अभाव में भी ठेकाकरण-विनियमितीकरण की आम प्रवृत्ति ने आम तौर पर मुलाज़ि‍म पत्रकारों की असुरक्षा को बढ़ाया है। इस चीज़ का भी, जैसा कि रोज़गार के सभी क्षेत्रों में होता है, ज्‍़यादा प्रभाव स्‍त्री मीडियाकर्मियों पर पड़ा है।

तेजपाल-प्रकरण के तीन पहलू हैं। एक तो मीडियाजगत के पूरे माहौल और उसमें कार्यरत स्त्रियों की स्थिति का यह एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। दूसरे, यह कुलीन बौद्धिक समाज और समाज के ऊपर के तबकों के मानस में गहराई तक पैठे सांस्‍कृतिक पतन और प्रबुद्ध लबादे में ढँके वहशी किस्‍म के पुरुष स्‍वामित्‍ववाद को बेनकाब करता है। तीसरे, आम तौर पर नवउदारवादी दौर के भारत में रहे-सहे जनवादी स्‍पेस का जो संकुचन हो रहा है, बाज़ारीकरण की प्रवृत्ति जिस किस्‍म की स्‍त्री-विरोधी निरंकुशता को जन्‍म दे रही है, पुराने मध्‍ययुगीन पुरुषस्‍वामित्‍ववाद की मानसिक स्थिति के साथ आधुनिक बुर्ज़ुआ स्‍त्री-विरोधी सर्वसत्‍तावाद का जो सम्मिलन हो रहा है -- उसकी अभिव्‍यकित सभी धरातलों पर सामने आ रही है। आश्‍चर्य नहीं, कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान समाज के हर संस्‍तर पर स्‍त्री पर जघन्‍य-बर्बर अत्‍याचारों की घटनाएँ लगातार बढ़ती गयीं हैं। कई नेताओं, अफसरों और साधु-संतों द्वारा यौन-अपराधों की घटनाओं के बाद अब एक जाने-माने पत्रकार, खरबों के सम्‍पत्ति-साम्राज्‍य वाले बाप-बेटे दो संत और सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्‍यायाधीश एवं एक राज्‍य के मानवाधिकार आयोग के अध्‍यक्ष भी आज ऐसे ही आरोपों को लेकर कटघरे में हैं। यह पूरे सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य की पतनशीलता का ही एक पहलू है। यह असाध्‍य संकटग्रस्‍त बुर्ज़ुआ समाज की असाध्‍य नैतिक-सांस्‍कृतिक व्‍याधियों की ही एक अभिव्‍यक्ति है।

फेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ 'इम्‍प्रेशंस':

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फेसबुक की 'वर्चुअल'दुनिया जहाँ तक 'रीयल'दुनिया  का प्रतिबिम्‍बन है और 'रीयल'दुनिया में सार्थक सामाजिक-सांस्‍कृतिक रूप से सक्रिय लोगों के बीच संवाद-संबंद्ध का माध्‍यम है, वहाँ तक तो इस 'स्‍पेस'के इस्‍तेमाल की सार्थकता समझ में आती है, बाकी सबकुछ निरर्थक प्रतीत होता है।

(1) बहुत सारे लोग फेसबुक पर बहुत सारा समय खपाकर राजनीति-साहित्‍य-समाज के बारे में अपनी दिवालिया समझ का जो प्रदर्शन करते रहते हैं, उसका छोटा सा हिस्‍सा भी वे देश-दुनिया, इतिहास और साहित्‍य-सैद्धांतिकी के अध्‍ययन पर ख़र्च करते तो हिन्‍दी समाज का बहुत भला होता।

(2) दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फेसबुक भरा रहता है। सस्‍ती तुकबंदियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही 'कवि'जोड़े हुए फेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्‍याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्‍हें विश्‍व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पंत, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी सम‍कालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्‍य-सैद्धांतिकी पढ़नी चाहिए। हिन्‍दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़तोड़कर कोई भी गण्‍यमान्‍य बन जाये। खूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर  उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्‍तों को सुनाइये। फेसबुक एक सार्वजनिक स्‍पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्‍हें बोर करने का काम ठीक नहीं  है।

(3) और कुछ लोग तो बस यही बयान करने में रहते हैं कि इस समय उनके दिल पर क्‍या गु़ज़र रही है! उदासी, बेवफ़ाई, यादें, तनहाइयाँ -- वास्‍तविक दुनिया में तो सुनाने को कोई दोस्‍त है नहीं, किसी के पास फुर्सत है नहीं, सो फेसबुक पर ही सबकुछ उड़ेलकर रख देते हैं, खोमचा लगाकर बैठ जाते हैं अपनी निजी अनुभूतियों-भावनाओं का। ख़ैर, इससे यह तो पता चलता ही है कि समाज में 'एलि‍यनेशन'कितना बढ़ गया है! कुछ बोर होते, निरर्थक बैठे लोग दिनों-रात फेसबु‍क पर बैठे अपनी दिनचर्या बयान करते रहते हैं, 'शुभ प्रभात'बोलने से 'शुभ रात्रि'बोलने तक! यह भी बताते रहते हैं कि उनके बच्‍चे के कितने दाँत निकले! अरे, किसकी दिलचस्‍पी है! अपने परिजनों-मित्रों को चाय पर बुलाकर बताइये न! आप कहाँ जा रहे है कहाँ से आ रहे हैं, इसमें किसकी दिलचस्‍पी है? यदि सम्‍भव हो तो छायाचित्रों सहित कोई अच्‍छा-सा यात्रा-वृत्‍तांत लि‍खिये! वह ज़रूर बहुतों के लिए उपयोगी होगा।

(4) कुछ लोग  न जाने क्‍यों अपनी या अपनी पत्‍नी की या बच्‍चों की तस्‍वीरें ही समय-समय पर अलग-अलग अदाओं में प्रस्‍तुत करते हैं। कुछ स्त्रियाँ भी फेसबुक पर बस तरह-तरह की ''लुभावनी''और नयी-नयी अदायें दिखाने में ही मशग़ूल रहती हैं। ग़जब की आत्‍मुग्‍धता और प्रदर्शनधर्मिता का धकापेल मचा रहता है। घर मित्रों को बुलाकर अलबम दिखा लीजिये। फेसबुक पर तो जो आपके सीधे मित्र नहीं हैं, उन्‍हें भी क्‍यों बोर करतीं/करते हैं! कुछ स्त्रियाँ बस अपनी भाँति-भाँति की तस्‍वीरें पोस्‍ट करती रहती हैं और कुछ पुरुष बस इसीलिए फेसबुक पर मौज़ूद रहते हैं कि ऐसी अदाएँ देखते ही 'हाय! ग़जब!'टाइप कमेण्‍ट पोस्‍ट कर दें।

(5) बुर्ज़ुआ समाज में वास्‍तविक दुनिया में मित्रता और लगाव का स्‍पेस सिकुड़ता जा रहा है, फलत: थके-हारे अवसादग्रस्‍त-अलगावग्रस्‍त लोग या ख़ाली बैठे लोग आभासी दुनिया को ही भाव-प्रकटन के लिए अपना शरण्‍य बना रहे हैं और मानवीय नैकट्य के मिथ्‍याभास में जी रहे हैं।

(6) फेसबुक मुख्‍य मीडिया द्वारा दबाई सूचनाओं को फैलाकर, दुनिया भर से उन्‍हें छाँट-बटोरकर प्राय: वैकल्पिक मीडिया का काम करता है। यह कई बार सार्थक बहस और समान विचार के लोगों के बीच संवाद और परिचय का अच्‍छा माध्‍यम भी बनता है। दूसरी ओर, यह समाज को एक मिथ्‍याभास भी दे रहा है, 'वर्चुअल'को 'रीयल'का स्‍थानापन्‍न बना रहा है। फिलहाल, जनपक्षधर विचारों की अपेक्षा बुर्ज़ुआ विचारों और कूपमण्‍डूकता का फैलाव ही फेसबुक पर ज्‍़यादा दीखता है।

(7) तर्कशील, प्रगतिकामी, समाज-सम्‍पृक्‍त जनों को विशेष कोशिश करनी चाहिए कि फेसबुक सार्थक विचारों के विनिमय और संवाद के मंच के रूप में ज्‍़यादा से ज्‍़यादा प्रभावी भूमिका निभाये। भारतीय समाज को आज संजीदा वैचारिक-सांस्‍कृतिक माहौल की सख्‍़त ज़रूरत है। भँड़ास निकालने, आत्‍ममुग्‍धता-प्रदर्शन, खिलंदड़ेपन और सतही भावुकता के घटाटोप से फेसबुक का फेस ही भोंड़ा-भद्दा लगने लगता है।
यह एक विनम्र निवेदन है। कृपया कोई अन्‍यथा न ले। 

हमको फासीवाद माँगता!

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

देशी-विदेशी पूँजीपति, बड़े व्‍यापारी, सट्टाबाज़ार के खिलाड़ी, उच्‍च मध्‍यवर्ग के ज्‍़यादातर लोग, कारपोरेट कल्‍चर में  लिथड़े यप्‍पी-शप्‍पी -- सभी व्‍यग्र हैं। वे चीख रहे हैं -- 'हमको फासीवाद माँगता।'असाध्‍य ढाँचागत संकटों से ग्रस्‍त-त्रस्‍त, हाल के वर्षों में दुनिया के विभिन्‍न हिस्‍सों में उठ खड़े होने वाले जनविद्रोहों से अचम्भित-आतंकित पूँजी चीख रही है -- 'भारत जैसे विश्‍व बाज़ार के महत्‍वपूर्ण हिस्‍से में हमको कोई गड़बड़ी नहीं माँगता! हमको फासीवाद माँगता!'

वैसे कारपोरेट घरानों ने पुरानी वफादार पार्टी कांग्रेस का विकल्‍प भी सुरक्षित रखा है। मतदान की रेस में दाँव दोनों घोड़ों पर लगा है, पर ज्‍़यादा पैसा भाजपा पर लगा है जिसने नव फासीवाद के सी.ई.ओ. नरेन्‍द्र मोदी का चेहरा आगे किया है, जिसका चाल-चेहरा ही नहीं चरित्र भी हिटलर जैसा है, नीतियाँ-रणनीतियाँ ही नहीं बोली-भाषा भी हिटलर जैसी है।

पिछले दिनों हुए एक सर्वेक्षण में, देश के सौ कारपोरेट लीडरों में से 74 ने मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना पसंद किया। 'सी.एल.एस.ए.'और 'गोल्‍डमैन सॉक्‍स'के बाद अब जापानी ब्रोकरेज कं. 'नोमुरा'को भी भारत में 'मोदी लहर'चलती दीख रही है। 'टाइम'पत्रिका द्वारा वर्ष के सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति के चयन के लिए जारी प्रतिस्‍पर्धा में मोदी दूसरे नम्‍बर पर चल रहा है। ध्‍यान रहे कि इसी पत्रिका ने दो बार हिटलर को 'वर्ष का सबसे महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति'घोषित किया था। अभी एक स्टिंग ऑपरेशन से खुलासा हुआ कि आई.टी. कम्‍पनियाँ किस तरह भाजपा से सुपारी लेकर मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया का इस्‍तेमाल कर रही हैं। प्रिण्‍ट मीडिया में भाजपा समर्थित 'पेड न्‍यूज'की भरमार है। चैनल ज्‍़यादातर तरह-तरह के प्रायोजित सर्वेक्षणों से मोदी लहर को हवा देने में लगे हुए हैं।

यानी पूँजीपतियों-बैंकरों-व्‍यापारियों-कुलकों और तमाम उच्‍चमध्‍यवर्गीय परजीवी खटमलों-जूँओं-मच्‍छरों को 'गुजरात मॉडल'चाहिए। वे मचल रहे हैं: 'मोदी आओ, पूरे देश को गुजरात बनाओ।''कुछ दंगे हों, कुछ राज्‍य-प्रायोजित नरसंहार हों, कोई बात नहीं, फिर डंडे को ज़ोर से निवेश-अनुकूल माहौल बनाओ, 'डीरेग्‍यूलेशन'करो, 'टैक्‍स-ब्रेक'दो, हर काम में 'पी.पी.पी.'कर दो, श्रम क़ानूनों को पूरी तरह ताक़ पर धर दो, मज़दूरों की हर आवाज़ को कुचल दो, और हमारे सारे कष्‍ट हर लो' -- पूँजीपतियों की यही माँग है। वैसे नवउदारवादी नीतियों के प्रति कांग्रेस भी कम वफ़ादार नहीं है। पर पूँजीपति वर्ग बहुत जल्‍दी में है, उदि्वग्‍न है, व्‍यग्र है, चिन्तित है, भयातुर है। इसलिए वह मोदी को अवसर देने के पक्ष में ज्‍़यादा हे। वैसे मोदी आयें या राहुल, एक बात तय है, सरकार तो पूँजीपतियों की ही बनेगी।

हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष: बुद्धिजीवियों के लिए कुछ व्‍यावहारिक प्रस्‍ताव

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

मोदी प्रधानमंत्री बने या न बनें, भाजपा सत्‍ता में आये या न आये, आने वाले समय में हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद भारतीय राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्‍य पर एक प्रभावी विनाशकारी मौज़ूदगी बनाये रखेगा। फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन है जो समाज में तृणमूल(ग्रासरूट) स्‍तर पर पर अपने सामाजिक आधार का तानाबाना बुन रहा है। व्‍यापक आम जनता पर तृणमूल स्‍तर पर काम करके ही उसका मुक़ाबला किया जा सकता है। नवउदारवाद के दौर में, संकटग्रस्‍त पूँजीवादी समाज फासीवाद को आज नया भौतिक आधार दे रहा है। बुर्ज़ुआ जनवाद का सीमित स्‍पेस भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है।

ऐसे में, सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की जो भारी आबादी है, वह केवल सीमित प्रसार वाली पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर, सेमिनार करके, शहरों में कुछ रैलियाँ निकालकर और फेसबुक पर मोदी और संघ परिवार पर, उनके चाल-चेहरा-चरित्र पर, उनकी मूर्खताओं और झूठ पर टिप्‍पणियाँ करके इस जनद्रोही राजनीति का प्रभावी प्रतिकार नहीं कर सकता। हमें कुछ ज़मीनी कार्रवाई करनी होगी। घरों से बाहर सड़कों पर निकलना होगा। जनता के बीच जाना होगा। वरना इतिहास हमें हमारे 'पैस्सिव रैडिकलिज्‍़म'के लिए कभी माफ नहीं करेगा।

देश के आधे सेक्‍युलर प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी यदि मिलकर कोशिश करें तो बहुत कुछ कर सकते हैं। अन्‍य मुद्दों पर मतभेद हो सकते हैं, पर इस मामले में तो हम एकमत हो ही सकते हैं। हमारे अनुभवों के आधार पर मेरे कुछ सुझाव हैं। कृपया इनपर विचार करें।

(1) सभी सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को अपने शहरों-कस्‍बों-गाँवों में धार्मिक कट्टरपंथ के विरुद्ध, उसकी राजनीति और उसकी भीषण परिणतियों को बताते हुए पर्चे निकालने चाहिए। अपने जैसे लोगों को लेकर घर-घर और नुक्‍कड़-चौराहों पर पर्चे बाँटकर प्रचार कार्य करना चाहिए। कम से कम हर सप्‍ताह के शनिवार-रविवार और छुट्टियों के दिन, आधे‍ दिन का समय देकर तो आप यह कर ही सकते हैं।

(2) जहाँ सम्‍भव हो वहाँ सांस्‍कृतिक टोलियाँ बनाकर इस काम को निरंतरता के साथ चलाया जा सकता है।

(3) आप जहाँ भी रहते हों, अपने आस-पास की मज़दूर बस्तियों में जुटान के ऐसे अड्डे तैयार करें जहाँ एक प्रगतिशील साहित्‍य का पुस्‍तकालय हो, हफ्ते मे कम से कम दो दिन मज़दूरों के बच्‍चों को किशोरों और युवाओं को अनौपचारिक शिक्षा दी जाये, यानी उनकी कोर्स की तैयारी में मदद के साथ-साथ राहुल, भगतसिंह आदि के बारे में बताया जाये, उनका साहित्‍य पढ़ाया जाये, दुनिया की क्रान्तियों के बारे में, मानव समाज की विकास के बारे में, जाति-पाँति और धार्मिक कट्टरता की बुराइयों के बारे में बताया जाये। उसी स्‍थान पर हफ्ते में एक-एक दिन शाम को पुरुष मज़दूरों और स्‍त्री मज़दूरों को भी शिक्षा दी जाये, उनके क़ानूनी अधिकारों, उनके राजनीतिक लक्ष्‍य, मज़दूर संघर्षों के राष्‍ट्रीय-अन्‍तरराष्‍ट्रीय इतिहास, स्त्रियों के ग़ुलामी के कारण, जाति और धार्मिक कट्टरता आदि के बारे में शिक्षित किया जाये। स्‍कूलों-कॉलेजों की लंबी छुट्टियों के समय सांस्‍कृतिक कार्यशालाएँ लगाई जायें। ऐसी जगहों पर समय-समय पर अच्‍छी बाल फिल्‍मों, प्रगतिशील फिल्‍मों और डाक्‍यूमेटरीज़(विशेषकर संघ परिवार के कुकृत्‍यों पर) दिखायी जायें, तो और अच्‍छा होगा। मेहनतक़श आबादी के बीच सामाजिक रूढि़यों के विरुद्ध प्रचार पर विशेष बल देना होगा, क्‍योंकि फासीवादी इन्‍हीं रुढ़ि‍यों के चलते अपना समर्थन-आधार बनाने में सफल होते हैं।

(4) इतिहास गवाह है कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से सचेतन और सक्रिय बनाये बिना फासीवादी लहर का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। चुनावी वाम दलों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है, बल्कि उल्‍टे केवल आर्थिक लड़ाइयों और सौदेबाजियों में उलझाकर मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को विघटित करने का ही काम किया है। बिखरे हुए क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट ग्रुप मज़दूरों में नगण्‍य प्रभाव रखते हैं और वे भी जुझारू अर्थवाद और स्‍वत:स्‍फूर्ततावाद में ही फँसे हुए हैं। उनका एक प्रभावी हिस्‍सा वाम दुस्‍साहसवाद में धँसा हुआ है, शेष भारतीय समाज की ग़लत समझ (नवजनवादी क्रांति की मंजिल की समझ) के आधार पर मालिक किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं, भूमि वितरण की पुरानी माँग पर क़ायम हैं और व्‍यवहारत: नरोदवादी आचरण कर रहे हैं। मज़दूर वर्ग उनके एजेण्‍डे पर है ही नहीं। जहाँ तक असंगठित मज़दूरों की भारी आबादी का सवाल है, उन मे किसी की पहुँच न के बराबर है। इसका फासीवादियों को बहुत लाभ मिलेगा, यूँ कहें कि मिल रहा है। सोचना होगा कि इस समस्‍या को हल करने में क्‍या सेक्‍युलर, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की कोई भूमिका हो सकती है? वे कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपनी दिनचर्या, घर-बार और नौकरी से कुछ समय निकालकर, समान विचार वाले कुछ साथियों को जुटाकर मज़दूर आबादी को राजनीतिक चेतना देने के लिए प्रचार के कुछ रूप अपनायें, मज़दूरों को उनके जनवादी अधिकारों के बारे में बतायें, श्रम क़ानूनों के बारे में बतायें, असंगठित मज़दूरों को संगठित होने के बारे में बतायें। इतना बहुत कम है, इतना तो किया ही जा सकता है।

(5) बेरोज़गार-अर्द्धबेरोज़गार, निराश मध्‍यवर्गीय युवाओं के भीतर से फासीवादी भरती करके अपनी वाहिनियाँ तैयार करते रहे हैं। अत: ज़रूरी है कि मध्‍यवर्गीय बस्तियों-मुहल्‍लों में और गाँवों की ऐसी आबादी के बीच भी युवाओं के सांस्‍कृतिक केन्‍द्र (पुस्‍तकालय, खेलकूद क्‍लब, फिल्‍म प्रदर्शन, सांस्‍कृतिक आयोजन आदि) विकसित किये जायें, जाति-पाँत और साम्‍प्रदायिकता पर उन्‍हें भगतसिंह, राहुल से लेकर अन्‍य विचारकों तक के लेखन से परिचित करायें और उन्‍हें संगठन बनाने की दिशा में प्रेरित करें।

फासीवादी उभार के वि‍रुद्ध लड़ाई एक लम्‍बी लड़ाई है, यह एक किस्‍म का 'पोज़ीशनल वारफेयर'है। यदि जनपक्षधर बुद्धिजीवी समाज महज़ लिखने-पढ़ने, फेसबुक पर लगे रहने और फालतू के बौद्धिक शग़ल एवं चिमगोइयों में डूबे रहने के बजाय कुछ समय निकालकर, साहस के साथ, सामाजिक सरगर्मियों में भागीदारी के लिए आगे नहीं आयेगा तो पूरे समाज सहित उसे भी फासीवादी कहर का दण्‍ड भुगतने के लिए तैयार रहना होगा, इतिहास के संग्रहालय में कालिखपुता मुँह लेकर बुत बनकर खड़ा रहने के लिए तैयार रहना होगा। पास्‍टर निमोलर की कविता और ओतो रेने कास्तिलो की कविता (अराजनीतिक बुद्धिजीवी) तो आप सबने पढ़ी ही होगी। गोर्की, लूशुन, नाज़ि‍म हिक़मत, नेरूदा, रॉल्‍फ फॉक्‍स आदि के उद्धरणों को दुहराने-चेंपने भर से कुछ नहीं होगा। समय आ गया है कि थोड़ी उन जैसी ज़ि‍न्‍दगी जीने की भी जहमत उठाई जाये, जोखिम मोल लिया जाये।

गन्‍ना किसानों की तबाही पर जारी चर्चा में कुछ ज़रूरी सवाल

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

गन्‍ना किसानों का संकट पूँजीवादी खेती का आम संकट है, जिसमें बीच-बीच की राहत के बावजूद, मालिक किसानों को, विशेषकर छोटी मिल्कियत वालों को लुटना-पिसना ही है। पूँजीवाद में कृषि और उद्योग  के बीच बढ़ता अंतर मौज़ूद रहेगा और संकटकाल में, ज्‍यादा उत्‍पादकता वाले  उद्योगों के मालिक कम उत्‍पादकता वाली खेती के मालिकों को दबायेंगे  ही। नतीज़ा -- पूँजीवादी दायरे में छोटी किसानी की तबाही, कंगाली, भूस्‍वामित्‍व के ध्रुवीकरण और कारपोरेट खेती के तरफ क्रमिक संतरण की गति बीच-बीच में मंद हो सकती है, पर दिशा नहीं बदल सकती। हम पीछे नहीं लौट सकते। नरोदवाद और सिसमोंदी का यूटोपिया सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में ग़लत सिद्ध हो चुका है। खेती के संकट और छोटे मालिक किसानों की तबाही का एकमात्र समाधान खेती का समाजवादी नियोजन ही है जो क्रान्ति के बाद ही सम्‍भव है। हमें मध्‍यम किसानों को य‍ह समझाना होगा । और आने वाले दिनों में हालात भी उन्‍हें यह समझने के लिए बाध्‍य कर देंगे ।

मगर मेरे वामपंथी साथियो, सिर्फ मालिक गन्‍ना किसानों की तबाही पर ही छाती पीटते रहोगे या उ.प्र. के चीनी मिलों में कार्यरत उन लाखों अस्‍थायी, कैजुअल, सीज़नल और दिहाड़ी मज़दूरों के बारे में भी कभी बात करोगे, जिनके लिए काम के घण्‍टे, रोज़गार-सुरक्षा, न्‍यूनतम वेतन, स्‍वास्‍थ्‍य  सुविधा आदि से जुड़े श्रम क़ानूनों का कोई मतलब ही नहीं है और जो नारकीय स्थितियों में काम करते हैं! जो थोड़ी से स्‍थायी मज़दूर हैं, उनकी भी कोई ख़ास अच्‍छी स्थिति नहीं है। यूनियनें कहीं भी नहीं हैं और यदि हैं भी तो निष्‍प्रभावी हैं या दल्‍लों के गिरोह हैं। ''वामपंथी''दल और धरतीपकड़ पत्रकार उन लाखों फार्म मज़दूरों की ज़ि‍न्‍दगी और रोज़गार की परिस्थितियों की भी चर्चा तो दूर, उनपर ध्‍यान तक नहीं देते, जो उ.प्र. और उत्‍तराखण्‍ड  के तराई इलाके और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के बड़े फार्मो में काम करते हैं।

सर्वहारा को छोड़कर मालिक किसानों की ''विपदा''पर शोक मनाना -- यह वामपंथ की सही राजनीति नहीं है, यह मज़दूर-किसान संश्रय की राजनीति भी नहीं है, यह शुद्ध सरल नरोदवाद है, यूटोपियाई  ''किसानी समाजवाद''है। सर्वहारा हितों के केन्‍द्र में रखकर मज़दूर-किसान संश्रय के साझा मुद्दों का चार्टर बनाना कम्‍युनिस्‍टों का काम है, न कि खेती के लागत मूल्‍य को कम करने और कृषि-उत्‍पादों के लाभकारी मूल्‍य की लड़ाई लड़ना। 

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चित्रकार का स्‍टूडियो(एक यथार्थ-रूपक)

गुस्‍ताव कूर्बे


हमारे समय की सभ्‍यता-समीक्षा के बारे में

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--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

आज से तकरीबन आठ-नौ दशक पहले,जब जर्मनी और इटली में फासीवाद बर्बरता के नये कीर्तिमान स्‍थापित कर रहा था,उससमय समूचे यूरोपीय और अमेरिकी समाज में चरम मानवद्रोही और सर्वनिषेधवादी प्रवृत्तियों ने अपने चपेट में ले लिया था। दर्शन-कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के क्षेत्र में मानवता के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की कामनाओं और स्‍वप्‍नों के स्‍थान पर मनुष्‍यता के अन्‍धकार युग की विरुदावलियों और चरम निराशावाद का बोलबाला था। मानवीय उदात्‍तताओं के स्‍थान पर मानवीय तुच्‍छताओं को प्रतिष्‍ठापित करते हुए 'तुच्‍छता  का सौन्‍दर्यशास्‍त्र'रचा जाने लगा था। गहन अवसाद और निराशा में डूबे फिलिस्‍टाइन बुद्धिजीवी ने घोषणा कर डाली थी कि 'हमारा समय बड़े-बड़े कार्यभारों का समय नहीं है।'भविष्‍य के प्रति पूर्ण अनास्‍थाशील,आत्‍म-अलगाव,आत्‍मरति और पाशविक आनंदोपभोग के शिकार तथा आत्मिक बंजरता से ग्रस्‍त इस फिलिस्‍टाइन के बारे में तब मक्सिम गोर्की ने लिखा था:''फिलिस्‍टाइन कालातीत हो चुकी सच्‍चाइयों के क़ब्रिस्‍तान का एक जराजीर्ण रात्रिकालीन प्रहरी बन चुका है और जो स्‍वयं ही इतना अशक्‍त है कि न तो अपने काल की सीमा को लाँघकर,जो अतिजीवी के रूप में बचा हुआ है,उसमें पुन:प्राण‍प्रतिष्‍ठा  कर सकता  है और न कुछ ऐसा सृजित कर सकता है जो नवीन हो।''
उस समय यदि कहीं कुछ नया और सकारात्‍मक सृजित हो रहा था,यदि जिजीविषा और युयुत्‍सा का कोई नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचा जा रहा था,तो पृथ्‍वी के उन भूभागों में,जहाँ राष्‍ट्रीय मुक्ति युद्ध  चल रहे थे,या जहाँ समाजवाद आगे डग भर रहा था। पश्चिम में भी सिर्फ उन्‍हीं बुद्धिजीवियों में कुछ रचनात्‍मकता बची थी,जो समाजवाद के आदर्शों से प्रभावित थे।
आज से आधी शताब्‍दी या एक शताब्‍दी बाद कोई यदि वर्तमान समय की सभ्‍यता-समीक्षा लिखने की कोशिश करेगा तो इसे पूँजीवादी सभ्‍यता के बर्बरतम-जघन्‍यतम-अनुर्वरतम अंधकार युग के रूप में ही चित्रित करेगा। बीसवीं शताब्‍दी की प्रथम समाजवादी प्रयोग-श्रृंखला की पराजय के बाद और राष्‍ट्रीय मुक्ति-संघर्षों के गौरव के धूल धूसरित होने के बाद पूँजी के भूमण्‍डलीय वर्चस्‍व के इस दौर में एक बर्बर अमानवीय परिदृश्‍य हमारे सामने है। विज्ञान और तकनोलॉजी का हर विकास मेहन‍तक़शों की ज़‍न्‍िदगी के अँधेरे को और गहरा बना देता है,उनके असह्य दु:खों के सागर में निर्मित ऐश्‍वर्य के द्वीपों की चकाचौंध और बढ़ा देता है। अकूत सम्‍पदा युद्धास्‍त्रों के उत्‍पादन और रुग्‍ण विलासिता पर ख़र्च होती है। समृद्धि के शिखरों के अंधकारमय साये में लाखों बच्‍चे भूखे मरते रहते हैं,लाखों स्त्रियाँ बिकती रहती हैं। मुनाफे़ की अंधी हवस पकृति को उस हद तक तबाह कर चुकी है कि आने वाले दिनों में पृथ्‍वी पर जीवन के लिए ही संकट पैदा हो सकता है। तरह-तरह की मनोरुग्‍णता,अवसाद,आत्‍मनिर्वासन,बर्बर यौन अपराध,मनोरोगी बनाता मनोरंजन उद्योग --ये सभी सार्विक प्रवृत्तियाँ हैं। दर्शन-कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के क्षेत्र में 'महाख्‍यानों के विसर्जन''का उदघोष करके तुच्‍छताओं के नये आख्‍यान रचे जा रहे हैं,सामाजिक सरोकारों को गुज़रे ज़माने की चीज़ बताया जा रहा है। भविष्‍य-स्‍वप्‍न तिरोहित हो चुके हैं। बुद्धिजीवी जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुके हैं। चतुर्दिक मृत्‍यु संगीत,विचारहीन उल्‍लास और सत्‍ता के चारण-गीतों का गगनभेदी शोर है।
इस अंधकार-युग की सभ्‍यता-समीक्षा एक दिन वही करेंगे,जो आज के बुर्ज़ुआ समाज के अ-नागरिक हैं। बुर्ज़ुआ सभ्‍यता के आधुनिक दास यूँ ही बेबस-बेदम नहीं पड़े रहेंगे। आज के ये उजरती गुलाम अपने विमानवीकरण से अवगत हैं,इसलिए वे इसके विरुद्ध विद्रोह करेंगे ही। आने वाले दिनों में अँधेरे रसातल के अभिशप्‍त निवासियों के खौलते आक्रोश का लावा धरती की छाती फोड़कर ऊपर उठेगा और विसूवियस के विस्‍फोट की तरह आज के पाम्‍पेई की विलासिता को जलाकर राख कर देगा। यह सर्वहारा का ऐतिहासिक मिशन है। श्रम और  पूँजी के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक-महासमर का दूसरा चक्र निर्णायक होगा और इसी शताब्‍दी में होगा। मानव सभ्‍यता का नाश नहीं होगा। मानवता पूँजीवाद का नाश कर अपने को बचायेगी,मानवीय सारतत्‍व को बचायेगी।
हर जनपक्षधर बुद्धिजीवी का दायित्‍व है कि बाँझ-अनर्गल-अकर्मक बहसों और सारहीन आत्‍ममुग्‍ध रचना-कर्म के दायरे से वह बाहर निकले,जनसमुदाय को वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहास-बोध दे और पूँजीवादी समाज और सभ्‍यता की आलोचना उस रूप में प्रस्‍तुत करे जैसे आलोचना की क्रिया कोबेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट ने परिभाषित किया था:
बहुत से लोगों को
आलोचनात्‍मक रवैया कारगर नहीं लगता
क्‍योंकि वे पाते हैं
सत्‍ता पर उनकी आलोचना का कोई असर नहीं पड़ता।
लेकिन इस मामले में जो रवैया कारगर नहीं है
वह दरअसल कमज़ोर रवैया है।
आलोचना को हासिल कराये जायें
अगर हाथ और हथियार
तो राज्‍य नष्‍ट किये जा सकते हैं उससे
नदी को बाँधना
फल के पेड़ की छँटाई करना
आादमी को सिखाना
राज्‍य को बदलना
ये सब काम है कारगर आलोचना के नमूने
साथ ही कला के भी।
--बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट(आलोचनात्‍मक रवैये पर)



16 दिसम्‍बर। दिल्‍ली बलात्‍कार की घटना के बाद एक वर्ष का समय बीत चुका है।

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भूलना नहीं होगा कि उसके बाद दिल्‍ली में और पूरे देश में गिरोह-बलात्‍कार की कई घटनाएँ चर्चा में आयीं। और फिर मुजफ्फरनगर को कैसे भूला जा सकता है,जहाँ अभी-अभी गिरोह बलात्‍कार की कई जघन्‍य घटनाएँ घटीं हैं। उनपर कहीं भी उसतरह से उद्वेलन नहीं पैदा हुआ। क्‍यों?आखिर क्‍यों?
फिर 'गुजरात-2002'को कैसे भूला जा सकता है जहाँ सैकड़ों स्त्रियों के साथ फासिस्‍ट पशुओं ने गिरोह-बलात्‍कार किया और उसके बाद कइयों को ज़ि‍न्‍दा दफ़्न कर दिया या ज़ि‍न्‍दा जला दिया। गर्भवती स्त्रियों के पेट फाड़कर गर्भस्‍थ शिशुओं को त्रिशूल की नोक पर उठाकर घुमाया गया। हिन्‍दुत्‍वादी फासिस्‍टों की बर्बरता जर्मन नात्सियों से किसी भी मायने में कम नहीं।
पूँजीवादी असाध्‍य ढाँचागत संकट की अनिवार्य परिणति के तौर पर जो आत्मिक-सांस्‍कृतिक रुग्‍णता-रिक्‍तता और बर्बरता सामाजिक ताने-बाने में और राजनीतिक ढाँचे भर चुकी है,उसकी परिणति समाज के सभी दबे-कुचले वर्गों और तबकों को भुगतना ही पड़ेगा। सहस्‍त्राब्दियों से उत्‍पीडि़त स्त्रियाँ और मासूम बच्‍चे पूँजी की रुग्‍ण पागल  संतानों के सबसे आसान शिकार हैं।
पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के अंतर्गत इस समस्‍या के गम्‍भीर और विकृत होते जाने की गति को रोक पाना मुमकिन नहीं। सख्‍़त क़ानून,चाक-चौबन्‍द पुलिस व्‍यवस्‍था,जेण्‍डर-संवेदनशील न्‍यायपालिका --इन सबसे आम स्त्रियों को सुरक्षा की कोई गारण्‍टी हासिल होने वाली नहीं। बलात्‍कार,यौन आक्रमण और यौन दुर्व्‍यवहार सड़कों पर ही नहीं घरों में भी होते हैं,थानों में भी,मीडिया संस्‍थानों के दफ्तरों और आयोजनों में भी,जजों और वकीलों के चैम्‍बरों में भी,कारख़ानों से लेकर लकदक ऑफिसों तक में भी और जाति पंचायतों-खाप पंचायतों के हुक्‍म पर गाँव की सड़कों पर,चौपालों में भी।
स्‍त्री-विरोधी हिंसा के विरुद्ध यदि एक व्‍यापक सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन संगठित करने का चुनौ‍तीपूर्ण काम हाथ में नहीं लिया जायेगा,तबतक कुछ मोमबत्तियाँ जलाने और कुछ विरोध प्रदर्शनों मात्र से कुछ बुनियादी बदलाव नहीं होने का। यह केवल पिछड़ेपन से भी जुड़ा सवाल नहीं है। याद रखना होगा कि दुनिया में सबसे अधिक बलात्‍कार और यौन-अपराध सभ्‍य-सुसंस्‍कृत-समृद्ध देश स्‍वीडन में होते हैं।
कोई पूछ सकता है कि पूँजीवाद विरोधी संघर्ष और पुरुषवर्चस्‍ववाद-विरोधी सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन का रास्‍ता तो दीर्घकालिक उपाय है,तत्‍काल  क्‍या-क्‍या किया जा सकता है!काफी कुछ किया जा सकता है। हमें बस्तियों-मुहल्‍लों में स्त्रियों के और नौजवानों के चौकसी दस्‍ते बनाने होंगें,जो नशे और नशेड़ि‍यों के अड्डों,लम्‍पटों के जमावड़े के अड्डों पर हमले करें,ऐसे अपराधियों को जन अदालत लगाकर दण्डित किया जाये। सिर्फ ''क़ानून के रखवालों''के भरोसे रहने से काम नहीं चलेगा। छात्राओं को,काम करने वाली स्त्रियों और स्‍त्री सामाजिक कार्यकर्ताओं को शारीरिक शिक्षा अवश्‍य लेनी चाहिए और अपने पास 'पेपर स्‍प्रे गन'और स्विच वाला चाकू ज़रूर रखना चाहिए। मौक़ा आने पर बिना हिचके हमलावार या हमलावरों पर अधि‍कतम ख़तरनाक चोट कीजिए। आत्‍मरक्षा में कुछ भी किया जा सकता  है  --क़ानून भी यही कहता है। व्‍यक्तिगत तौर पर,हर स्‍त्री को किसी भी यौन हमले का जान लड़ाकर प्रतिकार करना चाहिए। ऐसा करने के दौरान यदि आप मारी भी गयीं तो आपकी शहादत व्‍यर्थ नहीं जायेगी। हज़ारों और लाखों स्त्रियों को ललकारने वाले वज्रघोष का काम करेगी। हमलोग भी यदि सामाजिक काम करने सड़कों पर उतरे हैं तो यह सोचकर,संकल्‍प बाँधकर उतरे हैं।

--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फासीवाद की बुनियादी समझ बनायें और आगे बढ़कर अपनी ज़ि‍म्‍मेदारी निभायें

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(1) फासीवाद क्षयमान पूँजीवाद है (लेनिन)। यह वित्‍तीय पूँजी के आर्थिक हितों की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्‍यक्ति होती है।
(2) फासीवाद कई बेमेल तत्‍वों से बना एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन है। बड़े वित्‍तीय-औद्योगिक पूँजीपतियों के एक हिस्‍से के अलावा व्‍यापारी वर्ग और कुलकों का एक हिस्‍सा भी इसका समर्थन करता है। उच्‍च मध्‍यवर्ग का एक हिस्‍सा भी इसका समर्थन करता है।
(3)फासीवाद पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में परेशानहाल मध्‍यवर्ग के पीले-बीमार चेहरे वाले युवाओं  को लोकलुभावन नारे देकर और ''गढ़े गये''शत्रु के विरुद्ध उन्‍माद पैदा करके उन्‍हें अपने साथ गोलबन्‍द करता है। बेरोजगार-अर्द्धबेरोजगार असंगठित युवा मज़दूर, जो विमानवीकरण और लम्‍पटीकरण के शिकार होते हैं, फासीवाद उनके बीच से अपनी गुण्‍डा वाहिनियों में भरती करता है।
(4)फासीवाद घोर पुरुषस्‍वामित्‍ववादी और स्‍त्री-विरोधी होता है। शुरू से किया जाने वाला  स्‍त्री-विरोधी मानसिक अनुकूलन फासीवादी कार्यर्ताओं को प्राय: सदाचार के छद्म वेष में मनोरोगी और दमित यौनग्र‍ंथियों का शिकार बना देता है।
(5) फासीवाद एक कैडर-आधारित प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन होता है, जो  समाज में तृणमूल स्‍तर  पर काम करता है। वह हमेशा कई संगठन और मोर्चे बनाकर काम करता है। हर जगह उसकी कई प्रकार की गुण्‍डावाहि‍नियाँ होती हैं। बुर्ज़ुआ जनवाद में संसदीय चुनाव लड़ने वाली पार्टी उसका महज एक मोर्चा होती है।
(6) फासीवाद हमेशा उग्र अंधराष्‍ट्रवादी नारे देता है। वह हमेशा संस्‍कृति का लबादा ओढ़कर आता है, संस्‍कृति का मुख्‍य घटक धर्म या नस्‍ल को बताता है और सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद का नारा देता है। इस तरह देश विशेष में बहुसंख्‍यक धर्म या नस्‍ल  का ''राष्‍ट्रवाद''ही मान्‍य हो  जाता है और धार्मिक या नस्‍ली अल्‍पसंख्‍यक स्‍वत: ''अन्‍य''या ''बाहरी''हो जाते हैं। इस धारणा को और अधिक पुष्‍ट करने के लिए फासीवादी इतिहास को तोड़-मरोड़ते हैं, मिथकों  को ऐतिहासिक यथार्थ बताते हैं और ऐतिहासिक यथार्थ का मिथकीकरण करते हैं।
(7)फासीवाद धार्मिक या नस्‍ली अल्‍पसंख्‍यकों को निशाना बनाने के लिए संस्‍कृति और इतिहास का विकृतिकरण करने के लिए तृणमूल प्रचार के विविध रूपों के साथ शिक्षा का कुशल और व्‍यवस्थित इस्‍तेमाल करते हैं। धार्मिक प्रतिष्‍ठानों का भी वे खूब इस्‍तेमाल करते हैं।
(8) फासीवादी व्‍यवस्थित ढंग से सेना-पुलिस-नौकरशाही में अपने लोगों को घुसाते हैं और इनमें पहले से ही मौजूद दक्षिणपंथी विचार के लोगों को चुनकर अपने प्रभाव में लेते हैं।
(9)अपनी पत्र-पत्रिकाओं से भी अधिक फासीवादी मुख्‍य धारा की बुर्ज़ुआ मीडिया का  इस्‍तेमाल कर लेते हैं। इसके लिए वे मीडिया प्रतिष्‍ठानों में योजनाबद्ध ढंग से अपने लोग घुसाते हैं और तमाम दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की शिनाख्‍़त करके उनका इस्‍तेमाल करते हैं।
(10)फासीवादी केवल इतिहास का ही विकृतिकरण नहीं करते, आम तौर पर वे अपनी हितपूर्ति के लिए किसी भी मामले में सफ़ेद झूठ को भी सच बनाकर पेश करते हैं। सभी फासीवादी गोयबेल्‍स के इस सूत्र वाक्‍य को अपनाते हैं, 'एक झूठ को सौ बार दुहराओ, वह सच लगने लगेगा।'
(11)फासीवादी हमेशा, अंदर-ही-अंदर शुरू से ही, कम्‍युनिस्‍टों को अपना मुख्‍य शत्रु समझते  हैं और उचित अवसर मिलते ही चुन-चुनकर उनका सफाया करते हैं, वामपंथी लेखकों-कलाकारों तक को नहीं बख्‍़शते। इतिहास में हमेशा ऐसा ही हुआ है। फासीवादियों को लेकर भ्रम में रहने वाले, नरमी या लापरवाही बरतने वाले कम्‍युनिस्‍टों को इतिहास में हमेशा क़ीमत चुकानी पड़ी है। फासीवादियों ने तो सत्‍ता-सुदृढ़ीकरण के बाद संसदीय कम्‍युनिस्‍टों और सामाजिक जनवादियों को भी नहीं बख्‍़शा।
(12)आज के फासीवादी हिटलर की तरह यहूदियों के सफ़ाये के बारे में नहीं सोचते। वे दंगों और राज्‍य-प्रायोजित नरसंहारों से आतंक पैदा करके धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों को ऐसा दोयम दर्जे़ का नागरिक बना देना चाहते हैं, जिनके लिए क़ानून और जनवादी अधिकारों का कोई  मतलब ही न रह जाये, वे निकृष्‍टतम श्रेणी के उजरती ग़ुलाम बन जायें और सस्‍ती से सस्‍ती दरों पर उनकी श्रमशक्ति निचोड़ी जा सके। साथ ही मज़दूर वर्ग के भीतर पैदा हुए धार्मिक पार्थक्‍य की वजह से मज़दूर आन्‍दोलन बँटकर कमज़ोर हो जाये और उसे तोड़ना आसान हो जाये।
(13)फासीवादी गुण्‍डे हर देश में हड़तालों को तोड़ने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। जहाँ भी वे सत्‍ता में आये, कम्‍युनिस्‍टों के सफाये के साथ मज़दूर आन्‍दोलन का बर्बर दमन किया।
(14) अतीत से सबक लेकर आज का पूँजीपति वर्ग फासीवाद का अपनी हितपूर्ति के लिए ''नियंत्रित''इस्‍तेमाल करना चाहता है, जंज़ीर से बँधे कुत्‍ते की तरह, पर यह खूँख्‍़वार कुत्‍ता जंज़ीर छुड़ा भी सकता है और उतना उत्‍पात मचा सकता है, जितना पूँजीपति वर्ग की चाहत कत्‍तई न हो। फासीवाद ही नवउदारवाद की नीतियों को डण्‍डे के ज़ोर से लागू कर सकता है, अत: संकटग्रस्‍त पूँजीवाद इस विकल्‍प को चुनने के बारे में सोच रहा है।
(15)यदि हमारे भीतर थोड़ा भी इतिहास बोध हो तो यह बात भली-भाँति समझ लेनी होगी कि फासीवाद से लड़ने का सवाल चुनावी जीत-हार का सवाल नहीं है। इस धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक आन्‍दोलन का मुक़ाबला केवल एक जुझारू क्रान्तिकारी वाम आन्‍दोलन ही कर सकता है।
इन बातों से जो साथी सहमत हैं, वे इसका व्‍यापक प्रचार करें और स्‍वयं भी फासीवाद-विरोधी मुहिम से सक्रिय भागीदारी के बारे में सोचें। 

Article 18

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दो छोटी कविताएँ

(एक)
सड़क पर
शर्मसार हो रही हो इंसानियत
पिस रही हो ज़ि‍न्‍दगी
खेतों-कारख़ानों में
सड़कों पर गलियों में बह रहा हो लहू
स्‍त्रीत्‍व को नोंच रहे हों गिद्ध
शैशव नीलाम हो रहा हो बाज़ारों में
ऐश्‍वर्य द्वीपों पर हो रहे हों वैभव विलास
चतुर्दिक गूँज रहे हों रक्‍तपायी प्राणियों के अट्टहास
तब केवल प्रेत कर सकते हैं अकर्मक विमर्श
पुस्‍तकों में डूबी रह सकती हैं बेजान खोपड़ि‍याँ

   
 (दो)

जो बीत गयी
वो घड़ी नहीं फिर आनी।
हारों पर,पीछे हटने पर
रोना कबतक?
पुरखों से अर्जित,गरिमामय
इतिहास-बोध की पूँजी को खोना कबतक?
इन बुद्धिविलासी,अकर्मण्‍य
तिलचट्टों,शंखढपोरों की,
इन लालबुझक्‍कड़ रायबहादुर लोगों की
लटरम-पटरम बातें सुनना
सुन-सुन करके फिर सिर धुनना --
यूँ समय नष्‍ट करना कबतक,
यॅूं बंद कपाटों के पीछे सिर-मुँह ढाँपे
सोना कबतक?
यह समय कठिन है,दुर्निवार
पर इसकी गति को हमें भाँपना होगा
बीहड़ मरुथल लंबे डग भरकर  हमें नापना होगा।
जो बीत गयी
वो घड़ी नहीं फिर आनी
जागेंगे सब
जब गहन घटा घहरानी।

--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

गुजरात - 2002 (एक बीहड़ देशकाल की बेहद सपाट कविता)

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(नरेन्‍द्र मोदी की अगुवाई में संघ परिवार का हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद ज्‍यादा उग्र, ज्‍यादा मुखर चेहरा लेकर राष्‍ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभर रहा है।भारतीय ऑशवित्‍ज़ -- 2002 के गुजरात नरसंहार को भूलना नहीं होगा। मुजफ्फरनगर-2013 हमारे सामने है। हम यहाँ कात्‍यायनी की 'गुजरात-2002'की श्रृंखला की पहली कविता दे रहे हैं। - कविता कृष्‍णपल्‍लवी)


-कात्‍यायनी

ताप से पिघली तारकोल की सड़कों पर चलते-चलते
उखड़ चुके थे जब हमारे जूतों के तल्ले
और टाँगों की मांसपेशियाँ दुखने लगी थीं फोड़ों की तरह,
तब उन्होंने अचानक धावा बोला। एक बार फिर। मानो अचानक।
समूचा फासिस्टी कचरा और गन्द भरभराकर गिरा हमारे ऊपर।
मरे हुए चूहों ने, प्लेग ने, जंग लगे फाटकों के नीचे से बहकर आती
ऐतिहासिक गन्दगी ने, पौराणिक परनाले के महादुर्गन्धित काले जल के बुदबुदों ने,
अन्ध-आस्था की श्मशानी राख ने, उन्माद की चिरांयध गंध ने,
वित्तीय पूँजी के बिलों से निकले अपराधी तिलचट्टों ने
पूरी ताकत के साथ धावा बोल दिया यात्रातुर जलयानों के मस्तूलों पर,
कपास और करघे पर, मेहनत और पसीने पर, समुद्री पक्षियों पर,
बच्चाघरों और अस्पतालों पर, कबीर बानी पर, गदरी बाबाओं की कांस्य मूर्तियों पर
भगतसिंह और उनके साथियों के स्मृतिचिन्‍हों पर,
तेभागा-तेलंगाना-नौसेना विद्रोह और नक्सलबाड़ी की विरासत पर,
तर्कणा और मानववाद पर, इतिहास पर, स्वप्नों और भविष्य भ्रूणों पर।
न तितली-कट मूँछें, न स्वास्तिक चिन्‍ह, न ‘हेल हिटलर’ के नारे,
न आर्य-रक्त की श्रेष्ठता का नस्ली अहंकार -- कुछ भी पहले जैसा नहीं था।
पर ये वही हिंस्र-धृष्ट भेड़िये थे।
आगे-आगे चलते वही स्वस्थ-चमकते चेहरे, वही मानवद्रोही आत्माएँ
और उनके पीछे पीले-बीमार चेहरे और रुग्ण मन वाले युवाओं की
वही उन्मत्त भीड़ और बहता-पसरता आता सहस्राब्दियों प्राचीन बर्बर
कूपमण्डूकता का कीचड़
रथों पर सवार, रामनामी दुपट्टा ओढ़े, धर्मध्वजा उड़ाते आये वे
एक विचारहीन, पशुवत्, सम्मोहित भीड़ लिये हुए अपने पीछे,
अयोध्या का अर्थ और बोध बदलते हुए।
नरसंहार के पहले चक्र के बाद
उन्होंने पुरातत्व-विज्ञान की खुदाई की,
इतिहास की पुस्तकों पर हमला बोला,
चित्र जलाये, फिल्मों की शूटिंग रोकी,
प्रेम प्रकट करते ”मर्यादाहीनों“ को पीटा, सड़कों पर घसीटा,
हिन्दुत्वद्रोही ईसाई धर्मप्रचारक को बच्चे सहित अग्नि समाधि देकर
उसकी आत्मा को पवित्र कर डाला,
विज्ञान की जगह ज्योतिष शास्त्र और वैदिक गणित को प्रतिष्ठित किया
और फिर गुजरात की प्रयोगशाला में न्यूटन की उपयोगिता सिद्ध की
नरमेघ यज्ञ को स्वाभाविक बतलाने में।
यहाँ हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का जुनून था और ‘जय श्रीराम’ का नारा था।
जर्मनी नहीं, इटली या स्पेन नहीं, यह भारतवर्ष था पवित्र-पावन-पुरातन।


कहीं बाहर से नहीं आये थे ये आक्रान्ता।
पूँजी के सर्वाधिक रुग्ण बीज जब रोपे गये प्रतिक्रिया की
सहस्राब्दियों पुरानी ज़मीन पर, तो ये विषबेलें उगी थीं
जो अब जीवित सर्पों में बदल चुकी थीं इतिहास के शाप से।
ये सर्प लोगों को डंसकर संसद, संविधान ओर न्यायालयों की
दरारों-बांबियों में घुसे जा रहे थे बार-बार।
दलितों, स्त्रियों, विधर्मियों और नास्तिकों के रक्त पर ही पलीं हैं
इनके पूर्वजों की पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ
और अभी भी ये पीते हैं उन्हीं के रक्त से निर्मित नये-नये आसव।
यहीं पैदा हुए हैं ये आक्रान्ता।
इनके कुछ सरगना जब संसदीय मुखौटे लगाकर तलवे चाटते हैं
वाशिंगटन-लन्दन-टोक्यो-बर्लिन-पेरिस के अधिपतियों के
तो इन्हीं में से कुछ मंच सजाकर ‘स्वदेशी-राग’ गाने लगते हैं
और तभी, इनके शस्त्रसज्जित गिरोह राष्ट्रीय गौरव की स्थापना के लिए
सबसे निरीह, सबसे बेबस, सबसे मासूम और सबसे आम लोगों पर
हमला बोल देते हैं
और नये-नये ऑसवित्ज़ रचते हैं।


गन्दगी और समस्त मानवीय चीज़ों से घृणा का सैलाब-सा
गुजर जाता है हमारे ऊपर से
और हम देखते हैं अपने चारो ओर, सड़कों पर, गलियों में फैले,
मलबे में दबे जले-अधजले शरीर, बिखरे हुए मांस के लोथड़े,
गर्भवती स्त्री का पेट चीरकर निकाले गये शिशु की छितराई बोटियाँ,
चैराहों पर, स्टेशनों और बस अड्डों पर लावारिस पड़े
चाकुओं-त्रिशूलों से गुदे-बिंधे नग्न नारी शरीर,
आसमान की ओर घूरती फटी-निर्जीव आँखें,
पत्थरों से ढंक दी गयीं बलात्कृत स्त्रियाँ
और कौवे और चीलें और गिद्ध और कुत्ते और सियार और लोमड़ियाँ और लकड़बग्घे।
और यह सब कुछ जब हो रहा होता है,
ठीक इसीसमय बजट पास हो रहा होता है
पोटा क़ानून बन रहा होता है
और ठीक इसीसमय प्रभाषजोशी टेस्ट मैच में सचिन की विफलता पर
छाती पीट रहे होते हैं,
प्रयाग शुक्ल अपने अखबारी कॉलम में प्रकृति की छटा निहार रहे होते हैं,
बशीर बद्र, यश मालवीय आदि कई कवि-शायर उत्तर प्रदेश के किसी भाजपाई
सांस्कृतिक आयोजन में महामहिम राज्यपाल, साहित्यकार विष्णुकान्त शास्त्री का
सान्निध्य-सुख लूट रहे होते हैं पंचतारा परिवेश में
और परम्परा और संस्कृति पर कहीं निर्मल वर्मा का व्याख्यान तो कहीं
विद्यानिवास मिश्र का आख्यान चल रहा होता है।


गोधरा चाहे हफ्ते भर से जारी रामसेवकों के उत्पात की प्रतिक्रिया हो,
या चाहे खुद इन्हीं की रची साजिश हो
या इन्हीं जैसे किन्हीं और तालिबान की
या आई.एस.आई. और अल-कायदा की
या फिर महज कुछ अपराधियों की करतूत रही हो,
जो गोधरा के बाद हुआ वह एकदम पूर्वनियोजित था
अनियन्त्रित दंगा नहीं, वह सत्ता द्वारा आयोजित नरसंहार था।
क्रिया से पहले ही हो चुकीं थीं प्रतिक्रिया की पूरी तैयारियाँ।
हत्यारे यहाँ-वहाँ दुबके हुए
अभी भी हमले बोल रहे हैं सहसा घात लगाकर।
तय कोटे के हिसाब से रोज़ाना होने हैं कुछ बलात्कार,
कुछ को जिन्दा जलाना है, कुछ बस्तियाँ जलानी हैं
और कुछ बच्चों के कलेजों में भोंकने हैं त्रिशूल।
चुनाव बहुत दूर नहीं हैं, तबतक माहौल बनाये रखना है
और सभी विकल्पों को खुला रखना है
और अठारह मुँहों से अठारह परस्पर-विरोधी बातें बोलते रहना है हत्यारों को


यही नहीं, आतंक और उन्माद को बनाये रखने की
और भी तरक़ीबें हैं उनके पास।
और संसद से सड़क तक उनका रस्मी विरोध जारी है!
लेकिन सवाल है अपने-आप से कि
शान्ति के गुहारों से क्या रुक सका था चार्वाकों और बौद्धों का संहार?
क्या मानवता की दुहाइयाँ दिलवा सकीं थीं
दासों, दलितों और स्त्रियों को मानव होने का अधिकार?
क्या अहिंसा से कायल किये जा सके हैं कभी भी लुटेरे और आततायी?
क्या भाईचारे का सदुपदेश सुना है कभी भेड़ियों ने?
क्या फ्रांको, मुसोलिनी, हिटलर या किसी भी तानाशाह के
हृदय-परिवर्तन का साक्षी बना है इतिहास कभी भी?
सवाल है हमारे सामने कि ग्रीज़ और कालिख सने करोड़ों हाथों में
क्यों नहीं हथौड़े सधे हैं आज आत्मरक्षा और प्रतिरोध के लिए?
इस सवाल से जूझे बग़ैर शान्ति कपोत उड़ाने और
जैतून की टहनियाँ लिये हाथों में बर्बरों की प्रतीक्षा करने से
क्या कुछ बदल सकेगा?
महज कुछ संगोष्ठियों और कुछ मानव-श्रृंखलाओं से
और कुछ मोमबत्तियाँ जलाने से
हत्या और विध्वंस के उन्मादी संकल्पों को पिघलाना सम्भव नहीं।
यदि ऐसा हो पाता तो दुनिया में आज
फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक की तबाहियों की जगह
हवा में लहराते-उड़ते रुमाल, रंगीन पन्नियाँ और पतंगें होतीं।


”मुझे बताओ --
            क्यों तुम चुप बैठे रह गये थे
मुझे बताओ!
            जब उपद्रवी पगलाये हुए थे,
क्यों नहीं तुमने उठाये हथियार
            वज्रधातु के बने अपने वे घन
और उन्हें तब पीट-पाटकर
पटरा क्यों नहीं कर डाला था
            उस फासिस्टी मलबे को?“
कवि येव्तुशेंको ने पूछा था जो सवाल
फासिस्टी उत्पात के समय फिनलैण्ड के लुहारों से
वही प्रश्न उभरता है जे़हन में
पर उसको ढाँपता हुआ उठता है यह विकट प्रश्न कि हम,
हम मानवात्मा के शिल्पी, हम जन-संस्कृति के सर्जक-सेनानी,
क्या कर रहे हैं इस समय?
क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी?
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच?
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं?
या अपने अध्ययन-कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न, या कोई जादू रच रहे हैं?
क्या हम भविष्य का सन्देश अपने रक्त से लिखने को तैयार हैं?
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतक़शों के पास
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतक़शों के पास
ललकारें उन्हें, याद दिलायें उन्हें उनके ऐतिहासिक मिशन की
और उनके पूर्वजों की शौर्यपूर्ण विजय की एक बार फिर,
और पूछें उनसे कि वे उठ क्यों नही खड़े होते
सामराजियों के दरबारी, पूँजी के टुकड़खोर,
धर्म के इन नये ठेकेदारों के तमाम षड्यंत्रों-कुचक्रों के विरुद्ध,
मुक्ति के स्वप्नों को रौंदती तमाम विनाशलीलाओं के विरुद्ध?


आखिर कब वे उठ खड़े होंगे और लोगों को बाँटने के
हर षड्यंत्र को निष्प्रभावी बना देंगे?
- हमें पूछना है उनसे जिनका कोई राष्ट्र नहीं,
इस लोक में गुलामी के नर्क से मुक्ति की राह जिन्हें कोई धर्म नहीं बताता,
जिनके पास जंजीरों के सिवा खोने को कुछ भी नहीं,
जिनकी ज़िन्दगी है एक-सी और इसलिए जो तोड़ सकते हैं
धार्मिक पूर्वाग्रहों से जन्मे मिथ्याभास,
जो धार्मिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय-नस्ली आधारों पर खड़ी
दीवारों को गिरा सकते हैं बशर्तें कि उनतक
हम एक बार लेकर जा सकें जीवन की गतिकी का ज्ञान।
वहीं पहुँचकर वह बनेगा प्रचण्ड भौतिक शक्ति
और हृदय के गुप्त पत्रों पर अंकित भविष्य के अदृश्य
रहस्य-संकेत अरुणाभा से प्रदीप्त हो उठेंगे।
समाजवाद या फिर बर्बरता -- हमें, हम सभी कवियों-लेखकों-कलाकारों को
किसी एक के पक्ष में सक्रिय होना ही होगा
हर जोखिम उठाते हुए।
कोई भी विकल्प न चुनना,
चुप रहना,
या बुदबुदाना अस्पष्ट शब्दों को
या सुगम-सुरक्षित विरोध की कोई नपुंसक राह ढूँढ़ लेना
-- यह सबकुछ और कुछ भी नहीं है
बर्बरता के पक्ष में खड़ा होने के सिवा।

(अप्रैल 2002)

कल सुबह एक संवाद जो क्रोधांतिकी सिद्ध हुआ

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(इस संवाद को 5दिसम्‍बर,2013 को मैंने फेसबुक पर डाला था)।

-- वोट डालने नहीं जा रही हैं?

-- मेरा वोट यहाँ नहीं। वैसे मैं वोट नहीं डालती।

-- क्‍यों?

-- क्‍योंकि हर हाल में यह चुनाव पूँजीपतियों की ही सरकार बनाता है। जीते चाहे कोई, पूँजीपति जीतते हैं, जनता हारती है।

--फिर भी, लोकतंत्र है! अब तो यह हमारे ऊपर है कि हम बेहतर नेता चुनें!

-- कुछ भी हमारे ऊपर नहीं होता। एक ईमानदार आम आदमी चुनाव लड़ना चाहे, तो वह साइकिल या स्‍कूटर पर अपना पूरा चुनाव क्षेत्र भी कवर नहीं कर सकता।भारत में एक एम.पी.पद का उम्‍मीदवार औसतन 10करोड़ और बड़ी पार्टियों के उम्‍मीदवार औसतन 30 करोड़ खर्च करता है। और किसी चमत्‍कार से वह चुन भी लिया जाये, तो संसद में जाकर क्‍या करेगा जहाँ सूअर लोट लगाते हैं।

-- संसद ही तो सारे क़ानून बनाती है!

-- संसद सिर्फ बहसबाजी का अड्डा है। बहुसंख्‍या वाली पार्टी सरकार बनाती है, और फिर जो बिल वह पेश करेगी, उसे पास होना ही है। सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है। शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य पर बजट का दो-दो, तीन-तीन प्रतिशत खर्च करती है, 70-75 प्रतिशत सीधे या घुमाफिराकर पूँजीपतियों के हित के कामों में ख़र्च होता है। यह लोकतंत्र है, जहाँ अरबपतियों-खरबपतियों की संख्‍या के मामले में देश अमेरिका, चीन के साथ खड़ा है और ग़रीबी के मामले में पूरी दुनिया के सबसे नीचे के देशों में शामिल है।

-- फिर भी बहन जी, किसी न किसी को इन हालात में चुनना तो होगा ही। अब मान लीजिये, 'आप'पार्टी आ गयी तो भ्रष्‍टाचार से कुछ राहत तो मिल जायेगी!

-- हमारा लोकतांत्रिक अधिकार यह भी है कि किसी को न चुनें! बाध्‍यता क्‍या है? देश में जितने प्रतिशत लोग वोट देते हैं, उनमें से बहुमत पाने वाली पार्टी को बमुश्किल तमाम कुल वयस्‍क आबादी का 12-15 प्रतिशत वोट मिलता है। इस खेल में कोई न कोई तो आयेगा ही। रहा सवाल 'आप'पार्टी का, तो ये यदि दिल्‍ली नहीं देश में भी सरकार बना लें तो कोई फर्क नहीं पड़्रेगा। जब पूँजीपति लूटता है तो उसके अमले-चाकर, मंत्री-अफसर सदाचारी क्‍यों होंगे? वे भी घूस लेंगे। कमीशनखोरी होगी, दलाली होगी, हवाला कारोबार होगा। काला धन तो सफेद के साथ पैदा होगा ही। दरअसल, पूँजीवाद स्‍वयं में ही एक भ्रष्‍टाचार है। केजरीवाल क्‍या करेंगे? जनलोकपाल के नौकरशाही तंत्र में ही भ्रष्‍टाचार फैल जाये्गा। ये केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवाद के गंदे कपड़े धोते रहने वाले लॉण्‍ड्री वाले हैं। सत्‍ता को बीच-बीच में ऐसे सुधारक चेहरों की ज़रूरत पड़ती है, जनता के मोहभंग को रोकने के लिए, उसे भ्रमित करने के लिए। केजरीवाल मज़दूरों की कभी बात नहीं करते, साम्राज्‍यवादी लूट के खि़लाफ उनकी क्‍या नीति है, काले दमनकारी क़ानूनों के बारे में उनकी क्‍या राय है? कुछ गुब्‍बारे फुलाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे गुब्‍बारों की ज़ि‍न्‍दगी ज्‍़यादा नहीं होती, जल्‍दी ही फट या पिचक जायेंगे।।

-- आपकी बातें तो कम्‍युनिस्‍टों जैसी हैं!

--हाँ, मैं मार्क्‍सवादी हूँ!

-- अच्‍छा !! सी.पी.आई. हैं, सी.पी.एम हैं, लिबरेशन हैं कि माओवादी!

-- इनमें से कोई नहीं। हाँ, यह मानती हूँ कि मज़दूर संगठित होंगे, उनकी क्रान्तिकारी पार्टी बनेगी और एक न एक दिन जनक्रान्ति होगी!

-- यानी लोकतंत्र में आपका विश्‍वास नहीं!

-- नहीं, अधिकतम लोकतंत्र में मेरा विश्‍वास है। यदि देश की बहुसंख्‍या इस सत्‍ता को बलपूर्वक बदलना चाहे तो ज़रूर बदल दे। यही तो सच्‍चा लोकतंत्र होगा।

-- पर आज वह नहीं चाहती। आज आप जैसे लोग अल्‍पमत में हैं।

-- लोकतंत्र के मुताबिक अल्‍पमत को भी अपना विचार रखने और प्रचारित करने की आज़ादी है।

-- ये सब दूर की बातें हैं।

-- जो चीज़ कभी दूर होती है, वही एक दिन नज़दीक भी आ जाती है।

-- ये सब दर्शन की बातें हैं, ज़ि‍न्‍दगी की नहीं।

-- दर्शन और विचार भी ज़ि‍न्‍दगी का ही हिस्‍सा हैं। वे ज़ि‍न्‍दगी और इतिहास का निचोड़ हैं और उन्‍हीं के आधार पर भविष्‍य का निर्माण  होता है। जो सही विचार कभी कुछ लोगों के पास  होता है, वहीं एक दिन बहुसंख्‍या अपनाती है और अमल में उतारती है।

-- तब फिर तो... आप संविधान को भी नहीं मानती होंगी।

-- मैं चोरी-डकैती या अनागरिक किस्‍म का कोई काम नहीं करती। अपनी मेहनत पर जीती हूँ। इस मायने में कोई मुझे असंवैधानिक कामों में लिप्‍त नहीं कह सकता है। मैं एक नागरिक के संवैधानिक दायित्‍व निभाती हूँ। पर सिद्धांतत: मैं इस संविधान को एक जनविरोधी संविधान मानती हूँ, यह भी मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है। जिस संविधान को देश के 11प्रतिशत ऊपरी तबके के लोगों द्वारा चुनी संविधान सभा ने बनाया और पास किया, जिसे 1952 के आम चुनावों के बाद कभी पूँजीवादी संसद में भी पास नहीं किया गया, जिसपर कभी जनमत संग्रह नहीं हुआ, जो संविधान 1935 के 'भारत सरकार क़ानून'पर आधारित है, जिस संविधान के तहत जारी शासन में पूरी क़ानून व्‍यवस्‍था अंग्रेजो के ज़माने वाली ही है, जो सम्‍पत्ति के अधिकार को मूलभूत मानता है, लेकिन रोजगार, आवास, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य के अधिकार को नहीं, उस संविधान का विरोध मैं क्‍यों न करूँ! मैं तो नयी संविधान सभा बुलाने की माँग के पक्ष में हूँ।

-- यह तो देशद्रोह है!

-- इस संविधान के तहत, मुट्ठी भर लोगों द्वारा बहुसंख्‍यक आबादी पर ज़ालिमाना ढंग से हुकूमत करना देशद्रोह है और उस हुकूमत को मानना ग़ुलामी है!

-- वोट देती नहीं, संविधान मानतीं नहीं...आप जैसों को तो देश से बाहर निकाल देना चाहिए।

-- यह देश किसी के बाप का है, जो निकाल बाहर कर देगा! यहीं पैदा हुए हैं, यहीं मेहनत  की ज़ि‍न्‍दगी बिताते हैं, आम लोगों के हितों के लिए लड़ते हैं, उनके बूते जीते हैं। देश कोई हरामखोरों की जागीर नहीं है कि हम जैसों को निकालकर बाहर कर देंगे। कोई करके तो देखे!

(भाई साहब का तमतमाते हुए प्रस्‍थान)

6 दिसम्‍बर1992 की स्‍मृति में

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1947 में देश के टुकड़े होने के साथ ही
सदी का सबसे बड़ी साम्‍प्रदायिक मारकाट हुई
इसी धरती पर, बहती रही लहू की धार, लगातार।
दशकों तक टपकता रहा लहू,रिसते रहे जख्‍़म
और उस लहू को पीकर तैयार होती रहीं
धार्मिक कट्टरपंथी फासिज्‍़म की फसलें
और दंगों के आँच पर सियासी चुनावी पार्टियाँ
लाल करती रहीं अपनी गोटियाँ।
फिर रथयात्रा पर निकला जुनून की गर्द उड़ाता
फासिज्‍़म का लकड़ी का रावण अपने को लौहपुरुष कहता हुआ
और एक दिन पूँजीवादी सड़ांध से उपजा
सारा का सारा फासिस्‍टी उन्‍माद 
टूट पड़ा मेहनतक़श जनों की एकता पर, जीवन पर
और स्‍वप्‍नों पर, हमारे इतिहास-बोध पर,
शहादतों और विरासतों की हमारी साझेदारी पर,
हमारे भविष्‍य की योजनाओं के शिद्दत से बुने गये ताने-बाने पर। 
वह 6 दिसम्‍बर 1992 का काला दिन था
अयोध्‍या में, जब बाबरी मस्जिद को ध्‍वस्‍त कर दिया एक सम्‍मोहित पागल भीड़ ने
तब देश का प्रधानमंत्री पूजा कर रहा था
मस्जिद-नाश पर उल्‍लसित चेहरों के बीच एक साध्‍वी
एक नेता से चिपककर खिलखिला रही थी।
'जय श्रीराम'शब्‍दों की धार्मिक सात्विकता 
एक भयोत्‍पादक खूनी उन्‍माद का सबब बन चुकी थी।
गुजरात-2002 की पटकथा उसी दिन लिखी जा चुकी थी,
मुजफ्फरनगर-2013  का ब्‍लू प्रिण्‍ट उसी दिन रचा जा चुका था,
देश के इतिहास का एक लम्‍बा काला अध्‍याय
उसी दिन शुरू हो चुका था।
बाबरी मस्जिद के मलबे से भले न हो सकती हो
फिर से उसकी तामीर,
उस काले धब्‍बे जैसे दिन को हमेशा हमें
दिलों में और इतिहास में दर्ज़ रखना होगा
और आने वाले दिनों में सड़कों पर 
फासिस्‍टी उन्‍माद से जूझने-मरने का संकल्‍प
फौलादी बनाना होगा, ताकि हममे से जो भी बचें
वे पूरे समाज में फैले फासिस्‍टी मलबे और कचरे को
साफ करके एक बेहतर भारत का निर्माण करें वैसे ही
जैसे दूसरे विश्‍वयुद्ध के फासिस्‍टी ध्‍वंसावशेषों को
हटाकर, चन्‍द वर्षों में ही रच दी गयी थी
एक सुन्‍दर, नयी दुनिया।
फासिस्‍टों को याद दिलाना होगा कि किन ताकतों ने मिट्टी में
मिलाया था उनके मंसूबों को,
किन ताक़तों ने उन्‍हें धूल चटायी थी पिछली सदी में।
झंझावाती परिवर्तन की वाहक वे अग्रगामी शक्तियाँ
पीछे हट गयी हैं ऐतिहासिक युद्ध के एक युगीन चक्र में,
बिखर गयी हैं, पर मरी नहीं हैं,
बीज की तरह बिखरी पड़ी हैं धरती के पाँचो महाद्वीपों पर
इसी सदी में फिर से सूरज की ओर सिर उठाकर
अंकुर से पौधा और फिर वृक्ष बनने के लिए।

(सुबह, 6दिसम्‍बर2013)

-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

विधान सभा चुनाव परिणामों के संकेत और आने वाले समय के बारे में कुछ बातें

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--कविता कृष्‍णपल्‍लवी
चार राज्‍यों के चुनाव परिणामों ने स्‍पष्‍ट कर दिया है कि भारतीय पूँजीवाद का गहराता ढाँचागत संकट अपने फासीवादी समाधान की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। अभी कुछ ही दिनों पहले इस स्थिति का एक विश्‍लेषण हमने अपने ब्‍लॉग पर प्रस्‍तुत किया था: 'नमो फासीवाद, रोगी पूँजी का नया राग।'
इन चुनावी नतीज़ों का विश्‍लेषण मोदी के चमत्‍कारी व्‍यक्तित्‍व या राहुल और कांग्रेसी नेतृत्‍व  के फिसड्डीपन वगैरह-वगैरह के रूप में करना सतही होगा। महज इतना कहना भी काफी नहीं है कि यह कांग्रेसी कुशासन, भ्रष्‍टाचार और कमरतोड़ मँहगाई का नतीज़ा है। यह सतह की बात है। मोदी बुर्ज़ुआ राजनीति के रंगमंच पर संघ परिवार द्वारा प्रक्षेपित प्रधानमंत्री उम्‍मीदवार के रूप में वही भूमिका निभा रहा है जो शासक वर्ग की ज़रूरत है। बुनियादी बात यह है कि नवउदारवाद  की नीतियों को डण्‍डे के ज़ोर से लागू करने में ही पूँजीपति वर्ग को अपने लिए कुछ 'ब्रीदिंग स्‍पेस'मिलता दीख रहा है। 2014 के आम चुनावों में यदि भाजपा गठबंधन की जगह कांग्रेस गठबंधन या उसके द्वारा समर्थित कोई तीसरा गठबंधन भी सत्‍ता में आयेगा तो उसे भी नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए ज्‍यादा दमनकारी रुख अपनाना ही पड़ेगा, भले ही सीमित अर्थों में उसे हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍टों के मुक़ाबले कुछ बेहतर विकल्‍प माना जाये। व्‍यवस्‍था के असाध्‍य ढाँचागत संकट के चलते पूँजीवादी जनवाद का स्‍पेस ही संकुचित होता जा रहा है।
संसदीय वाम को प्राय: विभ्रमग्रस्‍त प्रगतिशील बुद्धिजीवी एक प्रभावी विकल्‍प न दे पाने के लिए कोसते रहते हैं, वे इस बात को नहीं समझ पाते किे संशोधनवादी पार्टियाँ यह कर ही नहीं सकती। आज उनका मॉडल भी ''बाज़ार समाजवाद''है। एक ज्‍़यादा ''‍कल्‍याणकारी''राज्‍य और थोड़ा ज्‍़यादा ''मानवीय चेहरे'के साथ नवउदारवाद -- इससे आगे एक क्रान्तिकारी विकल्‍प के बारे में वे सोच ही नहीं सकते। इसीलिए उन्‍हें अमत्‍र्य सेन प्रगतिशील लगते हैं। ब्राजील की लूला की पार्टी और सरकार की नीतियाँ भी उन्‍हें प्रगतिशील लगती थीं, अब ब्राजील के संकट और जनविस्‍फोट से यह बात साफ हो चुकी है कि सामाजिक जनवाद का आज के भूम‍ण्‍डलीय पूँजीवादी परिवेश में ज्‍़यादा स्‍कोप नहीं रह गया है। यूरोप में सामाजिक जनवाद की सीमाएँ पहले ही उजागर हो गयीं थीं। व्‍यवस्‍था की दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय जड़वामन वाम की भूमिका बनी रहेगी, पर विशेष परिस्थितियों में अन्‍य कुछ पार्टियों के साथ मिलकर कुछ समय के लिए स्‍टेपनी की भूमिका निभाने से ज्‍़यादा ये कुछ नहीं कर सकते।
जहाँ तक आप पार्टी परिघटना का सवाल है, यह मँहगाई-बेरोजगारी से परेशान आम मध्‍यवर्ग के आदर्शवादी यूटोपिया और साफ-सुथरे पूँजीवाद तथा तेज विकास करके पश्चिम से टक्‍कर लेते भारत की कामना करने वाले कुलीन मध्‍यवर्ग के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का मिलाजुला परिणाम है। यह मध्‍यवर्ती काल की एक अस्‍थायी परिघटना है। यह दीर्घजीवी नहीं हो सकती। कुछ लोकरंजक नारों के अतिरिक्‍त इसके पास कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम है ही नहीं। भ्रष्‍टाचार, मँहगाई हटा देने या कम कर देने के वायदों के अतिरिक्‍त निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का इसके पास कोई विकल्‍प नहीं। वस्‍तुत: पूर्व एन.जी.ओ. पंथियों-समाजवादियो-सुधारवादियों का यह  जमावड़ा नवउदारवाद का विरोधी है ही नहीं। ऐसी स्थिति में, ज्‍़यादा संभावना यह है कि यह पार्टी राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कभी भी एक विकल्‍प नहीं बन सकती और कालांतर में या तो एक दक्षिणपंथी दल के समान संसदीय राजनीति में व्‍यवस्थित हो जायेगी या विघटित हो जायेगी। इसके विघटित होने की स्थिति में इसका जो सामाजिक समर्थन-आधार है, उसका बड़ा भाग हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के साथ जुड़ जायेगा। रामदेव आज खुले तौर पर भाजपा के साथ हैं और ''गैरराजनीतिक''अन्‍ना आंदोलन की जो पूरी वैचारिकी है, वह भी फासीवाद की राजनीति को ही प्रकारान्‍तर से मज़बूत करने का काम करती है। आप पार्टी की राजनीति के  पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिेया है उनका तार्किक विकास समाज में फासीवाद के समर्थन-आधार को विस्‍तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक आप पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्‍ट्रीय विकल्‍प बन जाये(जिसकी सम्‍भावना न्‍यूनातिन्‍यून है) और वह सत्‍ता में भी आ जाये तो वह स्‍वयं नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और 'पुलिस स्‍टेट'के सहारे सर्वसत्‍तावादी स्‍वेच्‍छाचारिता  के साथ लागू करेगी, क्‍योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी चिरंतन संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मंदी व दुष्‍चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्‍व पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट को जन्‍म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और सर्वसत्‍तावाद की ओर क्रमश: अग्रसर छीजते-सिकुड़ते बुर्ज़ुआ जनवाद के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी विकल्‍प की ओर ले ही नहीं जा सकता। विकसित पश्चिम के देश हों या पिछड़े पूरब के, सामाजिक-आर्थिक संरचना और राजनीतिक अधिरचना की यही गतिकी आज अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग संवेग के साथ सर्वत्र काम कर रही है। यूरोप में, ग्रीस और उक्रेन से लेकर अन्‍य देशों तक में नवनात्‍सीउभार के पीछे वही कारक तत्‍व सक्रिय हैं, जो वहाँ की सत्‍ताओं के बढ़ते दमनकारी चरित्र और सामाजिक ताने-बाने में मौजूद बुर्ज़ुआ जनवादी मूल्‍यों के क्षरण-विघटन के लिए जिम्‍मेदार हैं। वही कारक तत्‍व भारत में यहाँ की राज्‍यसत्‍ता को भी ज्‍यादा निरंकुश दमनकारी बना रहे हैं और दूसरी ओर समाज की ज़मीन को फासीवादी प्रवृत्तियों के फलने-फूलने के लिए ज्‍यादा उर्वर बना रहे हैं, जिसका लाभ जाहिरा तौर पर संघ परिवार और भाजपा ही राष्‍ट्रीय राजनीतिक पटल पर ज्‍यादा उठायेंगे, क्‍योंकिे एक संगठित धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में वे ही हैं जो काफी पहले से मौजूद रहे हैं।
हम यदि पूँजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र के बुनियाद पर (आर्थिक नियतत्‍ववाद या अपचयनवाद के सहारे नहीं और साथ ही सतह की परिघटनाओं के प्रेक्षण मात्र या अधिरचनावादी तरीके से भी नहीं) राजनीतिक परिदृश्‍य के घटनाक्रम विकास को समझने की कोशिश करें तो उसकी ज्‍यादा तर्कसंगत व्‍याख्‍या के साथ ही भविष्‍य की संभावित दिशा का भी ज्‍यादा सही आकलन कर सकते हैं। जो ऐसा नहीं कर  पाते वही कठिन और चुनौ‍तीपूर्ण परिस्थितियों के सामने किंकर्तव्‍यविमूढ़ या पस्‍तहिम्‍मत हो जाते हैं या फिर 'आप पार्टी'जैसी किसी सामयिक परिघटना से (आगे चलकर और अधिक मायूस हो जाने के लिए) अधिक उम्‍मीदें लगा बैठते हैं। फिर मोहभंग के बाद ऐसे बहुतेरे अपेक्षतया सुलझे हुए या जनवादी किस्‍म के मध्‍यवर्गीय लोग भी फासीवाद के पाले में लुढ़क जाते रहे हैं। जर्मनी और इटली में पूँजीवादी जनवाद के दायरे में सोचने वाली मध्‍यवर्गीय आबादी भी सामाजिक जनवाद से मोहभंग के बाद फासीवादियों के लोकलुभावन नारों और उग्र अंधराष्‍ट्रवाद के नारों की ओर तेज़ी से आकृष्‍ट हुई थी। शेष एक ऐसी आबादी थी, जो घरों में दुबक गयी। सिर्फ मज़दूर वर्ग ने एकदम हवा के विरुद्ध जाकर फासीवादियों से मोर्चा लिया और अपनी कुर्बानियों और शहादतों से कीमत चुकाकर कम्‍युनिस्‍टों ने मेहनतक़शों की अगुवाई की।
यह पक्‍की बात है कि पूँजीवाद अपने संकटों से स्‍वत: ध्‍वस्‍त नहीं होगा, जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्‍ता संगठित नहीं होगा। पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। आज की परिस्थितियों  में भारत जैसे देशों में यह फासीवाद, हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद की तरह नहीं होगा, पर जनता के विरुद्ध पूँजीपति वर्ग जंज़ीर में बँधे कुत्‍ते के समान इसका इस्‍तेमाल करने का विकल्‍प हमेशा अपने हाथ में रखेगा। 2014 में यदि भाजपा सत्‍ता में न भी आये, तो एक ताक़तवर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में फासीवाद यहाँ के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्‍य पर उपस्थित बना रहेगा। इसका प्रभावी तोड़ केवल एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्‍दोलन ही प्रस्‍तुत कर सकता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि खण्‍ड-खण्‍ड में बिखरा हुआ, गतिरुद्ध कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी आन्‍दोलन आज विकल्‍प प्रस्‍तुत कर पाने की स्थिति में कत्‍तई नहीं है। इसके भीतर, एक छोर पर यदि ''वामपंथी''दुस्‍साहसवाद का भटकाव है, तो दूसरे छोर पर तरह-तरह के रूपों में दक्षिणवादी विचलन है। दोनों के ही मूल में है विचारधारात्‍मक कमज़ोरी और कठमुल्‍लावाद। आज की दुनिया और भारत में पूँजीवादी संक्रमण की गतिकी को नहीं समझ पाने के चलते ये अधिकांश संगठन आज भी नयी सच्‍चाइयों को बीसवीं शताब्‍दी की लोकजनवादी क्र‍ान्तियों के साँचे-खाँचे में फिट करने की निष्‍फल कोशिश करते रहे हैं। इस गतिरोध से उबरने के लिए पुरानी निरंतरता को तोड़कर एक नयी साहसिक शुरुआत की ज़रूरत है। मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद की गम्‍भीर समझ से लैस, एक बोल्‍शेविक साँचे-खाँचे में ढली पार्टी के निर्माण के लिए संकल्‍पबद्ध कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी ही इस काम को अंजाम दे सकती है। कोई कह सकता है कि यह तो बहुत लम्‍बा रास्‍ता है। हमारा कहना यह है कि कोई दूसरा रास्‍ता है ही नहीं। इसलिए यदि एकमात्र विकल्‍प यह लम्‍बा रास्‍ता है, तो हमें वही चुनना पड़ेगा। और फिर रास्‍ते की लम्‍बाई कोई निरपेक्ष अटल सत्‍य नहीं है। कोशिशें रास्‍ते की लम्‍बाई को कम कर देती हैं। हालात इसके लिए ज्‍यादा से ज्‍यादा दुर्निवार दबाव बना रहे हैं। मार्क्‍स का यह कथन काफी सारगर्भित है कि कभी-कभी प्रतिक्रान्ति का कोड़ा क्रान्ति को आगे गतिमान करने में अहम भूमिका निभाता है।

वामपंथी बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कर्मियों की निजी ज़ि‍न्‍दगी के बारे में कुछ बेलागलपेट बातें

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--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

इस देश में जितने वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी ख़यालात के लोग हैं, अपनी निजी ज़ि‍न्‍दगी में वे बस इतनी-सी हिम्‍मत जुटा लें कि (1) रोज़मर्रे के पारिवारिक-सामाजिक जीवन में जाति और धार्मिक रूढ़ि‍यों को बाल भर भी जगह न दें (2) धार्मिक कर्मकाण्‍डों के साथ होने वाली शादी-ब्‍याह या किसी भी आयोजन में हिस्‍सा लेने से विनम्रता पूर्वक इंकार कर दें (3) अपनी या अपने बेटे-बेटियों की शादी कोर्ट में पंजीकरण करके करायें (4) अपने वयस्‍क बच्‍चों की ज़ि‍न्‍दगी में परामर्श से अधिक दख़ल न दें, अपनी ज़ि‍न्‍दगी के सारे फैसले उन्‍हें खुद लेने दें, उन्‍हें स्‍वयं अपना जीवन-साथी चुनने की पूरी आज़ादी दें और इसके हिसाब से उनकी सांस्‍कृतिक परवरिश करें (5) पत्‍नी, बहन और बेटी को हर हाल में रोज़गार (अंशकालिक, पूर्णकालिक, जैसी भी हो) के लिए और सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए तैयार करें, घृणित-नीरस घरेलू गुलामी से आज़ाद करें, और सभी घरेलू कामों (सफ़ाई, खाना बनाना, बच्‍चे की देखभाल) में अनिवार्यत:, बराबरी से (प्रतीक रूप में नहीं) हाथ बँटायें, तथा,(6) सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी उन्‍हें (बलात् नहीं) शामिल करने की भरपूर कोशिश करें, -- तो भारतीय समाज में वामपंथ की साख बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी। यदि कम्‍युनिस्‍ट अपना जीवन अपने विचारों के हिसाब से जीने लगें, तो यह जाति-उत्‍पीड़न और स्‍त्री-उत्‍पीड़न की कुरीतियों और रूढि़यों में डूबे भारतीय समाज में, अपने-आप में एक सांस्‍कृतिक क्रान्ति होगी।
प्राय: भारतीय कम्‍युनिस्‍ट परिस्थितियों की आड़ लेकर, उतना भी नहीं करते जितना पश्चिमी समाज का एक औसत चेतना वाला बुर्ज़ुआ जनवादी नागरिक करता है। उतना भी नहीं करते जितना भारत का बुर्ज़ुआ जनवादी संविधान भी कहता है। वे निजी तौर पर एक दकियानूस, छिपे हुए जातिवादी संस्‍कार वाले, रूढ़ि‍भीरू, मर्दवादी का जीवन जीते हैं। तमाम वामपंथी लेखकों-पत्रकारों को ही देखिये, मार्क्‍सवादी विवेचना के नाम पर गट्ठर का गट्ठर लिख मारते हैं, पत्‍नी को घर की नौकरानी बनाकर रखते हैं, कई तो बाहर स्‍त्री साहित्‍यकारों के पीछे कुत्‍तों की तरह लार टपकाते लपकते-लरियाते हैं, अपनी बेटी की शादी की बारी आती है तो  जाति, लगन सब देखते हैं, पण्डित-नाई, मँड़वा-कोहबर-परिछावन सब होने लगता है, बेटे  को सिविल सर्विस में या विदेश भेजने के लिए प्रेरणा-पैसा-डण्‍डे का अनुशासन सब लगा देते हैं, शादी काफी छाँट बीनकर करते हैं और पत्रम-पुष्‍पम् के नाम पर  कुछ दहेज भी झींट लेते हैं। कभी-कभी तो अपने जैसे ही किसी सजा‍तीय प्रगतिशील को पकड़कर बेटे-बेटी की भी डील  हो जाती है, मार्क्‍सवाद भी ज़ि‍न्‍दाबाद, जातिवाद भी ज़ि‍न्‍दाबाद -- दोनों बन्‍धु समधी-समधी हो जाते हैं! केरल बंगाल जैसे राज्‍यों में कुछ अपवाद मिलेंगे, पर चुनावी वामपंथी दलों के हिन्‍दी पट्टी के नेताओं का चरित्र भी इस मामले में उतना ही गया-गुज़रा होता है। पंजाब में भी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन की परम्‍परा कुछ जुझारू भले ही रही हो, पर धर्म और स्त्रियों के मामले में रू‍ढ़ि‍यों-परम्‍पराओं से समझौते की रीत पुरानी रही है और वहाँ का कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है। वहाँ के ज्‍यादातर कम्‍युनिस्‍ट सिख धर्म की रैडिकल परम्‍परा की दुहाई देते हुए कम्‍युनिस्‍ट से ज्‍यादा सिख जैसा आचरण करने लगते हैं। शादी-ब्‍याह, मरनी-करनी के संस्‍कारों में धर्म और गुरुद्वारे का स्‍थान बना रहता है। पगड़ी एक धार्मिक प्रतीक है(यदि राष्‍ट्रीयता विशेष की लोक संस्‍कृति का प्रतीक होती तो सभी पंजाब निवासी लगाते), पर उसे राष्‍ट्रीय लोक संस्‍कृति का प्रतीक बताते हुए पंजाब के सिख  पृष्‍ठभूमि के अधिकांश कम्‍युनिस्‍ट उसे धारण करते हैं। आम किसानी संस्‍कृति में जैसा होता है, गाँवों के कम्‍युनिस्‍ट परिवारों में बाहर का काम करने के बावजूद सभी घरेलू कामों का बोझ स्त्रियों पर होता है।
भारतीय समाज में य‍ह मर्दवाद इतना गहरा है कि कम्‍युनिस्‍ट जीवन-शैली को काफी हद तक लागू करने वाले ग्रुपों-संगठनों में भी कार्य-विभाजन में, जो घरेलू इन्‍तज़ामात टाइप काम होते हैं, वह सहज ही, ज्‍यादातर, स्‍त्री कॉमरेडों के मत्‍थे आ पड़ते हैं। स्त्रियाँ साफ-सफाई, खान-पान व्‍यवस्‍था, रख-रखाव और प्रबंधन में अपनी बचपन से हुई स्‍त्री-सुलभ परवरिश की वजह से, ज्‍यादा कुशल होती हैं। पुरुषों की परवरिश ऐसी नहीं होती। पर कम्‍युनिस्‍ट बनने के बाद वे इसे एक टास्‍क या चुनौती बनाकर सीख क्‍यों नहीं लेते? यह सही है कि आम परिवारों में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई को गम्‍भीरता से नहीं लिया जाता। इससे बौद्धिक क्षमता, और ज्‍यादा सामाजिक जीवन बिताने की वजह से सांग‍ठनिक क्षमता भी, प्राय:, स्‍त्री कम्‍युनिस्‍टों की अपेक्षा पुरुष कम्‍युनिस्‍टों में ज्‍यादा होती है। अत: व्‍यवहारत: कार्यविभाजन में निश्‍चय ही निरपेक्ष समानतावाद नहीं हो सकता, लेकिन वस्‍तुगत स्थिति की इस सीमा के सुरक्षा कवच में तब्‍दील होने का ख़तरा तो रहता ही है! क्‍या नहीं रहता है? इसीलिए तो कम्‍युनिस्‍ट जीवन-शैली की बात कहते हुए हमारे शिक्षकों ने बौद्धिक कामों में दक्ष लोगों द्वारा भी शारीरिक श्रम करने और उसमें हुनरमंदी हासिल करने पर बल दिया है। यह न तो बुर्ज़ुआ नारीवाद है, न ही स्‍त्री-आरक्षण की माँग जैसी कोई चीज़। यह कम्‍युनिस्‍ट उसूलों को स्‍त्री-पुरुष कम्‍युनिस्‍टों के सामूहिक जीवन में लागू करने सम्‍बन्‍धी एक बुनियादी बात है।
बहरहाल, बात में से बात निकलते हम यहाँ तक आ पहुँचे। मेरी मुख्‍य बात यह थी कि यूँ तो एक हद तक शुरू से ही, और विशेष तौर पर कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के संशोधनवादी गड्ढे में गिरने के बाद, भारतीय कम्‍युनिस्‍टों के जीवन में जो दोगलापन, पाखण्‍ड और रू‍ढ़ि‍यों के आगे समर्पण की प्रवृत्ति दीखती है, उससे आम दमित-उत्‍पीडि़त जन समुदाय में एक तरह का अविश्‍वास और संशय पैदा होता है। जनता किताबें पढ़कर, ज्ञान की बातें सुनकर या आर्थिक माँगों को लेकर कुछ आन्‍दोलन कर देने या आम राजनीतिक प्रचार की बातें मात्र सुनकर कम्‍युनिज्‍़म के प्राधिकार को और कम्‍युनिस्‍ट नेतृत्‍व को स्‍वीकार नहीं कर लेगी। वह हमारा जीवन और व्‍यवहार देखकर यक़ीन करना चाहती है कि क्‍या हम जिन उसूलों की बात करते हैं उन्‍हें अपने जीवन में भी लागू करते हैं? क्‍या हम वाक़ई जनता को नेतृत्‍व देने के काबिल हैं?क्‍या हम वाक़ई भरोसे के क़ाबिल हैं? एक कम्‍युनिस्‍ट का व्‍यक्तित्‍व और जीवन उसके उसूलों का पहला घोषणा पत्र होना चाहिए। संशोधनवादियों के कुकर्मों से जनता में कम्‍युनिस्‍टों की जो साख गिरी है, उसका खामियाजा तो आने वाले दिनों में भी 'जेनुइन'कम्‍युनिस्‍टों को भुगतना पड़ेगा। इन्‍हीं कुकर्मो के हवाले दे-देकर, एक ओर वे बुर्ज़ुआ नारीवादी हैं जो तरह-तरह की अस्मितावादी और एन.जी.ओ. पंथी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती हैं और जिनके पास स्‍त्री-मुक्ति की न तो कोई वैज्ञानिक परियोजना है, न ही जिन्‍हें आम स्त्रियों की दुर्दशा से कुछ लेना-देना है। दूसरी ओर वे भाँति-भाँति के बुर्ज़ुआ दलितवादी नेता और बुद्धिजीवी हैं, जो संशोधनवाद के दौर के हवाले  दे-देकर सभी कम्‍युनिस्‍टों को बदनाम करते हैं। उनके पास दलित मुक्ति या जातिनाश की कोई भी परियोजना नहीं है, गाँवों में रहने वाली बहुसंख्‍यक दलित आबादी के हितों को लेकर लड़ने का जोखिम लेना तो दूर, बात बहादुरों की यह क्रीमी परत उनके लिए अपना थोड़ा सा क्रीम पोंछकर भी नहीं देगी। पर हज़ारों वर्षों से अमानुषिक जाति-उत्‍पीड़न की शिकार आम दलित आबादी को ये सुविधाभोगी दलित नेता और बुद्धिजीवी जाति-आधार पर आसानी से अपने साथ खड़ा कर लेते हैं। कम्‍युनिस्‍ट सर्वाधिक कुचली गयी और सर्वाधिक सुषुप्‍त क्रान्तिकारी पोटेंशियल वाली दलित सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी को फिर अवश्‍य अपने साथ गोलबंद कर लेंगे, बशर्ते किे (1) वे जाति व्‍यवस्‍था के समूलनाश का अपना प्रोजेक्‍ट समाज में लगातार, बल देकर प्रस्‍तुत करें (2) मेहनतक़श आबादी के बीच जाति-विभेद के विरुद्ध सतत् सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन चलायें, और सबसे बढ़कर, (3) वे अपने निजी जीवन द्वारा जाति-भेद और धार्मिक रूढ़ि‍यों को न मानने की नज़ीर समाज के सामने पेश करें।

सुधीश पचौरी की व्‍यंग्‍य शैली: गंभीर चिंतन और सामाजिक सरोकारों पर एक छिछोरी चोट

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--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

समाज, संस्‍कृति और राजनीति की नकारात्‍मक प्रवृत्तियों पर चोट करने के लिए और 'पोलेमिकल'लेखन के लिए व्‍यंग्‍य की शैली का प्राय: इस्‍तेमाल किया जाता रहा है। विश्‍व साहित्‍य में सर्वांतेस और दिदेरो से लेकर मार्क ट्वेन, ब्रेष्‍ट और लूशुन तक कई नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते हैं। हिन्‍दी साहित्‍य में महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय से ही व्‍यंग्‍य-लेखन की एक समृद्ध परम्‍परा रही है। पिछली आधी सदी के दौरान, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्‍ल, मनोहर श्‍याम जोशी आदि ने उत्‍कृष्‍ट व्‍यंग्‍य-लेखन किया।
लेकिन आज यदि हिन्‍दी साहित्‍य के परिदृश्‍य पर निगाह डालें तो लगता है कि व्‍यंग्‍य-लेखन की स्थिति स्‍वयं हास्‍य-व्‍यंग्‍य (और उससे भी अधिक क्षोभ का) विषय होकर रह गयी है। व्‍यंग्‍य सुधीश पचौरी के लेखन का स्‍थायी भाव है। अख़बारों में विभिन्‍न विषयों पर लिखते हुए और मीडिया समीक्षा करते हुए सुधीश पचौरी स्‍थायी तौर पर व्‍यंग्‍य या यूँ कहें कि हँसी-ठिठोली की छिछोरी शैली का सहारा लेते हैं। ऐसा करते हुए वे पाठक को चीज़ों पर अनालोचनात्‍मक ढंग से सोचने के अलावा, वैचारिक पहलू की गहराई में उतरने से बचने और गम्‍भीर से गम्‍भीर मसले को भी हल्‍के-फुल्‍के मज़ाकिया ढंग से लेने की आदत डालते हैं। सुधीश पचौरी का व्‍यंग्‍य एक सर्वनिषेधवादी, अराजकतावादी किस्‍म का व्‍यंग्‍य होता है जो  हर चीज़ को खारिज करता है, हर चीज़ का मज़ाक उड़ाता है और विशेष तौर पर वाम विचारधारा की खिल्‍ली उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता। वह हर प्रकार की गम्‍भीरता और संजीदगी के खिलाफ है। इसके लिए सुधीश पचौरी ने एक ख़ास किस्‍म की भाषा तैयार की है। यह भाषा एक छिछोरी, सड़क छाप, टपोरी भाषा है, जिसमें मज़ाकिया ढंग से वे अंग्रेज़ी शब्‍दों का हिन्‍दीकरण करते हैं और नये-नये शब्‍द गढ़ते हैं। बेशक़ हर जीवंत भाषा दूसरी भाषाओं से शब्‍द लेती है, लेकिन सुधीश पचौरी की तरह से यदि लेने लगे, तो वह भाषा मौलिक वैचारिक चिन्‍तन और अभिव्‍यक्ति की क्षमता ही खो देगी।
सुधीश पचौरी पॉपुलर को पॉपुलिस्‍ट का समानार्थक बना देते हैं। उनके लिए भीड़(मॉब) और जनसमुदाय (पीपुल) में कोई अंतर नहीं है। वे 'पॉपुलर' (जो वास्‍तव में छिछोरा पॉपुलिस्‍ट लेखन होता है) लेखन को वैचारिक लेखन के बरक्‍स खड़ा करते हैं और पहले के द्वारा दूसरे को ख़ारिज करने की कोशिश करते हैं। भाषा का अपना वर्गचरित्र नहीं होता, पर भाषा स्‍वयं में वर्ग संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है (वोलोशिनोव)। भाषा केवल वैचारिक अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम ही नहीं, वैचारिक संघर्ष का एक उपकरण भी है। स्‍तरीय शिक्षा, वैश्विक वैचारिक विनिमय और मानविकी के क्षेत्र में शोध-अध्‍ययन लेखन का मुख्‍य माध्‍यम भारत में यदि आज भी अंग्रेजी बनी हुई है, तो यह भारतीय समाज की एक ऐतिहासिक क्षति है, बौद्धिक सम्‍पदा से आम जनता को दूर रखने का एक षड्यंत्र है और आन्‍तरिक मानसिक नव उपनिवेशन का एक दुश्‍चक्र है। ठीक इसी तरह, यदि कोई लेखक जनता की भाषा को विकृत-विरूपित करता है, तो वह जनसमुदाय को गंभीर विचार, अभिव्‍यक्ति और सम्‍प्रेषण के माध्‍यम से वंचित करने का आपराधिक दुष्‍कृत्‍य करता है। उत्‍पादन के साधनों के विकास के साथ-साथ मानव-चेतना का धरातल भी उन्‍नत होता है। ऐसी स्थिति में लोकप्रिय लेखन का क्षितिज विस्‍तारित होता है, तथा साथ ही भाषा में अमूर्तन की क्षमता का, गहन एवं सटीक वैज्ञानिक-वैचारिक अभिव्‍यचक्ति की क्षमता का भी विस्‍तार होता है। समाज में जबतक श्रम-विभाजन का और मानसिक तथा शारीरिक श्रम विभाजन का अस्तित्‍व बना रहेगा तबतक वैचारिक और 'पॉपुलर'के बीच का अंतर भी बना रहेगा। 'पॉपुलर'पर अतिशय वैचारिकता का बोझ लादना जनता को विचार-विमुख बनाता है। दूसरी ओर वैचारिक को पॉपुलर में पूरी तरह उल्‍था कर देने या वैचारिक को पूरी तरह पॉपुलर बना देने की कोशिश, या अतिसरलीकरण की हर लोकरंजक कोशिश विचार पक्ष को तनु (डाइल्‍यूट) बना देता है और यह भी जनता के पक्ष की ऐतिहासिक क्षति है। यही कारण है कि मार्क्‍सवादी साहित्‍य में भी सैद्धान्तिक-दार्शनिक लेखन, प्रोपेगैण्‍डा-लेखन और एजिटेशनल-लेखन के बीच के अंतर बने रहते हैं और इन्‍हें मात्र मनोगत प्रयासों से मिटाया नहीं जा सकता।
सुधीश पचौरी का भाषाई लोकरंजकतावादी विरूपण भाषा की चौहद्दी के भीतर जारी वर्ग संघर्ष में जनता के वैचारिक पक्ष पर एक ख़तरनाक हमला है। ऐसी भाषा-शैली अपने पाठकों को छिछोरेपन और खिलंदड़ेपन का आदी बनाती है और उनसे उनके सोचने-विचारने की क्षमता, उनका आलोचनात्‍मक विवेक सेंधमारी करके चुरा लेती है।
सुधीश पचौरी वही व्‍यक्ति हैं जो कभी मार्क्‍सवादी आलोचक और माकपा-सम्‍बद्ध जलेस के अगियाबैताल सिद्धान्‍तकार-प्रवक्‍ता हुआ करते थे। फिर इन्‍हें 'ग्‍लास्‍नोस्‍त-पेरेस्‍त्रोइका'का जूड़ी-ताप चढ़ा और 'इतिहास के अंत'की हवा लगी। फिर तो ये सज्‍जन उत्‍तर-आधुनिकतावाद, उत्‍तर-संरचनावाद आदि-आदि की कथरी-गुदड़ी लपेटकर चौराहे पर  जा  बैठे और पश्चिम का  सेकेण्‍ड हैण्‍ड वैचारिक माल बेचने के लिए एक पर एक कई किताबें लिख मारी। इन्‍होंने (और गोपीचंद नारंग ने भी) उत्‍तर-संरचनावाद और उत्‍तर-आधुनिकतावाद जैसी विचार सरणियों पर (होमी भाभा या गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक की तरह) कुछ भी नया और मौलिक नहीं लिखा है, बल्कि महज हल्‍के-फुल्‍के किस्‍म का भाष्‍य लिखा है और सिर्फ भाष्‍य ही नहीं लिखा है बल्कि चौर-लेखन भी किया है। यह बताया जा सकता है कि सुधीश पचौरी ने कहाँ-कहाँ अपनी किताबों में देरिदा, फूको, ल्‍योतार या बौद्रिला की 'पैराफ्रेजिंग'की है और कहाँ-कहाँ  उन्‍हें लगभग हूबहू टीप दिया है। सुधीश पचौरी यह लहर लेकर भारत में तब आये, जब पश्चिमी बौद्धिक बाज़ार से उत्‍तर-विस्‍तार सरणियों के सिक्‍के चलन से बाहर हो रहे थे। दिलचस्‍प बात यह है कि किंचित् भिन्‍नताओं के साथ, मार्क्‍सवादी अवस्थिति से, टेरी ईगल्‍टन, फ्रेडरिक जेम्‍सन, अलेक्‍स कैलिनिकोस, एजाज़ अहमद, डेविड मैक्‍चेस्‍नी, जॉन बेलेमी फॉस्‍टर आदि-आदि ने उत्‍तर-आधुनिकतावाद की  समालोचनाएँ प्रस्‍तुत की हैं, उनपर सुधीश पचौरी ने कहीं कुछ लिखा-बोला नहीं है। लेकिन उन्‍हें इतना तो लग ही गया था कि मार्क्‍सवाद  के बरक्‍स उत्‍तर-आधुनिकतावाद का झण्‍डा लेकर हिन्‍दी आलोचना में नया चक्रवर्ती सम्राट बन पाना सम्‍भव नहीं। ऐसी स्थिति में उन्‍होंने वैचारिकता से चलताऊपन की ओर संक्रमण किया और अखबारी समीक्षाएँ-टिप्‍पणियाँ लिखते हुए वैचारिक खिलंदड़ेपन को खिलंदड़ी भाषा के ज़रिए स्‍थापित करने में लग गये।
ऐसे ही एक पूर्व मार्क्‍सवादी अशोक चक्रधर भी हैं, जो मंचीय हास्‍य-व्‍यंग्‍य कवियों के सिरमौर हैं, शीला दीक्षित सरकार के ख़ास-उल-ख़ास बौद्धिक दरबारी रहे हैं। वे अकादमिक दुनिया  को बाय-बाय कर चुके हैं और कवि सम्‍मेलनों के धंधे में डूब गये हैं, क्‍योंकि वहाँ गधे सेठों-मारवाड़ि‍यों और नेताओं-अफसरों की कृपा से लक्ष्‍मी बरसती है। इधर अशोक चक्रधर भी हास्‍य-व्‍यंग्‍य के अख़बारी स्‍तम्‍भ लिखने लग गये हैं। सुधीश पचौरी दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में विभागाध्‍यक्ष और संकाय-अध्‍यक्ष तक की पद-प्रतिष्‍ठा का स्‍वाद चख चुके हैं। पर इस शिखर पर पहुँचकर भी वे क्षुब्‍ध और अवसादग्रस्‍त हैं। उन्‍हें पता है कि उत्‍तर-आधुनिकतावाद एक पिटा हुआ मोहरा है। मार्क्‍सवाद का ही ''बाज़ार''है। अब मार्क्‍सवाद के किसी शिविर की ओर उनकी वापसी सम्‍भव नहीं। नामवर सिंह की जो व्‍यासगद्दी खाली हो रही है, उसपर मैनेजर पाण्‍डेय को प्रतिष्ठित करने की कोशिशें जारी हैं। अख़बारी लेखन से तो साहित्‍य-अकादमी में भी घुस पाना सम्‍भव नहीं। वे धंधेबाज मार्क्‍सवादियों से क्षुब्‍ध हैं, पर यह क्षोभ इस बात का है कि उन जैसा धंधेबाज उनसे मात कैसे खा गया! नतीज़तन, वे 'तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब'की भावना से ओतप्रोत होकर हिन्‍दी अख़बारों के स्‍तंभों में अपने कथित व्‍यंग्‍य लेखन की तलवार भाँजते रहते हैं। इस बौखलाहट में विचारहीनता का गर्दों-गुबार उड़ाने के साथ ही कभी-कभी वे  बहुत नीच कोटि का काम भी कर बैठते हैं। पिछले दिनों कैंसरग्रस्‍त कवि वीरेन डंगवाल के सम्‍मान में मित्र कवियों-पाठकों की अंतरंग गोष्‍ठी का मज़ाक उड़ाते हुए उन्‍होंने  अपने इसी घटियापन की एक बानगी पेश की थी।
सुधीश पचौरी और अशोक चक्रधर जैसों के हास्‍य व्‍यंग्‍य लिखे अख़बार के पन्‍नों से माँएँ बस अपने बच्‍चों के लिए टॉयलेट पेपर का काम ले सकती हैं या उनका ठोंगा बनाकर चनाज़ोरगरम खाया जा सकता है। लेकिन बड़े पैमाने पर पाठकों की रुचि विकृत करने, भाषा की दुर्गति करने और व्‍यंग्‍य-लेखन की समृद्ध हिन्‍दी परम्‍परा को लांछित करने के अभियोग से इन भाषाई भाँड़ों को बरी भला कैसे किया जा सकता है।

अमूर्त-अकर्मक विमर्श-कर्मरत विद्वानों को समर्पित

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इन दिनों अमूर्त-अकर्मक (या अकर्मी) मार्क्‍सवादी विमर्शों की चतुर्दिक् धूम है। भाँति-भाँति के कूपमण्‍डूक बुद्धिजीवी और पण्डित, नाना प्रजातियों के किताबी कीड़े मार्क्‍सवाद में कुछ न कुछ इजाफा कर देने के लिए बेचैन हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिन्‍होंने मार्क्‍सवाद बस नाम-मात्र ही पढ़ा है। कुछ ऐसे हैं जिन्‍होंने मार्क्‍सवादी क्‍लासिक्‍स तो छुआ तक नहीं है, पर मार्क्‍सवादी-नवमार्क्‍सवादी-उत्‍तरमार्क्‍सवादी प्रोफेसरों-पण्डितों-भाष्‍यकारों को चुटिया बाँधकर घोख रखा है। यह सभी एक साथ मार्क्‍सवाद का ''विकास''करने के लिए  पिल पड़े हैं। रोज़ ही ऐसी कुछ ''नयी प्रस्‍थापनाएँ''और अटकलें सामने आती हैं कि आदमी का माथा घूम जाये। ''दार्शनिकों ने विभिन्‍न विधियों से विश्‍व की केवल व्‍याख्‍या ही की है, लेकिन प्रश्‍न विश्‍व को बदलने का है।'' -- मार्क्‍स की इस प्रसिद्ध उक्ति का नया मर्म उदघाटित करने में ही कई प्रोफेसरों-पण्डितों ने इधर पन्‍ने के पन्‍ने रंग डाले हैं। उनकी सारी बौद्धिक क़वायद का लक्ष्‍य शायद यह प्रतिपादित करना है कि नयी दुनिया की नयी सच्‍चाइयों की जो नयी व्‍याख्‍याएँ वे कर रहे हैं, वह भी दुनिया बदलने का ही एक ज़रूरी काम है। ऐसे बहुतेरे मार्क्‍सवादी पण्डित हैं जो अपनी सोच को लेकर संगठित होकर सामाजिक व्‍यवहार में तो उतरते नहीं, बस अब क्रान्ति न कर पाने के लिए काम करने वाले कम्‍युनिस्‍टों को कोसते-धिक्‍कारते हैं, इतिहास के अध्‍ययन के नाम पर इतिहास का शवोच्‍छेदन करते रहते हैं, महापुरुषों के कान का मैल इकट्ठा करते रहते हैं, या फिर कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारियों को सलाह देने के लिए 'कंसेल्‍टेंसी फर्में'खोलकर बैठ जाते हैं (जिनके 'एक्‍सटेंशन काउण्‍टर'सोशल मीडिया पर दीख जाते हैं) और ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से हाँक लगाने लगते हैं। तरह-तरह की नयी प्रस्‍थापनाओं-प्रकाशनाओं(इल्‍युमिनेशंस) से वैचारिक सफाई का उजाला फैलने जगह एकदम 'है गगन उगलता अंधकार...'वाला माहौल हो गया है।
पूँजीवादी दुनिया शायद उतनी तेज़ी से नहीं बदल रही है, जितनी तेज़ी से नयी-नयी व्‍याख्‍याएँ आ रही हैं, और उतनी भी नहीं बदली है, जितनी ज्‍यादातर नौदौलतिये चिन्‍तकों की व्‍याख्‍याएँ बताती हैं। दुनिया की तरह-तरह की व्‍याख्‍या करने को ही जिन लोगों ने दुनिया बदलने का काम बना दिया है, उनके बारे में कात्‍यायनी की इन कविताओं को पढ़ना दिलचस्‍प होगा और प्रासंगिक भी।

कात्‍यायनी की कविताएँ

दुनिया बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार

(एक)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
मानता हूँ।
लेकिन फिलहाल मैं असन्‍तुष्‍ट हूँ
दुनिया की व्‍याख्‍याओं से
और मानता हूँ कि
नये बदलावों की हो रही व्‍याख्‍याएँ
या तो नाकाफी या फिर ग़लत हैं
और यह कि
रुका हुआ है आज
दुनिया को बदलने का काम भी।
इसलिए अभी तो मैं
दुनिया की एक और व्‍याख्‍या कर रहा हूँ।

(दो)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
मानता हूँ।
मेरे लिए मगर मुमकिन नहीं रह गया है,
बदलना इसे।
इसलिए अब मैं
सलाहकार बन गया हूँ
दुनिया बदलने वालों का।
आओ, दुनिया बदलने वालों!
मेरे अनुभव का लाभ उठाओ,
अन्‍यथा बदलते रह जाओगे
नहीं बदलेगी यह दुनिया।

(तीन)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब चूँकि दुनिया बदलना
मेरे वश की बात नहीं
इसलिए मैं इसकी
एक और व्‍याख्‍या कर रहा हूँ
और जो भी थोड़ी-बहुत कोशिशें हो रही हैं
दुनिया बदलने की
उनकी समीक्षा कर रहा हूँ।

(चार)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
लेकिन मुकम्मिल तौर पर
बदलना इस दुनिया को
मेरे बूते की बात नहीं।
इसलिए मैं पैबन्‍द लगाता हूँ।

(पाँच)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब चूँकि इसे बदलना
मेरे वश की बात नहीं
इसलिए बदलने वालों को तैयार करता हूँ
एकदम आम लोगों के लिए
पत्रिका निकालता हूँ,
लोहे से लोहे पर वार करता हूँ।
सीमाएँ हैं मेरी कुछ अपनी
इसलिए थोड़ा पढ़ता हूँ बहुत समझता हूँ।
जटिल व्‍याख्‍याएँ समझता नहीं,
सरल व्‍याख्‍याएँ खुद ही कर लेता हूँ।
जनता को बताता हूँ
सीधा-सादा रास्‍ता बदलाव का
एकदम चनाज़ोर ग़रम जैसा
मुलायम, मज़ेदार, कुरमुरा
जो लपककर ले जाये जनता
और यूँ चुटकी बजाते
बदल डाले पूरी की पूरी दुनिया।

(छ:)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
लेकिन हम ख़ुद सोचेंगे
सभी सवालों पर फिर से,
नये ढंग से।
हर पुरानी चीज़ पर
सवाल उठाना है हमें
जैसे कि इस कथन पर भी
कि दार्शनिकों ने ... ...।

(सात)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
कठिन है लेकिन बदलना इस दुनिया को
काहिल, बेवकूफ और स्‍वार्थी
जनता पर निर्भर रहकर,
आज मैं पाता हूँ,
इसीलिए तो इस-उस एन.जी.ओ.के
दरवाज़े खटखटाता हूँ।

(आठ)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब जो समस्‍याएँ हैं
दुनिया को बदलने में
इ‍तनी अधिक और इतनी विराटकाय,
उनकी जड़ में है
सिर्फ़ एक बात मेरे भाय,
कि दुनिया बदलने वाले
नहीं लेते हैं मेरी राय!
हाय!!





अगर तुम युवा हो!

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शशि प्रकाश

जहाँ स्‍पन्दित हो रहा है बसन्‍त
हिंस्र हेमन्‍त और सुनसान शिशिर में
वहाँ है तुम्‍हारी जगह
अगर तुम युवा हो!
जहाँ बज रही है भविष्‍य-सिम्‍फ़नी
जहाँ स्‍वप्‍न-खोजी यात्राएँ कर रहे हैं
जहाँ ढाली जा रही हैं आगत की साहसिक परियोजनाएँ,
स्‍मृतियाँ जहाँ ईंधन हैं,
लुहार की भाथी की कलेजे में भरी
बेचैन गर्म हवा जहाँ ज़ि‍न्‍दगी को रफ़्तार दे रही है,
वहाँ तुम्‍हें होना है
अगर तुम युवा हो!
जहाँ दर-बदर हो रही है ज़ि‍न्‍दगी,
जहाँ हत्‍या हो रही है जीवित शब्‍दों की
और आवाज़ों को कैद-तनहाई की
सजा सुनायी जा रही है,
जहाँ निर्वासित वनस्पितियाँ हैं
और काली तपती चट्टानें हैं,
वहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा है
अगर तुम युवा हो!
जहाँ संकल्‍पों के बैरिकेड खड़े हो रहे हैं
जहाँ समझ की बंकरें खुद रही हैं
जहाँ चुनौतियों के परचम लहराये जा रहे हैं
वहाँ तुम्‍हारी तैनाती है
अगर तुम युवा हो।
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